एक बार भूपति मन मांही। मै गलानि मोरे सुत नाहीं॥ गुरु गृह गयउ तुरत महिपाला। चरण लागि करि विनय विशाला॥ शृंगी ऋषि हि वशिष्ठ बोलावा। पुत्र काम शुभ यज्ञ करावा॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरु कर लीन्हें॥ यह हवि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥ तब हि राय प्रिय नारि बुलाई। कौशल्यादि तहां चलि आई॥ अर्ध भाग कौशल्य हिं दीन्हा। उभय भाग आधे कर लीन्हा॥ कैकेई कहां नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊँ।। कौशल्या कैकेयी हाथ धरि। दीन्ह सुमित्र हिं मन प्रसन्न करि।। एहि बिधि गर्भ सहित सब रानी। भईं हृदय हरषित सुख भारी।।
राक्षस पति रावण को भी यज्ञ-शक्ति पर पूरा विश्वास है। इसे प्रकट करते हुए अपने अनुचरों को आदेश करता है कि जहां कहीं भी यज्ञ होते दिखाई दें, उन्हें नष्ट करने और विघ्न डालने का प्रयत्न करो।