तेजस्वी इंद्रजीत

July 1955

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जुहुवे राक्षस श्रेष्ठो विधिवन्मन्त्र सत्तमैः।18। सहविर्लाज सत्कारै र्माल्य गन्व पुरस्कृतैः।

जुहवं पावकंतत्र राक्षसेन्द्रः प्रतापवान्।19।

शास्त्राणि शर पत्राणि समिघोथ विभीतकाः। लोहिता निचवासांसिस्त्रुवं कार्ष्णायसंतथा।20।

अर्थ—इस स्थान का नाम निकुम्भिला था, अग्नि तुल्य तेजस्वी इंद्रजीत यहाँ पर विधि पूर्वक अग्नि में होम करने लगा।18। उस प्रतापशाली राक्षसों में श्रेष्ठ इन्द्रजीत ने प्रथम अग्नि में माला और सुगन्धित द्रव्य चढ़ाकर उसके बाद खीर एवं अक्षत से उसका संस्कार पूरा करके हवन कर्म को आरम्भ किया।18। उस हवन कुण्ड के चारों ओर जहाँ शरपत बिछाना चाहिये, वहाँ उसने सव शस्त्र बिछाये व बहेड़े की लकड़ी को इन्धन बनाया, समस्त लाल ही वस्त्र धारण किया और लोहे का श्रुवा बनाया, मारण में यही पदार्थ काम आते हैं।

तस्मिन्नाहूयमानेस्त्रे हूयमाने च पावके। सार्कग्रहेन्दुनक्षत्रं वितत्रास नमः स्थलम्।25।

सपावकंपावकं दीप्ततेजा हुत्वा महेन्द्रमतिकप्रभाव। सचापवाणसिरथाश्व शूलः खेतर्द धेत्मानमचिन्त्यवीर्यः।26।

अर्थ—जब उस वीर मेघनाद ने अग्नि में आहुति दी और सब अस्त्रों को ब्रह्म मन्त्र से अभिमन्त्रित किया उस समय चन्द्र सूर्य आदि ग्रह, नक्षत्र गणों के सहित समस्त आकाश मण्डल त्रासित हो गया।25। इन्द्र के समान प्रभावशाली और अग्नि के समान प्रदीप्त वह अप्रमेय वीर्य वाला इन्द्रजीत इस प्रकार से अग्नि में आहुति दे धनुष, बाण, शूल, अश्व और रथ के सहित आकाश में जाकर अन्तर्धान हो गया। वह नाना प्रकार की मायावी शक्तियां प्राप्त करके रामदल को भ्रम में डालने लगा उसने माया मंत्र से एक नकली सीता बनाई और उसका वध करके राम तथा उनकी सेना को शोक तथा चिन्ता में डाल कर अपना काम बना लेना चाहा। इस सब मायाचार का भण्डा फोड़ करते हुए विभीषण ने रामचन्द्र जी को कहा—

चैत्यं निकुंभिलाभद्यप्राप्यं होमं करिष्यति। हुतवानुपयातोहिदैवेरपिसतसवैः।14। दुराधर्षोभवत्येषसंग्रामेरावणत्मजः। तेन मोह्यतानूनमेषा माया प्रयोजिता। विघ्न मन्विच्छातातत्रवानराणं पराक्रमे।15।

वाल्मी. युद्ध. 85 सर्ग

अर्थ—आज निकुम्भिला में जाकर मेघनाद होम करेगा। इन्द्रजीत देवताओं सहित अग्निदेव वह पहुँचे हैं। जब कि वह यज्ञ में होम करके अग्नि को प्रसन्न कर लेगा, तब देवताओं सहित इन्द्र को भी संग्राम में मेघनाद दुर्द्धर्ष हो जायगा, हम निश्चय कहते हैं कि अपनी अभिलाषा सिद्ध करने के लिये और वानरों का पराक्रम नष्ट करने के लिये ही उसने ऐसी माया प्रगट की है।

ससैन्यास्तत्रगच्छामोयावतन्न समाप्यते। त्यजैनंनरशादूर्ल मिथ्यांसंतापमागत।16।

अर्थ—जब तक उसका यज्ञ समाप्त न हो जाय, तब तक हम सेना सहित उस ताँत्रिक यज्ञ को विध्वंस करने के लिए वहाँ पहुँच जायं।

