शत्रु संहार में यज्ञ का उपयोग

July 1955

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यज्ञों द्वारा सदा सात्विक शक्ति तो उत्पन्न होती ही है। डडडड का कल्याण और उत्कर्ष करने वाला सतोमुखी वातावरण तो बनता ही है, साथ ही ऐसे तत्व भी यज्ञ द्वारा उत्पन्न होते हैं, जो शत्रुता, संकट और विरोध का सामना करने में पर्याप्त रूप से समर्थ होते हैं। विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य, विपत्ति निवारण के लिए उग्र, प्रचण्ड एवं महाघोर शक्ति को भी उत्पन्न कर सकता है। इसके कुछ उदाहरण नीचे देखिये:—

परीक्षित को जब तक्षक नाग ने (डस) दंशन कर स्वर्गवासी बना दिया तो उसके पुत्र जन्मेजय ने सर्प (नाग) यज्ञ करके समस्त सर्पों को नष्ट कराने—प्रतिशोध लेने की ठानी। यज्ञीय मन्त्रों में वह शक्ति है, जो किसी बलवान से बलवान को भी खींच ला सकती है। सर्प यज्ञ का उद्देश्य यही था कि मन्त्रों द्वारा खींच खींच कर, सर्पों को यज्ञ कुण्ड की अग्नि में भस्म कर दिया जाय।

इस यज्ञ का वर्णन महाभारत आदि पर्व में इस प्रकार आता है:—

प्रावृत्य कृष्ण वासाँसि धूम्र संरक्त लोचनाः।

जुहुवुमन्त्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम्॥2॥

कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणाम् मनांसि च।

सर्पाना जुहुवुस्तत्र सर्वानग्नि मुखै तदा॥3॥

—महाभारत, आ. प., 52 वाँ अ.

अर्थ—वे ऋत्विक् काले वस्त्र पहन कर और धूम से लाल−लाल आंखें वाले हो कर, प्रज्वलित अग्नि में मन्त्रों के साथ हवन करने लगे। इस घोर यज्ञ क्रिया से सब सर्पों के मनों को कम्पायमान करते हुए ऋत्विक् गण, उनका अग्नि में आवाहन करने लगे।

क्रोश योजन मात्राहि गोकर्णस्य प्रमाणतः। पतन्तयजस्रं वेगेन बह्माग्निमतांवर॥7॥ एवं शत सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च। अबशानि विनिष्ट्रानि पन्नगानां तु तत्र वै॥8॥

अर्थ—कोई कोस भर के, कोई चार कोस के तथा कोई गोकर्ण के सदृश आकार वाले सर्प आ−आकर, लगातार उस अग्नि में वेग से गिरने लगे। इस भांति, शत, सहस्र, दश सहस्र, लाख, अरब संख्या में सर्प गण अबश हो कर उस प्रचंड यज्ञाग्नि में नष्ट हो गये।

तक्षस्तु स नागेन्द्रः पुरन्दर निवेशनम्। गतः श्रुत्वैव राजानं दीक्षितं जन्तेजयम्॥14॥

महाभा, आदि पर्व, 53 वाँ अ.

अर्थ—तक्षक ने ज्यों ही सुना कि राजा जन्मेजय सर्प यज्ञ में दीक्षित हुए हैं, त्यों ही वह शीघ्रता पूर्वक भाग कर इन्द्र के लोक में चला गया।

इन्द्र ने उसे अपनी शरण में रख लिया।

जन्मेजय उवाच:—

यथा चेदं कर्म समाप्यते में तथा च वै तक्षक इति शीघ्रम्। तथा भवन्तुः प्रियतन्तु सर्वे परं शक्त्या स हि में विद्विषाणः॥4॥ ऋत्विज् ऊचु:—

यथा शास्त्राणि नः प्राहुर्यथा शंसति पावकः। इन्द्रस्य भवने राजंस्तक्षको भय पीडितः॥5॥

पुराण मागम्ब ततो व्रवीम्यहं दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन्। वसेह त्वं मत्सकाशे सुगुप्तो न पावकस्त्वां प्रदहिष्यतीति॥7॥

