गीता में यज्ञ की महिमा

July 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म बन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्त संगः समाचर ॥3।॥

अर्थ—यज्ञ के निमित्त किये गये कर्मों के सिवाय दूसरे कर्मों को करने से यह मनुष्य कर्म बन्धन में बन्धता है, इसलिए हे अर्जुन! मुक्त संग रहकर तदर्थ कर्म को ही भली भाँति आचरण कर।

सहयज्ञाः प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वो अस्तिष्ट कामधुक् ॥3।1

अर्थ—कल्प के प्रारम्भ में प्रजापति ने यज्ञ सहित ही प्रजाओं की रचना की और कहा कि इसके (यज्ञ के) द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त करो और यह यज्ञ ही तुम लोगों की इष्ट कामनाओं को पूर्ण करने वाला होवे।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ 3।11

अर्थ—इस यज्ञ के द्वारा देवताओं की उन्नति (भावयत) करो और वे देव गण तुम लोगों की उन्नति करें। परस्पर उन्नति करते हुए श्रेय को प्राप्त होओगे।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञ भाविताः तैर्दत्तान् प्रदायैभ्यो यो मुंक्ते स्तेन एव सः ॥3।12

अर्थ—यज्ञभाविताः देव गण तुम लोगों को इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष इनके लिये बिना दिये ही भोग करता है, वह निश्चय चोर है।

यज्ञ शिष्टाशिनः सन्तोमुच्यन्तेसर्वकिल्बिषैः। भुञ्यजे तेत्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥3।13

अर्थ—यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं और जो पापी लोग अपने ही शरीर पोषण के लिए पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥3।14

अर्थ—सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य (वृष्टि) से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ तो कर्म से ही उत्पन्न होने वाला है।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्टितम्॥3।15

अर्थ—कर्म ब्रह्म (वेद) से उत्पन्न हुआ है, ऐसा जानो और ब्रह्म, अक्षर ( अविनाशी तत्व) से उत्पन्न हुआ है, इससे सर्वगतम् (सर्वव्यापी) ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं।

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थित चेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥3।23॥

अर्थ—आसक्ति से रहित, ज्ञानावस्थित चेतसः(चित्त वाले )यज्ञ के लिये ही आचरण करते हुए मुक्त पुरुषों के सम्पूर्ण कर्म प्रविलीन हो जाते हैं।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म ब्रह्माग्नौ ब्राह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना ॥4।24॥

अर्थ—अर्पण (श्रुवादिक ) भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्म रूप कर्त्ता के द्वारा जो हवन किया गया है तथा ब्रह्म रूप कर्म में समाधिस्थ हुए उस पुरुष के द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।

यज्ञशिष्टामृत भुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम 4।31

अर्थ—हे कुरुश्रेष्ठ! यज्ञों के परिणाम रूप अमृत को भोगने वाले रोगी गण सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ से रहित जो पुरुष हैं, उन्हें तो यह (मनुष्य) लोक भी सुखदायक नहीं हैं, फिर परलोक की ता बात ही क्या?

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहममेवाज्यमहग्निरहं हुतम् 9।16

अर्थ—(भगवान कहते हैं ) श्रौतकर्म मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, आज्य (घृत) मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ।

त्रैविद्या भां सोमपाः पूत पापा, यज्ञैरिष्ट्वा प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देव भोगान 9।20

अर्थ—त्रैविद्याः (तीनों वेदों में विधान किये हुए कर्मों को करने वाले ) एवं सोमरस पीने वाले, पापों से पवित्र हुये पुरुष मुझे यज्ञों द्वारा पूज कर स्वर्ग को चाहते हैं, वे पुण्य इन्द्रलोक को प्राप्त कर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।

अफलाकांङ्क्षभिर्यज्ञो के विधि दृष्टो य इज्यते। यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्विकः 17।11

अर्थ—जो यज्ञ शास्त्रीय विधि से नियत किया हुआ है( विधि दृष्टः) तथा करना ही कर्त्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ सात्विक है।

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सादिति चोच्यते 17।27

अर्थ—यज्ञ, तप तथा दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है।

यज्ञ दानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेवतत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् 18।5

अर्थ—यज्ञ−दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं वरन् वह कर्म तो करने ही योग्य है—करना कर्त्तव्य ही है। यज्ञ, दान और तप, यह तीनों तो मनीषियों को पवित्र करने वाला है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118