प्रेम भाव

July 1955

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श्री रामचन्द्र जी ने भरत एवं लक्ष्मण जी को बुलाया और प्रेम भाव सहित पूछने लगे—

कृतं मयायथातथ्यं द्वित कार्य मनुत्तमम्। धर्मसेतुमथो भूयः कुर्तुमिच्छामि राघवौ॥3॥ अक्षयश्चाव्ययश्चैवधर्मसेतुर्मतोमम्। धर्म प्रवचनंचैव सर्व पाप प्रणशनम्॥4॥

अर्थ—मैंने द्विज का सम्पूर्ण कार्य किया परन्तु अब एक (राजसूयादि यज्ञ) धर्मसेतु करने की इच्छा है। मेरे मन में धर्मसेतु, अक्षय−अव्यय धर्म का बढ़ाने वाला और पापों का नाश करने वाला है ।3.4।

युवाभ्यामात्माभूताम्यां राजसूयं मनुत्तमम्। सहितो यष्टुमिच्छामि तत्रधर्मस्तु शाश्वतः॥5॥ इष्ट्वा तु राजसूयेन मिश्रः शत्रुनिबर्हणः। सुहुतेन सु यज्ञेन वरुणत्वमुपगत॥6॥ सोमश्च राजसूयेज इष्ट्वाधर्मेण धर्मवित्। प्राप्तश्च सर्व लोकेषु कीर्त्तिस्थान शाश्वतम्॥7॥

अर्थ—तुम दोनों अपने भाइयों की सहायता से मैं यज्ञ श्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान करना चाहता हूँ, इसके करने से अक्षय धर्म होता है॥5॥ शुत्रतापन मित्र जी सम्यक् प्रकार से राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करके वरुण की पदवी को उपलब्ध करने में समर्थ हुए हैं। धर्मात्मा सोम भी धर्म पूर्वक राजसूय यज्ञ करके अत्यन्त कीर्ति और अक्षय स्थान को प्राप्त हुए हैं॥7॥

भरत तथा राम में विचार होने के उपरान्त में श्री लक्ष्मण जी यज्ञ के सम्बन्ध में विचार देते हैं।

अश्वमेधो महायज्ञः पावनः सर्व पावनाम्।

पावनस्तव दुर्धर्षो रोचताँ रघुनन्दन ॥2॥

शूयतेहि पुरावृत्तं वासवेसु महात्मनि।

ब्रह्महत्यावृत्तो शक्रो हयमेधेन पावितः॥3॥

वाल्मीकि रामायण 84 वाँ सर्ग उत्तर काण्ड

अर्थ—हे रघुनाथ! सम्पूर्ण पापों से पवित्र करने वाला अश्वमेध यज्ञ है। हे दुर्धर्ष! यदि आपकी इच्छा हो तो वही यज्ञ कीजिए॥2॥ ऐसा सुना है कि पूर्व काल में महात्मा इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, वह इसी अश्वमेध यज्ञ के करने से पवित्र हुए थे॥3॥

रामचन्द्र के पूछने पर लक्ष्मण जी ने, वृत्रासुर को तपस्या करते समय निरपराध मारने के कारण इन्द्र को जो ब्रह्महत्या लगी थी, वह कथा कह सुनाई। उसके उपरान्त अग्नि आदि सभी देवता विष्णु भगवान से इन्द्र की ब्रह्महत्या रूपी पाप निवारण का उपाय पूछते हैं—

हतश्चायंत्वयावूत्रो ब्रह्महत्या च वासव। बाधते सुर शार्दूल मोक्ष तस्य विनिदर्श॥19॥ तेषाँ तद्व वनं श्रुत्वा देवानां विष्णुरब्रवीत। सामेव यजतां शक्रः पावयिष्यामि बज्रिणाम्।10॥

अर्थ—हे देवताओं में श्रेष्ठ (विष्णु भगवान!) वृत्रासुर मारा गया परन्तु इन्द्र को ब्रह्महत्या बाधा करती है। उसके छुटकारे का कोई उपाय बताइये।19/॥