अर्थ—जन्मेजय ऋत्विजों से कहने लगे:—

जिस प्रकार मेरा यज्ञ सिद्धि के साथ समाप्त हो और तक्षक आकर शीघ्र भस्म हो जाय, आप लोग सभी यही घनीभूत प्रयत्न करें क्योंकि मेरा परम शक्ति शाली शत्रु तो तक्षक ही है।

ऋत्विजों ने उत्तर दिया:—

है राजन्! जो यह अग्नि सूचित कर रहे हैं, वही हमारे शास्त्र भी कह रहे हैं कि भयभीत तक्षक इन्द्र के भवन में जा कर छिप गया हैं।

हे राजन्! मैं पुराण का गम्भीरता से मनन कर आप से कहता हूँ कि इन्द्र ने उसे यह वरदान भी दे दिया है कि इन्द्र ने उसे यह वरदान भी दे दिया है कि तू मेरे पास में निवास कर, अग्नि तुझे जला न सकेगा।

एतच्छुत्वा दीक्षितस्यतप्यमान आस्ते होतारं चोद यर्त्कम काले। होता च यत्तो स्याऽऽजुहावाऽथ मन्त्रै रथो। महेन्द्रः स्वयमाजगाम॥8॥ विमानमारुह्यं महानुभावः सर्वैर्देवैः परिसंस्तूयमानः। बलाहकैश्चाप्यनुगम्यमानो विद्याधरैरपसस्यां गणैश्च॥9॥

—महाभारत, आदि पर्व, 56 वाँ अध्याय

अर्थ—यह सुन कर यज्ञ दीक्षा में स्थित राजा तापित होकर होताओं को तक्षक के आवाहन के लिये प्रेरणा करने लगे। होता गण भी बड़ी सावधानता और प्रयत्न के साथ मन्त्रों से हवन करने लगे, जिस से मेघ, विद्याधर और अप्सराओं से अनुगम्यमान स्वयं इन्द्र विमान पर बैठ कर, यज्ञ कुण्ड में गिरने के लिये आकाश में आ खड़ा हुआ।

जन्मेजय उवाच:—

इनद्रस्य भवने विप्रा यदि नागः स तक्षकः। तमिनद्रेणैव सहितं पातयध्वं विभावसौ॥11॥ सौतिरुवाच:— जन्मेजयेन राज्ञा तु नोदिस्तक्षकं प्रति। होता जुहाव तत्रस्थं तक्षकं पन्नगं तथा॥12॥ हूयमाने तथा चैव तक्षकः सपुरन्दरः। आकाशे ददृशे चैव क्षणेन व्यवस्थितस्तदा॥13॥

—महाभारत, आ. प., अ. 56

अर्थ—जन्मेजय बोला कि हे ब्राह्मणो! यदि इन्द्र की शरण में भी तक्षक पहुँच गया है, तो इन्द्र के साथ−साथ इस यज्ञ की अग्नि में उसकी आहुति दे डालो॥11॥

सूतपुत्र बोले:—जब राजा जन्मेजय ने तक्षक के उद्देश्य से होता को प्रेरित किया तो ऋत्विज् गणों ने आकाश में स्थित इन्द्र सहित तक्षक को हवन करने के लिये मन्त्रों से आवाहन किया ॥12॥ जिस क्षण इन्द्र सहित तक्षक के नाम मन्त्र पढ़ कर अग्नि में आहुति दी गयी, उसी क्षण इन्द्र सहित तक्षक व्याकुल हुआ आकाश में दिखाई देने लगा॥13॥

इस विपन्न अवस्था के बीच ऋषिकुमार आस्तीक न बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया। उसने जन्मेजय को प्रसन्न कर सर्प यज्ञ बन्द करने का वरदान लिया। इससे यज्ञ और यज्ञीय−मन्त्रों की शक्ति की प्रत्यक्ष बलवत्ता के दर्शन के संग इन्द्र तथा अवशिष्ट सर्पों सहित तक्षक के प्राणों की भी रक्षा हो गयी।

मैत्रेय जी के जिज्ञासा करने पर श्री पराशर मुनि कहते हैं:—

श्वामित्र प्रयुक्तेन रक्षसा भक्षितः पुरा। श्रु तस्तातस्ततः क्रोधो मैत्रेया भन्ममातुल॥13॥ ततोऽहं रक्षसा सत्रं विनाशाय समारभम्। भस्मी भूताञ्च शतशस्तास्मिन्सत्रे निशाचराः॥14॥

