यज्ञ में असुर

July 1955

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जप जोग विरागा, तप मख भागा, श्रवण सुनई दशशीशा। आपुनु उठि घावइ रहै न पावई, धरि सब धालई खीसा।।

यज्ञ में असुर सदा ही विघ्न फैलाते हैं। मित्र और शत्रु के रूप में, पंडित और मूर्ख के रूप में, सहयोगी और विरोधी के रूप में नाना प्रकार के वेष बना कर असुर लोग यज्ञ की प्रक्रिया को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करते हैं कारण यह है कि यज्ञ से दैवीतत्व बलवान होते हैं और असुरता दुर्बल होती है। असुरों की अपनी हानि और अपने विरोधी देवताओं की शक्ति का बढ़ाना सहन नहीं होता, इससे वे यज्ञ को नष्ट करने के लिये जो कुछ कर सकते हैं, सो अवश्य करते हैं, विश्वामित्र ऋषि के यज्ञ को नष्ट करने में भी असुर लोग भारी विघ्न कर रहे थे। उनसे रक्षा करने के लिए विश्वामित्र जी, दशरथ के पास गये और रामचन्द्र जी तथा लक्ष्मण जी को माँग कर लाये। वाल्मीकि रामायण में इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार है—

अहं नियममातिष्ठे विद्धयर्थं पुरुषर्षभः। तस्य विघ्न करो द्वौतु राक्षसौ काम रूपिणौ॥4॥ नृतश्रमो निरुत्साहस्तस्माद्देशादपा क्रमे। व च में क्रोध मुत्स्रष्टुंबुद्धिर्भवति पार्थिव॥7॥

तथाभूतहिसाचर्या ना शापस्तत्र सुच्यते। स्वपुत्रं राजशर्दूल रामं सत्य पराक्रमम्॥8॥ काकपक्षधरं वीरं ज्येठंमेदातुँ मर्हसि ॥9॥

बाल्मीकि रामायण आदिकाण्ड।19। सर्ग

अर्थ—(विश्वामित्र दशरथ से कहते हैं कि हे राजन!) आजकल मैं एक महायज्ञ में दीक्षित हुआ हूँ। काम रूपी दो राक्षस उसकी समाप्ति न होते−होते ही विघ्न कर देते हैं॥4॥ जब हमारे यज्ञ की प्रतिज्ञा, करके भ्रष्ट हो जाती है, तो हमें केवल श्रम, श्रम ही होता है, इस कारण भग्नोत्साह होकर मैं यहाँ चला आया हूँ। हे पार्थिव! मैं उनको शाप दे सकता हूँ, परन्तु इस यज्ञ में क्रोध करना वर्जित है॥5॥ कारण कि ऐसे यज्ञ साधन काल में किसी को शाप नहीं देना चाहिये। हे राजो में सिंह! आप से यह प्रार्थना है कि सत्य पराक्रमी रामचन्द्र को, जो काक पक्ष धारण किये महावीर श्रेष्ठ हैं, उनको मेरे हाथ में सौंप दीजिये। यह मेरे दिव्य तेज के प्रभाव से मुझ से रक्षित किये जाकर, मेरे यज्ञ की रक्षा करने में समर्थ होंगे।

तुलसी कृत रामायण में इसका वर्णन यों मिलता है

जहाँ जप यग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुवाहू हिडर हों॥ देखत जग्य निशाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥ गाधि तनय मन चिन्ता व्यापी। हरि बिनु मरहिं न निशिचर पापी॥ तब मुनिवर मन कीन्ह विचारा। प्रभु अबतरेउ हरन महिं भारा॥ बहुविधि करत मनोरथ, जात लागि नहीं बार। करि मज्ज्न सरऊ जल, गये भूप दरबार॥

स्वागतादिक के उपरान्त राजा ने पूछा—

केहि कारण आगमन तुम्हारा। कहह सा करत न लावउँ वारा।। असुर समूह सतावहि मोही। मैं जांचन आयउँ नृप तोही।। अनुज समेत देहु रघुनाथा। निशिचर वध मैं होब सनाथा।।

दशरथ जी से राम और लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए मांग लाये—

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय यग्य करहु तुम जाई।। होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख की रखवारी।। सुनि मारीच निशाचर कोही। लै सहाय धावा मुनि द्रोही।। बिनु फर वाण राम तेहि सारा। शत जोजन गै सागर पारा।। पावक सर सुवाहु पुनि जारा। अनज निशाचर कटकु संहारा।

विश्वामित्र जी का यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात राम लक्ष्मण, राजा जनक जी के यज्ञ में विश्वामित्र के संग पधारे। जनक जी ने पुरोहित और ऋषियों को साथ लेकर विश्वामित्र का अर्चन और पूजन किया। उपरान्त जनक जी बोले।

यत्तोषदनंब्रह्मन्प्राप्तोऽसिमुनिभिः सह। द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे दीक्षामाहुर्मनीषिणः॥

वाल्मीकि रा. आ. का. 15।50

अर्थ—हे ब्रह्मर्षे! आप जो ऋषियों समेत मेरे यज्ञ में पधारे, यह मेरा बड़ा भाग्य है। हे महर्षे! पण्डित गणों ने बारह दिन दीक्षा काल के नियत किये हैं।

ततो भागथिनो देवा देवानद्रष्ट मर्हसिकौशिक। इन्युक्त्वामुनिशार्दूल प्रहृष्ट वदनज्ञस्तदा॥16॥

अर्थ—हे कौशिक! आप तभी यज्ञ भागार्थी देवताओं को देखेंगे।

जनक के शिव यज्ञ में देवता साक्षात रूप से पधारेंगे ऐसा योगी वर जनक को विश्वास है। सीता जी का विवाह जैसा महान कार्य सम्पन्न करने के लिए राजा जनक ने स्वयंवर यज्ञ करना ही उचित समझा था। सीता जी का विवाह अन्ततः एक विशाल यज्ञ द्वारा ही सम्पन्न हुआ। राम का जन्म और सीता का विवाह या दोनों ही महान कार्य यज्ञ की महत्ता द्वारा प्रतिपादित हुए हैं।

रावण को जब अपनी पराजय होती दीखती है तो वह चिन्तित और दुखी होकर अन्तिम ब्रह्मास्त्र यज्ञ का ही सहारा लेता है। अपने पुत्र मेघनाथ को एक बड़ा ताँत्रिक यज्ञ करके ऐसी शक्ति प्राप्त करने के लिए आदेश करता है जिससे व अजेय हो जाय ओर राम को सेना समेत परास्त कर सके। मेघनाथ निकुम्भिला नामक स्थान में जाकर अपने पिता रावण के बनाये हुए विधान के अनुसार ताँत्रिक होम करने लगा। वाल्मीकि रामायण में इसका वर्णन इस प्रकार है—

तन्तुहुत भोक्तारं हुत भुवसदृशप्रभः।


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