उन देव के वचनों को श्रवण कर विष्णु जी बोले—हे देवताओं! इन्द्र हमारा यज्ञ करे, हम उन्हें पवित्र कर देंगे॥20।।

पुण्येनहयमेधेनमामिष्ट्वा पाक शासनः। पुनरेष्यति देवानामिन्द्रत्वमकुतोभय॥21॥

अर्थ—हे इंद्र! पुण्यमय अश्वमेध यज्ञ से मेरा यजन करके, पुनः देवपति की पदवी को प्राप्त करेंगे।

विष्णु भगवान के निर्देशानुसार देवताओं ने यज्ञानुष्ठान की सारी तैयारी की—

ते तु दृष्ट्वा सहस्राक्षमावृतब्रह्महत्यया।

तं पुरस्कृत्यदेवेशमश्वमेधं प्रचक्रिणा॥8॥

ततोश्वमेघः सुकहान्महेन्द्रस्य महात्मनः।

ववृते ब्रह्महत्याया पावनार्थं नरेश्वरः॥9॥

ततो यज्ञे समाप्ते तु ब्रह्महत्या महात्मनः।

अभिगम्याब्रवीद्वाक्यंक्वमेस्थानं विधानस्यथ।10।

वाल्मीकि रामा. उत्तर काण्ड सर्ग 86

अर्थ—इन देवताओं ने इन्द्र को ब्रह्महत्या से मुक्त देख इन्हें दीक्षा में बैठाकर यज्ञ करना आरम्भ किया ॥8॥ हे राजन्! तब महात्मा इंद्र को महा ब्रह्महत्या से मुक्त करने के लिए अश्वमेध यज्ञ होने लगा ॥9॥ जब यज्ञ पूर्ण हुआ तब वह ब्रह्महत्या इन्द्र के शरीर से निकल गई।

प्रशान्तं च जगत्सर्वं सहस्राक्षे प्रतिष्ठिते। यज्ञंचाद्भुत संकाशं तदाशक्रोभ्यपूजयत्॥19॥

ईदृशोहयश्वमेधस्य प्रसादो रघुनन्दन। यजस्य सु महाभाग हयमेधेनपर्थिव ॥20॥

अर्थ—जब इन्द्र अपने स्थान पर आकर विराजे, तब सब जगत शान्त हो गया और फिर इन्द्र ने बड़े अद्भुत यज्ञ का यजन और पूजन किया ॥19॥ हे रघुनाथ जी! अश्वमेध यज्ञ की ऐसी महिमा है। हे महा भाग भगवन्! इस कारण आप भी अश्वमेध यज्ञ कीजिए॥20॥

एतदाख्याकाकुत्सथो भ्रातृभ्याममितप्रभः। लक्षमणं पुनरेवाहधर्मयुक्तमिदं वचः॥10

वशिष्ठं वामदेवं च जाबालि कथ कश्यपम्। द्वितांश्च सर्वप्रवरानश्वमेघ पुरस्कृतान्॥2॥

वा.रामा. उत्तर काण्ड 91 सर्ग

अर्थ—अमित पराक्रमी रामचन्द्र अपने भ्राताओं से ऐसा कह, फिर लक्ष्मण जी से धर्म पूर्वक यह वचन बोले॥1॥ कि अश्वमेध यज्ञ कराने वाले, वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि−कश्यप इन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलाओ।

सबों के आने के बाद रामचन्द्र जी ने अश्वमेध यज्ञ करने के सम्बन्ध में चर्चा की।

तेपिरामस्य तच्छरुत्वा नमस्कृत्वा वृषध्वज। अश्वमेधं द्विजाः सर्वे पूजयन्तिस्मसवशः॥7॥

अर्थ—वे ऋषि राजचंद्रजी की वाणी श्रवण कर शिवजी को प्रणाम कर सब (ब्रह्मवादी ऋषि) अश्वमेध यज्ञ की प्रशंसा करने लगे।

