मनुष्य बहुधा अनेक भूल और त्रुटियाँ जान एवं अनजान में करता ही रहता है। अनेक बार उससे भयंकर पाप भी बन पड़ते हैं। पापों के फल स्वरूप निश्चित रूप से मनुष्य को नाना प्रकार की नारकीय पीड़ायें चिरकाल तक सहनी पड़ती हैं। पातकी मनुष्य की भूलों का सुधार और प्रायश्चित भी उसी प्रकार सम्भव है, जिस प्रकार स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों के तोड़ने पर रोग हो जाता है, और उससे दुःख होता है, तो थोड़ी चिकित्सा आदि से उस रोग का निवारण भी किया जा सकता है। पाप का प्रायश्चित्त करने पर उसके दुष्परिणामों के भार में कमी हो जाती है और कई बार तो पूर्णतः निवृत्ति भी हो जाती है। पाप के प्रायश्चितों में यज्ञ को सर्वोत्तम प्रायश्चित्त शास्त्रकारों ने कहा है:—
गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौड मौञ्ची निबन्धनैः।
वैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते॥27॥
—मनुस्मृति, दूसरा अध्याय।
अर्थ—गर्भाधान, जातकर्म, चूड़ाकर्म और मौंजी-बन्धन संस्कार करने, के समय हवन करने से वीर्य और गर्भ की त्रुटियों और दोषों की परिशुद्धि हो जाती है।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्व ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥28॥
—मनुस्मृति, दूसरा अध्याय
अर्थ—महायज्ञ और यज्ञ करने से ही यह शरीर ब्राह्मी या ब्राह्मण बनता है।
शेष जी, भगवान् रामचन्द्र से कहते हैं:—
सर्वं सपापंतरतियोऽश्वमेधंयजेतवै।
तस्मात्त्त्रं यजविश्वात्मन्वाजिमेधेन शोभिना॥
पद्म महा पु., पा. ख.8, श्लोक 31
अर्थ—शेष भगवान श्री रामचन्द्र जी से कहते हैं कि सब पापों में रत व्यक्ति भी यज्ञ करने से पाप मुक्त हो जाता है। अतः हे राम! आप भी सुन्दर मेध करें।
सवाजिमेधो विप्राणां हत्यायाः पापनोदनः।
कृतवान्यं महाराजो दिलीपस्तव पूर्वजः॥
पा॰ महा पु., पा खं.8, श्लोक 33
अर्थ—शेष जी कहते हैं कि हे राम! ब्रह्म हत्या जैसे पापों को नष्ट करने वाला महायज्ञ कीजिये, जिसे आपके पूर्वज महाराज दिलीप कर चुके हैं।
हयमेधं चरित्वा से लोकान्वैपावयिष्यति!
यन्नामब्रह्महत्यायाः प्रायश्चिते प्रदिश्यते॥
पा. महा पु., पा. खं.,अ.23, श्लोक 58
अर्थ—सुमति कहती है कि महायज्ञ करने से लोक पवित्र हो जाते हैं, यह ब्रह्महत्या का प्रायश्चित है। इससे ब्रह्महत्या का पाप भी नष्ट हो जाता है।
ब्रह्महत्या सहस्राणि भ्रूणहत्या अर्बुदानि च।
कोटि होमेन नश्यन्ति यथावच्छिव भाषितम्।।
मत्स्य पु., अ., श्लोक 139।।
शिवजी का वचन है कि सहस्रों ब्रह्महत्यायें, अरबों भ्रूण इत्यादि पाप, कोटि आहुतियों का हवन करने से नष्ट हो जाते हैं।
कलि मागत माज्ञाय कृतमानसैः॥
आदि पुराण 2।22
अर्थ—कलि के दुर्गुणों से बचने के लिए यज्ञ की अभिलाषा की गई।
जब महाभारत समाप्त हो गया तो, पाण्डवों को व्यास जी ने यज्ञ करके अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए प्रेरणा दी:—
तपोभिः क्रतुमिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर।
तरन्ति नित्यं पुरुपाये स्म पापानि कुर्वते॥
यज्ञेन तपसा चैव दानेर च नराधिप।
पूयन्ते नरशार्दूल नरादुष्कृति कारिणः॥
असुराश्व सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखक्रियाम्।
प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद्यज्ञाः परायणाम्॥
यज्ञैरेव महात्मानो बभूवु रधिकाः सुराः।
ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन्।
राजसूयाश्वमेधौ च सर्व मेधं च भारत।
नरमेधं च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिर॥
महा. अ.3
अर्थ—हे युधिष्ठिर! मनुष्यगण सदैव बहुत से पाप कर्म कर, यज्ञ, तप, दान आदि के द्वारा उन पापों से छूट जाया करते हैं।
हे महाराज! पापियों की शुद्धि, यज्ञादि से हो जाती है।
यज्ञ के द्वारा ही देवता असुरों से अधिक प्रभावशाली बने। क्या देवता क्या असुर सभी, यज्ञ अपने-अपने पुण्य प्राप्ति और पाप निवृत्ति के लिए करते हैं।
अतः उपरोक्त कारणों से हे कौन्तेय! तुम भी दशरथ नन्दन भगवान् श्री रामचन्द्र जी के समान राजसूय, अश्वमेधादि यज्ञ करो।
*समाप्त*