यज्ञ से सुसन्तति की प्राप्ति

July 1955

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यज्ञों का आश्चर्यजनक प्रभाव, जहाँ मनुष्य की आत्मा, बुद्धि एवं निरोगता पर पड़ता है वहाँ प्रजनन प्रणाली की भी शुद्धि होती है। याज्ञिकों को सुसंतति प्राप्त होती है। रज वीर्य में जो दोष होते हैं उनका निवारण होता है। साधारण और औषधियों का सेवन केवल शरीर के ऊपरी भागों तक ही प्रभाव दिखाता है पर यज्ञ द्वारा सूक्ष्म की हुई औषधियाँ याज्ञिक स्त्री पुरुषों के श्वाँस तथा रोम कूपों द्वारा शरीर के सूक्ष्म तम भागों तक पहुँच जाती हैं और उन्हें शुद्ध करती हैं। गर्भाशय एवं वीर्य कोषों की शुद्धि में यज्ञ विशेष रूप से सहायक होता है।

जिन्हें संतति नहीं होतीं, गर्भ पात हो जाते हैं, कन्या ही होती है, बालक अल्प जीवी होकर मर जाते हैं वे यज्ञ भगवान की उपासना करें तो उन्हें अभीष्ट संतान सुख मिल सकता है। कई बार कठोर प्रारब्ध संतान न होने का प्रधान कारण होता है, वैसी दशा में भी यज्ञ द्वारा उन पूर्ण संचित प्रारब्ध का शमन हो सकता है।

गर्भवती स्त्रियों को पेट से बच्चा आने से लेकर जन्म होने तक चार बार यज्ञ संस्कारित करने का विधान है ताकि उदरस्थ बालक के गुण, कर्म, स्वभाव स्वास्थ्य रंग रूप आदि उत्तम हो। गर्भाधान, पुँसवन, सीमन्त, जातक यह चार संस्कार यज्ञ द्वारा होते हैं जिनके कारण बालक पर उतनी छाप पहुँचती है जितनी जीवन भर की शिक्षा दीक्षा में नहीं पड़ती। ऋषियों ने षोडश संस्कार पद्धति का आविष्कार इसी दृष्टि से किया था। उस प्रणाली को जब इस देश में अपनाया जाता था तब घर घर सुसंस्कृत बालक पैदा होता था। आज उस प्रणाली को परित्याग करने का ही परिणाम है कि सर्वत्र अवज्ञाकारी, कुसंस्कारी संतान उत्पन्न होकर माता पिता तथा परिवार के सब लोगों को दुख देती है।

सन्तान उत्पादन के कार्य में यज्ञ का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है। जिनके सन्तान होती है, वे अपने भावी बालकों को यज्ञ भगवान के अनुग्रह से सुसंस्कारी, स्वस्थ, बुद्धिमान, सुन्दर और कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले बना सकते हैं। जिन्हें सन्तान नहीं होती है वे उन बाधाओं को हटा सकते हैं जिनके कारण वे सन्तान सुख से वञ्चित हैं। प्राचीन काल में अनेक सन्तान हीनों को, सन्तान प्राप्त होने के उदाहरण उपलब्ध होते हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं।

अयोध्या नरेश श्री दशरथ जी अपने यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों से कहते हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं:—

धर्मार्थ सहितं युक्तं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत्।

ममता तप्यमानस्य पुत्रार्थं नास्ति वैसुखम्॥8॥

—बाल्मीकि रामायण, आ. ख., द्वादश सर्ग

अर्थ—हे विप्रगणो! मैं पुत्र प्राप्ति की कामना से बहुत ही सन्तप्त और व्याकुल हूँ। मुझे कहीं जरा भी सुख नहीं मिल रहा है। मैंने पुत्र की प्राप्ति के लिये यज्ञ करने का विचार किया है।

ऋषि पुत्र प्रभावेण कामान्प्राष्स्यामि चाप्यहम्॥10॥

तद्यथा विधि पूर्व मे क्रतुरेष समाप्यते।

तथा विधानं क्रियतां समर्थाः करणेष्विह॥19॥

अर्थ—ऋषिपुत्र शृंगी ऋषि के यज्ञ क्रिया की निपुणता के प्रभाव से अवश्य ही हमारी पुत्र−कमाना पूरी होगी। अतः आप विधि पूर्वक यज्ञ करने−कराने में समर्थ द्विज गण सावधान हो कर यज्ञ करावें जिससे यह साँगोपाँग, विधि पूर्वक पूर्ण हो जाय।