इस यज्ञ में अविरत दान चलता रहा। सीता जी ने आकर पृथ्वी की गोद ग्रहण की और रामचंद्र यज्ञ को सम्पूर्ण धर्मकार्य समझ कर प्रतिवर्ष करते रहे।

नसीतायां पराभाय्र्यां वव्रेस रघुनंदनः।

यज्ञे यज्ञे चपल्यर्थं जानकी काँचनीभवत॥7॥

दशवर्ष सहस्राणि वाजमेधानथा करोत्।

वाजपेयांदशगुरगुणांस्तथा बहु स्वर्णकान्॥8॥

अग्निष्टोमातिरात्राभ्यांगोसर्वैश्च महाधनैः।

ईजेक्रतु भिरन्यैश्च श्रीमानाप्त दक्षिणैः॥

वाल्मीकि रामा. उत्तर काण्ड 99 सर्ग

अर्थ—जानकी के बिना रघुनाथ जी ने और कोई भार्या नहीं की किंतु जब, जब यज्ञ करते, सोने की सीता से यज्ञ कार्य पूर्ण किया जाता॥7॥ इस प्रकार से प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ, दश सहस्र वर्ष के पीछे उससे दस गुना फलदायक वाजपेय यज्ञ जिसमें बहुत सा स्वर्णदान किया जाता है, किये॥8॥ अग्निष्टोम, अतिरात्र,गोमेधादि यज्ञ तथा और भी अनेक यज्ञ महा दक्षिणा और दान देकर किये।

तुलसी कृत रामायण में अनेक स्थानों पर अनेक प्रसंगों में यज्ञों की महत्ता का प्रतिपादन है। देखिए:—

श्रद्धा−भक्ति के संग यज्ञ करने से देवता तुरत ही साक्षात होते हैं। जैसा सीताराम के विवाह में—

होम समय तनु धरि अनल, अति सुख आहुति लेहिं। विप्र वेष धरि वेद सब, कहि विवाह विधि देहिं॥

देवताओं को यज्ञ में सम्मिलित होने का आकर्षण है। वे दक्ष के यज्ञ में प्रसन्नता पूर्वक जाते हैं:—

दच्छ लिये मुनि बोलि सब, करन लगे बड़याग। नेवते सादर सकल सुर, जे पावत मख भाग॥27॥ किन्नर नाग सिद्ध गंधर्वा। वधुन्ह समेत चले सुर सर्वा

सर्व शक्ति, सुख−सम्पन्न चक्रवर्ती राजा भी अपने प्रेय और श्रेय की चिरंतनता के लिए यज्ञ करते ही रहते हैं।

जहाँ लगि कहे पुरान श्रुति, एक एक सब जाग।

बार सहस्र सहस्र नृप, किये सहित अनुराग॥

तुलसीदास ( रामायण लंका काण्ड )

राक्षस राज रावण ने यज्ञ में अपने शिर काटकर आहुति दी थी, यह यज्ञ की निश्चित फलदायकता का प्रमाण है।

सूर कवन रावण सरिस, स्वकर काटि जेहिं सीस। हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥

राजा प्रतापभानु के दुश्मन कपटी मुनि को भी विश्वास है।

करहिं विप्र होम मख सेवा। तेहि प्रसंग सहजेहि वश देवा॥

अर्थ—विप्र लोग हवन, यज्ञ और सेवा करते हैं, इसीलिए स्वभावतया ही देवगण उनके वश में रहते हैं।

कैकेय (वर्तमान काश्मीर) देश के राज प्रताप भानु जब तक निष्काम भाव से यज्ञादि सदनुष्ठान करते रहे तब तक उसका प्रताप भी भानु सदृश ही रहा।

जहाँ लगि रहे पुरान श्रुति, एक एक सब जाग। बार सहस्र सहस्र नृप, किये सहित अनुराग॥

स्वयं भगवान राम भी राज्य ग्रहण करने के बाद यज्ञ करना आवश्यक समझते हैं—

कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हें। दान अने द्विजन्ह कहँ दीन्हें॥


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