अर्थ—हे मैत्रेय! जब मैंने सुना कि विश्वामित्र की प्रेरणा से मेरे पिता को राक्षसों ने खा लिया हे, तो मुझे असीम क्रोध हुआ और तब राक्षसों को ध्वंस करने के लिये मैंने सत्र (यज्ञ) आरम्भ किया। उस उग्र यज्ञ में अनगिनत राक्षस जलकर भस्म हो गये।

इन्द्र ने सन्देह करके त्वष्टा के पुत्र विश्व रूप को मार डाला। इसके बाद पुत्र की मृत्यु से दुखी त्वष्टा ने इन्द्र से बदला लेने के लिये “उसका ऐसा शत्रु उत्पन्न हो” संकल्प करके अभिचार−यज्ञ किया। उस यज्ञ से अत्यन्त भयंकर वृत्रासुर का जन्म हुआ।

पुरा सुमेरु शिखरे काञ्चने रत्न पर्वते।

स्वर्गंगायास्तटे ब्रह्मा यज्ञं यजात भाव

तस्मिनयज्ञे स ददृशे विघ्नं खे लोहं दानवम्।

विघ्नस्य शमनं तस्य चिन्तयामास तत्ववित्॥

तदा चिन्तयतस्तस्य पुरुषः पावका द्बभौ।

नीलोत्पल दल श्यामः स्वरुचा वाञ्चितेक्षण॥

अभ्यनन्दन्त जातेन येनदेवास्समासबाः।

तस्मात्स नन्दको नामः खड्गरत्नम् भूत्तदा॥

तं दृष्ट्वा भगवान् ब्रह्मा केशवम् वाक्यमबव्रवीत।

खंग गृह्णीष्व गोप्तारं धर्मस्य जगताँ पते॥

यज्ञ विध्नकरं हत्वा खंगेनानेन केशव।

निपातय महाबाहो बलिनं लोह दानवम्॥

खंगेन तस्य गात्रणि चिच्छेद मधुहारणे।

खंगच्छिन्नानि गात्राणि नाना देशेषु भूतले॥

निपेतुस्तस्य धर्मज्ञ शतशोऽथ सहस्रशः।

नन्दकस्य तु संस्पर्शात्तानि गाबाणि भार्गव॥

—विष्णु धर्मोत्तर पुराण अ, 17 श्लोक 1,2,3,5,6,7,14,15

अर्थ—प्रथम कञ्चनमय सुमेरु पर्वत के शिखर पर, स्वर्गंगा के किनारे ब्रह्मा जी ने यज्ञ किया। उस यज्ञ में ब्रह्मा जी ने विघ्न करने वाले लोह नामक राक्षस को आकाश में देखा। तब ब्रह्मा जी विघ्न शान्त करने का उपाय सोचने लगे। ब्रह्मा जी के चिन्ता करते ही उस यज्ञाग्नि से नील कमल सदृश श्याम शरीर वाला एक पुरुष उत्पन्न हुआ। प्रकट होने वाले पुरुष ने देवताओं सहित ब्रह्मा जी की वन्दना की तब नन्दक नामक खंग प्रकट हुआ। खंग को देखकर ब्रह्मा जी ने केशव भगवान् से कहा—हे जगत्पते। आप धर्म की रक्षा करने वाले खंग को ग्रहण कीजिये, हे केशव! इस खंग से यज्ञ के विघ्न करने वाले बलवान लोह दानव को मार गिराओ, इतना कहने पर भगवान् मधुसूदन ने युद्ध में खंग से उस लोह दानव के अंगों को काट डाला। खंग से कटे लोह दानव के अंग सैकड़ों हजारों टुकड़े होकर विभिन्न देशों में गिरे।

असुरों से परास्त होने पर, देवताओं की आत्म रक्षा करने के जब जब प्रसंग आये हैं, तब तब यज्ञ रूपी ब्रह्मास्त्र का ही सहारा लेना पड़ा है। देवताओं की विपत्ति निवारण करने में सदा यज्ञ ही सहायक हुआ है।


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