विभीषण जी सेना सहित लक्ष्मण का साथ लेकर मेघनाद का यज्ञ विध्वंस करने गये हैं। वह स्थान सेना से घिरा हुआ है। विभीषण जी लक्ष्मण से कहते हैं−

सत्वमिन्द्राशनिप्रख्यैः शरैरय किरन्परान्।

अभिद्रवाशुयाद्वै नैतर्त्कम समाप्यते॥4॥

वाल्मीकि रा.युद्ध का. सर्ग 86

अर्थ—जब तक यह अभिचारिक होम पूरा नहीं होता, तब तक इन्द्र बज्र सदृश बाणों से आप राक्षसों की सेना को पीड़ा देते रहिये।

ऐसा ही किया उपरान्त—

स्वमनीकंविषएण्णाँतु श्रुत्वा शत्रुभिरर्दितम्। उदतिष्ठत दुर्धषः सकर्मण्यननुष्टिते॥14॥

अर्थ—इस ओर अजेय रावण पुत्र अपनी सेना को शत्रु दलों से मर्दित और व्याकुल देख अपने यज्ञ को बिना पूरा किये ही उठ बैठा।

इस प्रकार उस यज्ञ के असफल हो जाने पर असुरों को वह शक्ति प्राप्त न हो सकी जिससे वे राम सेना को नष्ट करने और स्वयं अजेय बनने में समर्थ होते।

तुलसी कृत रामायण से इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार है—

रावण भी इस युद्ध में विजय पाने के लिये यज्ञ का ही आश्रय ग्रहण करता है।

जहाँ दशानन जागि करि, करै लाग कछु जग्य।

राम विरोध विजय चह, शठ हठ वश अति अग्य॥

इहाँ विभीषण सब सुधि पाई। सपदि जाइ−रघुपतिहि सुनई॥ नाथ करहिं रावण एक जागा। सिद्ध भये नहिं मरहि अभागा॥ पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं विधंस आव दशकन्धर॥ प्राप्त होत प्रभु सुमट पठाये। हनुमदादि अंगद सब धाये॥ जग्य करत जब ही सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध विशेखा॥ रण ते निलज भागि घर आवा। इहाँ आइ शठ ध्यान लगावा॥ अस कहि अंगद मारी लाता। चितव न शठ स्वारथ मन राता॥

छन्द

नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन्ह लातन्ह काटहीं। धरि केश नारि निकारि बाहेर तेऽति दीन पुकार हीं।। तब उठे क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारई। इहि बीच कापन्ह विधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई।।

रावण ही नहीं, उसके पुत्र मेघनाद को भी यज्ञ के द्वारा शक्ति प्राप्त करने का अपना अनुभव है:—

मेघनाद कै मुरछा जागी। पिताहि विलोकि लाज अति लागी। तुरत गयउ गिरिवर कन्दरा। करौ अजय मख अस मन धरा।। इहां विभीषण मन्त्र विचारा। सुनहु नाथ बल अतुल अपारा।। मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन। जौं प्रभु सिद्ध होइ सा पाइहि। नाथ वेगि पुनि जीति न जाइहि।।

विभीषण के विश्वास का राम समर्थन करते हैं और तुरत कहते हैं—

लक्ष्मण संग जाहु सब भाई। करहु विधंस यज्ञ कर जाई॥ जाइ कपिन्ह सो देखा वैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥ कीन्ह कपिन्ह जब यज्ञ विधंसा। जब न उठहिं तब करहिं प्रशसा। तदपि न उठइ घरेन्हि कच जाई। लातन्हि हनि हनि चले पराई ॥ लै त्रिशूल धावा कपि भागे। आये रामानुज के आगे॥

वनवास से वापिस लौटने पर भी रामचन्द्र जी को उस कार्य के करने की इच्छा हुई जो समस्त प्रजाः के लिये, समस्त संसार के लिये, समस्त प्राणी मात्र के लिए एक अतीव उपयोगी आयोजन है। रामचन्द्र जी के पूर्वज भी बड़े बड़े यज्ञ करते रहे थे। श्रेष्ठ क्षत्री और श्रेष्ठ ब्राह्मण सदा ही विश्व कल्याण के लिये यज्ञों के विशद् आयोजन करने का प्रयत्न करते थे। राज्य शासन हाथ में लेने के बाद, वैसा आयोजन करने का राम का विचार उचित, आवश्यक और स्वाभाविक ही था। वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 83 वाँ सर्ग में इस प्रसंग का वर्णन यों है—


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