विधि पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त हो जाने पर श्री विष्णु भगवान सभी देवताओं सहित यज्ञ स्थल में पधारे। वहाँ सभी देवों ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की—

विष्णोपुत्रत्वमाच्छ कृत्वात्वमानं चतुर्विंधम्।

तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धम लोक कण्टकम्॥

—वा. रा. 15 वां सर्ग 1 श्लोक 21

अर्थ—हे भगवन्! आप पुत्र भाव को प्राप्त होइये। आप अंश सहित चारों भागों में विभक्त होकर उनका (दशरथ जी का) पुत्र होना स्वीकार कीजिये और मनुष्य शरीर धारण कर बढ़े हुए लोक कण्टक (रावण) का नाश कीजिये।

भगवान् ने देवों की प्रार्थना स्वीकार की और—

पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृप॥8॥

वा. रा., 16 सर्ग

अर्थ—राजा दशरथ को पिता भाव में स्वीकार कर, इसे देवों को जता दिया।

सचाप्य पुत्रो नृपतिस्तस्मिन्काले महाद्युतिः।

अयजत्पुत्रियामिष्टिं पत्रेप्सुररिसुदनः॥9॥

सकृत्वा निश्चयंविष्णु रामन्त्रय च पितामहम्॥10॥

वा. रा. 16 वाँ सर्ग

अर्थ—जिस समय महा कान्ति वाले राजा दशरथ जी पुत्रेष्टि यज्ञ करने लगे, उसी समय विष्णु भगवान ने पुत्र बनकर उनके यहाँ अवतार लेने का सुस्थिर निश्चय किया।

कुलस्य वर्धनं तत्तु कर्तुमर्हसि सुव्रत।

तथेतिचसराजान मुवाच द्विज सत्तम॥59॥

—वाल्मीकि रामायण आदि काण्ड 14 सर्ग

अर्थ—हे सुव्रत! जिससे मेरे वंश की रक्षा हो, आप उसका ही अनुष्ठान कीजिए। ऋष्य शृंग ने तथास्तु कह कर−कहा−॥59॥

भविष्यन्ति सुता राजं श्चत्वारस्ते कुलोद्वहाः॥60॥

अर्थ—हे राजन्! तुम्हारे चार पुत्र वंश बढ़ाने वाले होंगे॥60॥

मेधावीतुततोध्यात्वा स किंचिदिदमुत्तरम्।

लब्ध संज्ञास्तस्तं तु वेदज्ञो नृपमऽब्रवीत्॥1॥

इष्टिं तेहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्र कारणात्॥

अथर्व शिरसि प्रौक्तैर्मन्त्रै सिद्धां विधानतः॥2॥

वा. रामायण 65 सर्ग

अर्थ—तदनन्तर मेधावी−वेदज्ञ महर्षि कुछ देर तक चिन्ता कर के बोले॥1॥ हे राजन्! मैं आपको पुत्र उत्पन्न होने के लिए अथर्वण में कहे हुए मन्त्रों से सिद्धि देने वाला पुत्रेष्टि यज्ञ कराऊँगा।

राजा अंग को पुत्र नहीं था। उपाय पूछने पर राजा के सभासद कहते हैं:—

नरदेवेह भवतो नाघं तानन्मनाक्स्थितम्॥ अस्त्येकं प्रोक्तमनघं यदि हे दृक्त्वम् प्रजेः॥31॥ तथा साधय भद्रं ते आत्मानं सुप्रजं नृप॥ इष्टस्ते पुत्रकामस्य पुत्रं दास्यति यज्ञभुक् ॥32॥

अर्थ—सभासदों ने कहा—हे नरोत्तम! इस जन्म में तो आपने कोई पाप नहीं किया है, परन्तु अवश्य ही कोई पूर्व जन्म का पाप है, जिससे आप पुत्र हीन हैं। इसलिए आप पुत्र पाने की साधना करें। आप यही कामना लेकर यज्ञ भोक्ता भगवान का यज्ञ द्वारा यजन करें, जिससे वे आपको पुत्र प्रदान करेंगे।31−32। पुत्र कामी राजा अंग को ऋषिगण कह रहे हैं:—

