वेदों में यज्ञाग्नि की प्रार्थना

July 1955

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पूर्ण दर्वि पर पत सुपूर्ण पूनरापत।

वस्नेन विक्रीणावहाऽइषभूर्जदँ शतक्रतो॥49॥

—याजु., प्र.ख., तृ.अ.

अर्थ—हे दर्वि! तू होतव्य द्रव्य से परिपूर्ण होकर ऊपर जाओ और वहाँ से भली−भाँति पूर्ण होकर पुनः हमारे पास लौट आओ। हे सूर्य! जैसे कोई मूल्य के माध्यम से कोई वस्तु खरीदते और बेचते हैं, उसी भाँति हम लोग इस यज्ञ कर्म में, आहुति क्रिया द्वारा, अन्न और रस, भोजन और पुष्टि, शक्ति और आनन्द का विनिमय—आदान−प्रदान किया करते हैं।

एष ते रुद्र भागः सह स्वस्नाम्बिकया तं

जुषस्व स्वाहैष ते रुद्र भागऽआखुस्ते पशुः ॥5॥

—यजु., प्र. खण्ड, तृ. अ.

अर्थ—हे यज्ञ! यह तेरा भाग है। तू इस आहुति देने के कारण अपनी सर्वतग रोगनाशक शक्ति से हमें प्राप्त हो। हे यज्ञ! यह (हवि) तेरा भाग है। तेरी सोम आदि हवि रोगों को भूल से ही विनाश करने वाली है।

अव रुद्रमदी मह्यव देवं त्र्यम्बकम्।

यथा नो वस्यसस्करद्यथा नः श्रेयस्करद्यथा नो व्यवसाययात् ॥58॥

—यजु., प्र. ख., तीसरा अ.

अर्थ—हे तीन उत्पत्ति स्थान वाले अग्ने! हम लोग तुझ देव को आहुतियों से तृप्त करते हैं, जिससे हमें, सम्पत्ति, श्रेय और उद्योगशीलता की प्राप्ति हो।

शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मा मा हिं दँ सीः। निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजासत्वाय सु वीर्याय॥63॥

—यजु., प्र.ख., तृ. अध्याय

अर्थ—हे यज्ञ! तू निश्चय से कल्याणकारी है। स्वयम्भू परमेश्वर तेरा पिता है। तेरे लिये नमस्कार है। तु हमारी रक्षा कर। दीर्घ आयु, उत्तम अन्न, प्रजनन शक्ति, ऐश्वर्य समृद्धि, श्रेष्ठ सन्तति एवं मंगलोन्मुखी बल पराक्रम के लिये हम श्रद्धा विश्वासपूर्वक तेरा सेवन करते हैं।

त्वामग्ने यजमानाऽअनु द्यून विश्वावसु दधिरे वार्याणि त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमंत्र मुशिजो विवव्नुः॥28॥

—यजु., प्र.ख. द्वादश अ.

अर्थ—हे देव अग्ने! जो सदा यज्ञ करते रहते हैं, ऐसे सद्गृहस्थ सदा ही श्रेष्ठ सम्पत्तियों के स्वामी होते हैं, उन्हें इस यज्ञ के पुण्य प्रभाव से सदैव ज्ञानियों की सत्संगति के साथ ही धन की प्राप्ति भी होती रहती है।

पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः समिंधतां पुनब्राह्मणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः॥44॥

—यजु.,प्र.ख., द्वा. अ.

अर्थ—हे ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाले यज्ञाग्ने! तुझे ये यज्ञकर्ता आदित्य यज्ञ, वसु यज्ञ एवं रुद्र यज्ञ के द्वारा बारम्बार प्रदीप्त करें। इन यज्ञों से तुम अपने तेजों की अभिवृद्धि करके यज्ञ कर्ताओं की कामना पूर्ण करो या पूर्ण करने में समर्थ होओ।

जयमग्नि पुरीष्यो रयिमान् पुष्टि वर्धनः।

अग्ने पुरीष्यामि द्युम्नमभि सहऽआयच्छस्व॥40॥

—यजु. प्रथम. ती.ख. अध्याय।

अर्थ—यह यज्ञाग्नि, वृष्टि कराने वाली,धन देने वाली तथा पुष्टि और शक्ति को बढ़ाने वाली है। हे पुष्रीय अग्नि तू हमारे सब ओर बल और यश का विस्तार करो।

त्रँशद्भाम विराजति वाक् पतंगाय धीयते। प्रति वस्तोरह द्युभिः॥8॥

—यजु., प्र. ख., ती. अ.

अर्थ—यह यज्ञ जो प्रतिदिन किया जाता है, वह अपनी प्रदीप्त ज्वालाओं से युक्त निरन्तर यज्ञकर्ता के अन्तर में विराजता रहता है, फिर ऐसी दशा में किसी अन्धकार असुर, अज्ञान को ठहराने का (यहाँ) अवकाश ही कैसे हो सकता है। इसीलिये सच्चे यज्ञकर्ता एक दिन सम्पूर्ण अंधकार और अज्ञान से मुक्त होकर दिव्य परमात्मा के चरणों में पहुँच जाते हैं।


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