तथा स्व भागधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवौ कसः॥

तथा ष्वभागधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवौकसः।

यद्यज्ञ पुरुषः साक्षादपत्याय हरिवृर्तः॥33॥

ताँस्तान्कामान्हरिर्दद्यान्यान्कामयते जनः।

आराधितो यथैवैषां तथा पुंसां फलोदयः॥34॥

इति व्यवसिता विप्रास्तस्य राज्ञः प्रजातये।

पुरोडाशं निरवपञ्छिवि विष्टाय विष्णवे॥35॥

तस्मात् पुरुष उत्तस्यो हेममाल्य मलांवरः।

हिरण्यमयेन पात्रेण सिद्धमादाय पायसम्॥36॥

—भागवत्, च. स्क. 13 अ.

अर्थ—तदुपरान्त देवता भी अपना अपना भाग ग्रहण करेंगे, क्योंकि पुत्र प्राप्ति की कामना से जब आप यज्ञ पुरुष का यजन करेंगे, तो उस यज्ञ में, यज्ञ पुरुष के साथ देवगण भी स्वतः ही आयेंगे॥33॥

पुरुष, जिस मनोरथ के लिये यज्ञ द्वारा भगवान् यज्ञ पुरुष का यजन करते हैं, भगवान उनकी वही आशा पूरी करते हैं, क्योंकि भगवान भावना के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं॥34॥

विप्नों के द्वारा ऐसा सुनिश्चित विचार प्राप्त कर राजा ने यज्ञ भगवान के प्रसन्नार्थ पुरोडाश का हवन किया।।35।।

जब पुरोडाश का हवन विष्णु भगवान को मिला, तो उसी कुँड से, पहने हुए स्वर्ण हार तथा श्वेत वस्त्र धारण किये, हाथ में स्वर्ण थाल में खीर लिये एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ, जिसका सबों ने दर्शन किया॥36॥

स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाञ्जलिनौदनम्।

अवघ्राय मुदायक्तं प्रदात्पत्न्या उदारधीः॥37॥

सा तत्पुंसवनं राज्ञी प्राश्यर्तौ पत्युराधते।

गर्भ काल उपावृत्ते कुमारं सुषुवेऽप्रजा॥38॥

—भागवत

अर्थ—विप्रों की अनुमति से राजा ने उस पुरुष के हाथ से खीर लेकर प्रसन्नता से सूँघा और अपनी पत्नी को खाने के लिये दे दिया॥37॥

रानी ने खीर खाकर पति के गर्भ को धारण किया और समय पूरा होने पर पुत्र उत्पन्न किया॥38॥

श्री शुक्रदेव जी कहते हैं:—

इत्यर्थितं स भगवान् कृपालु ब्राह्मणः सुतः।

श्रपयित्वा चरुं त्वाष्ट्रं त्वष्टारम यज्ञद्विजम्॥27॥

ज्येष्ठा श्रेष्ठा च या राज्ञो महिषीणाँ च भारत।

नाम्ना कृतद्यु तिस्तस्तस्यै यज्ञोच्छिष्ट मदाद्विज॥28॥

—भागवत पुराण, छ. स्क., 14 अ.

अर्थ—जब राजा चित्रकेतु ने अंगिरा ऋषि की प्रार्थना की, तो ब्रह्मा के पुत्र परम दयालु अंगिरा ऋषि ने उसी समय त्वाष्ट्र चरु लेकर उसे सिद्ध क्रर त्वष्टा की पूजा करवाई और यज्ञ किया ॥27॥

हे भारत! (परीक्षित!) यज्ञ समाप्त होने पर, राजा की अनेकों रानियों में जो सब से श्रेष्ठ और बड़ी कृताद्युति थी, ब्रह्मर्षि अंगिरा ने उसे यज्ञ का शेष अन्न (यज्ञोच्छिष्ट) दिया।

सापि तत्प्रशनादेव चित्रकेतोरधारयत्। गर्भ कृतद्यु तिर्देवी कृतिकाऽग्नेरिवात्मज॥30॥ अथकाल उपावृत्ते कुमारः समजायत। जनयञ्छूर सेनानां शृण्वतां परमांमुदम्॥32॥ दृष्टो राजा कुमारस्य स्नातः शुचि रलंकृतः। वाचयित्वाऽऽशिषो विप्रैः कारयामासजातकम्॥33॥

अर्थ—यज्ञ शेष (चरु) भोजन करके चित्रकेतु की रानी कृतद्युति ने—जिस भाँति कृत्तिका ने अग्नि की आत्मा को धारण किया था, उसी भाँति धारण किया॥30॥

इसके पीछे जब गर्भ मास पूर्ण हो गये, तब राजकुमार उत्पन्न हुआ। पुत्र का जन्म सुनकर शूरसेन देश निवासियों को अपार आनन्द प्राप्त हुआ॥32॥

राजा चित्रकेतु पुत्र का जन्म श्रवण कर, आनन्द सागर में निमग्न हो गया। शान्त चित्त से स्नान−ध्यान कर, पवित्र हो स्वच्छ वस्त्र धारण किया और विध पूर्वक ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त कर, अपने पुत्र का जातकर्म संस्कार सविधि सम्पन्न किया॥33॥

श्री शुकदेव मुनि, मनु की वंश−परम्परा का वर्णन करते हुए कहते हैं—

तस्याविक्षित यस्य मरुतश्चक्रवर्त्य भूत।

संवर्त्तो ययाजद्यं वै महायोग्यं गिरिस्सुतः॥26॥

मरुतस्य यथायज्ञो न तथा अन्यश्च कश्चन।

सर्वं हिरण्यं त्वासीद्यत्किञ्चिच्चास्य शोभनम्॥27॥

अमाद्यादिन्दुः सोमेन दक्षिणाभि द्विजातयः।

मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदेवा सभासद॥28॥

—भागवत., नवाँ स्क., दू. अ.

अर्थ—करन्धम के पुत्र अवीक्षित, अवीक्षित के मरुत, जो चक्रवर्ती राजा मुए; जिनको, अंगिरा के पुत्र महायोगी संवर्त्त ने यज्ञ कराया था॥26॥

इस मरुत के यज्ञ के समान किसी का यज्ञ प्रसिद्ध नहीं है। उनके यज्ञ में सभी पात्र स्वर्ण के थे। इनके यज्ञ में सोमपन करके सुरेन्द्र बहुत प्रसन्न हुए। अधिकतम दक्षिणा पाकर ब्राह्मण हर्षित हो रहे थे। इस महायज्ञ में मरुद्गण परोसने वाले और विश्वेदेव गण सभासद हुए थे॥27।25॥

कृश्वाश्वात् सोमदत्तोऽभूद्योऽश्वमेघैरिऽपतिम्।

इष्ट्वा पुरुषा मापाग्रया गतिं योगेश्वराश्रितः॥35॥

—भाग., नवम् स्कन्ध, दूसरा अध्याय

अर्थ—उनमें (मनुवंश में) कृशाश्व का पुत्र सोमदत्त हुआ, जिसने अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञपति भगवान की पूजा की और फल स्वरूप उन्होंने योगीश्वरों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति की प्राप्ति की।

श्री शुकदेव जी मनुवंश परम्परा का वर्णन करते हैं:—

अप्रजस्य मनोःपूर्वं वशिष्ठो भगवान्किल। मित्रावरुणस्याष्टिं प्रजार्थमकरोत्प्रभु॥13॥ तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत। दुहितर्थमुपागम्य प्राणिपत्य पयोव्रता॥14॥ भा., न. स्क. - प्र. अ.

अर्थ—इक्ष्वाकु आदि पुत्रों के पहिले मनु जी निःसन्तान थे, इसलिये महर्षि वशिष्ठ जी ने उनसे मित्रावरुण का यज्ञ कराया॥13॥

मनु की भार्या श्रद्धा ने, जो उस यज्ञ में पयोव्रत धारण किये हुई थीं—जो विधिपूर्वक केवल दूध पीकर ही यज्ञ संलग्न थीं, वह होताओं के निकट गयी और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना की कि आप ऐसा होम करें, जिससे मुझे कन्या उत्पन्न हो॥14॥

प्रेषिणो उर्ध्वयुणा होता यत्तया सुसमाहितः।

हविषि व्यचरेत् तेन वषट्कारं गृणन्द्विजः॥15॥

होतुस्तद्वयभिचारेण कन्येला नाम साऽभवत्।

ताँ विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम्॥16॥

भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादियाम्।

विपर्य्ययमहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया॥17॥

—भागवत्, न. स्क., प्र. प्र.

अर्थ—श्रद्धा की प्रार्थना से “अहै यज्ञकर” इस प्रकार अध्वर्यु ने प्रेरित हो, होता ने हवि के ग्रहण हो जाने पर, मन में इस प्रकार का ध्यान और मुख से ‘वषट्’ शब्द उच्चारण करके मनु पत्नी की प्रार्थना को पूर्ण किया॥15॥

होता के ऐसा आचरण करने के कारण मनु को ‘इला’ नामिका कन्या की प्राप्ति हुई। पुत्र प्राप्ति की चाहना पूरी नहीं होने के कारण मनु ने असन्तुष्ट भाव से महर्षि वशिष्ठ से कहा:—॥16॥ हे भगवन्! आप ब्रह्मवादी हैं, आप लोगों द्वारा किये यज्ञ का फल विपरीत कैसे हो गया? इस भाँति मन्त्र और यज्ञ के उल्टे परिणाम होने से आह! मुझे कितना कष्ट है? ऐसा तो नहीं होना चाहिये॥17॥

यूयं मन्त्रविदो युक्रास्तपसा दग्ध किल्विषा।

कुतः संकल्प वैषस्यमनृतं विबुधेष्विव॥18॥

त्तन्निशम्य वचस्तस्य भगवान् प्रपितामह।

होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा वभाषे रविनन्दनम्॥19॥

—भागवत्, न. स्क. प्र. प्र.

अर्थ—आप मन्त्र ज्ञाता हैं। तप से आप के सभी पाप नष्ट हो गये हैं, देव लोगों के बीच अमृत के समान जो आपका संकल्प है, उसकी सब लोगों के बीच यह विषमता कैसे हुई? मनु की बात सुनकर महर्षि वशिष्ठ जी ने होता के व्यभिचार को जान लिया और मनु से बोले:—॥18।19॥

एतत् संकल्प वैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः।

तथाऽपि साधयिष्येते सुप्रजस्त्वं स्वतेजसा॥20॥

—भागवत, नवम स्कन्ध प्र. अ.

अर्थ—हे वत्स! यह संकल्प का वैषम्य तुम्हारे होताओं के व्यभिचार के कारण हुआ है, किंतु (यज्ञफल की अव्यर्थता के लिये) फिर भी मैं तुम्हें पुत्र ही दूँगा।

मनु पुत्र सुद्युम्न, शिव−विहार वन में जाने के कारण, एक महीना पुरुष तथा एक महीना नारी बनकर रहने लगे। अतः वैवस्वत् मनु ने पुनः अन्य पुत्र की कामना की और—

ततोयजन्मनुर्देवमपत्यार्थं हरिं प्रभुम्।

इक्ष्वाकु पूर्वजान् पुत्रान् लेभे स्वसद्दशान्॥2॥

भागवत्, नवम स्क., दू. अ.

अर्थ—मनु ने भगवान वासुदेव का यज्ञ, सन्तान की कामना से किया। इस यज्ञ को करने से उन्हें दश पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिनमें इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे।

राजा दिलीप को सन्तान नहीं होती थी। सन्तान के हेतु वे पत्नी सहित (महर्षि) वशिष्ठ गुरु के आश्रम में रहे। वहाँ वे गुरु की गायें चराते थे और आश्रम के यज्ञीय वातावरण में रह कर निरन्तर औषधि सेवन करते रहते−वैसा यज्ञ धूम्र शरीर में प्रवेश करने के स्वर्णिम अवसर प्राप्त करते थे। इस साधना से दिलीप को बड़ा ही प्रतापी पुत्र प्राप्त हुआ।

युवनाश्व के पुत्र नहीं था—

भार्य्या शतेन निर्विगण ऋषयोऽस्य कृपालवः।

इष्टिं स्म वर्तयाँचक्रु रैन्द्री ते सु समाहितः॥26॥

राजा तदज्ञ सदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः।

दृष्ट्वा शयानाम् विप्रा स्तान् पपौ मन्त्र जल स्वयम्॥27॥

उत्थितास्ते विशम्याथ वयुदकं कलशं प्रभो।

प्रपच्छु कस्य कर्मेयं पीतं पुँसवनं जलम्॥28॥

राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वर प्रहितेन ते।

ईश्वराय नमस्चक्रु रहो दैव बलं बलं॥29॥

—भाग., भ., स्क., प्र. अ.

अर्थ—युवनाश्व को सौ पत्नियाँ थीं, किन्तु संतान के अभाव में वे शोकाकुल ही रहते थे। वनवासी ऋषियों को राजा पर दया आ गयी। वे सावधानता पूर्वक राजा से ‘इन्द्रदैवत्य’ यज्ञ कराने लगे। हे राजन्! अब आश्चर्य की बात सुनो। जब यज्ञ हो ही रहा था, तभी एक रात में राजा युवनाश्व प्यास से आकुल हो यज्ञशाला गया। उस समय यज्ञ कराने वाले सभी सो रहे थे। प्यास की तीव्रता में राजा ने उठा कर वह जल पी लिया, जो जल, राजा की पत्नी के पीने के लिए रक्खा गया था। जब ऋत्विज् गण जागे तो देखा कि कलश में जल नहीं है। विस्मित हो पूछा:—यह कर्म किसका है? किसने पुत्र उत्पन्न करने वाला जल पी लिया? जब ज्ञात हुआ कि ईश्वर प्रेरित हो राजा ने ही वह जल पी लिया है, तब सभी भगवान् को प्रणाम करते हुए कहने लगे कि—

भाग्य बड़ा बली है, पुरुष का बल उसके सामने तुच्छ है।

ततःकाल उपाबृते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम्।

युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवर्ती जनान ह॥30॥

—भा. न. प., प्र. अ.

अर्थ—समय पूरा होने पर युवनाश्व की दक्षिण कुक्षि फाड़कर चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त पुत्र (मान्धाता) उत्पन्न हुआ।

कोशल देश के देवदत्त नामक ब्राह्मण ने तमसा नदी के किनारे बड़े−बड़े ऋषियों को एकत्रित कर पुत्रेष्टि यज्ञ को विधि पूर्वक संपन्न किया। यज्ञ पूर्ण होने पर उसे पुत्र की प्राप्ति हुई।

पराशर मुनि कहते है:—

ततोऽस्य बितथे पुत्र जन्मनि पुत्रार्यिनो मरुत्सोम याजिनो दीर्घ तपसः पाष्यर्य पास्ताद बृहस्पति वीर्यादुतथ्य पत्नयां ममतायां समुत्पन्नो भरद्वाजख्यः मरुद्भिर्दत्तः॥16॥

—विष्णु पुराण, च. अं., अ. 19

पुत्र जन्म के विफल हो जाने से भरत ने पुत्र की कामना से मरुत्सोम नामक यज्ञ किया। उन यज्ञ के अन्त में मरुद्गण ने उन्हें भरद्वाज नामक पुत्र दिया, जिसकी उत्पत्ति बृहस्पति के वीर्य और ममता के गर्भ से हुआ था।

राजा उग्रसेन तथा उसकी पत्नी ने अपने मरे हुए पुत्र प्राप्ति की इच्छा की, यह सुनकर श्री कृष्ण भगवान ने कहा:—

अश्वमेधं क्रतुवरं कुरु धैर्य्येण भूपते।

दर्शयिष्याम्यहं सर्वान्यज्ञास्यां ते च सुतान॥36॥

—गर्ग संहिता, अ. ख., अ. 13

अर्थ—है भूपते! आप यज्ञश्रेष्ठ अश्वमेध का अनुष्ठान कीजिये। इस यज्ञ के प्रभाव से मैं तुम्हारे सभी मरे हुए पुत्रों का दर्शन करा दूंगा।

सर्व समर्थ भगवान भी ऐसा कराके यज्ञ का निश्चित महत्ता का संस्थापन ही करते हैं।

जिनकी सन्तान स्वर्गवासी हो चुकी है, पर जिन्हें अपने स्वर्गीय बालकों से अधिक मोह है, वे यज्ञ के प्रभाव से अपनी सन्तान का स्वप्न आदि में दर्शन और सम्भाषण का अवसर प्राप्त कर सकते हैं तथा अपनी या परिवार की किसी अन्य स्त्री की कुक्षि से उस बालक की आत्मा को पुनः अवतरित कर सकते हैं।


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