(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)
महात्मा कन्फ्यूशियस ने कहा है- “महान व्यक्ति जो चीज ढूँढ़ते हैं, वह अपने अन्दर ही तुम्हें प्राप्त हो जाती है, जबकि कमजोर दूसरों का मुँह ताका करते हैं।” नियम का आदर्श है- “मनुष्य की दो शिक्षाएँ होती है। प्रथम वह जो अपने गुरुजनों या संसार से प्राप्त करता है, दूसरी वह जो चल कर अपने अनुभवों से संचित करता है।
चाहे व्यापार हो, खेल, कानून, प्रेम या महत्ता के लिए उद्योग, आपको यह बात गाँठ बाँध लेना चाहिये कि वह स्वयं अपने बल बुद्धि एवं उद्योग द्वारा ही अर्जित की जा सकती है संसार की सर्वोत्तम शिक्षा वह है, जो मनुष्य स्वयं सतत संसार एवं समाज में संघर्ष द्वारा प्राप्त करता है। आत्म निर्भर ही सर्वत्र पूजा जाता है। एक विद्वान ने लिखा है- “नौजवानों ! याद रखो, जिस दिन तुम्हें अपने हाथ, पैर और दिल पर भरोसा हो जायगा, उसी दिन तुम्हारी अन्तरात्मा कहेगी- बाधाओं को कुचल कर तू अकेला चल, अकेला। सफलता का शीतल आँचल तेरे माथे का पसीना पोंछने के लिए दूर हवा में फहरा रहा है।”
जिन व्यक्तियों पर तुमने आशा के विशाल महल बना रखे हैं, वे कल्पना के व्योम में विहार करने के समान अस्थिर, सारहीन, खोखले हैं। अपनी आशा को दूसरों में संश्लिष्ट कर देना स्वयं अपनी मौलिकता का ह्रास कर अपने साहस को पंगु कर देना है। जो व्यक्ति दूसरों की सहायता पर जीवन यात्रा करता है।
वह शीघ्र अकेला रह जाता है। अकेला रह जाने पर उसे अपनी मूर्खता का ज्ञान होता है।
आपकी शक्ति और सुख आप में ही है-
जो अपना सुख और प्रसन्नता दूसरों से चाहता है, उनके सुख में सुखी, उनकी नाराजगी में अन्त व्यस्त हो जाता है, वह जीवन भर दूसरों की गुलामी में फँसा रहता है। दूसरों के आदेश में हर्ष, प्रसन्नता, घृणा, क्रोध, उद्वेग का अनुभव करने वाला व्यक्ति उस बच्चे की तरह है जो दूसरे की गोदी से उतरना नहीं चाहता।
मनुष्य के सुख, साहस, उत्साह, प्रफुल्लता का केन्द्र किसी बाह्य सत्ता में नहीं है। बाह्य वस्तुओं की ओर निरन्तर दौड़ने और उनसे किसी प्रकार की सहायता या प्रेरणा की आशा रखना मृग मरीचिका मात्र है। सोचिए, आज जिस व्यक्ति की प्रसन्नता से आप भावी जीवन के सुख स्वपन् निर्मित कर रहे हैं, यदि कल वह आपसे मुख मोड़ ले, अनायास ही क्रुद्ध हो जाय, या चल बसे, तो आपका सुख कहाँ जायगा? दूसरे को अपने जीवन का संचालक बना देना ऐसा ही है, जैसा अपनी नौका को एक ऐसे प्रवाह में डाल देना, जिसके अन्त का आपको कोई ज्ञान नहीं।
अकेले चलना पड़ेगा-
संसार में दो व्यक्ति एक सी रुचि, एक स्वभाव, एक दृष्टिकोण या विचारधारा के कभी भी नहीं रहे हैं। जितने मस्तिष्क उतने ही उनके सोचने विचारने के ढंग, रहने की नाना पद्धतियाँ, पोशाक पहनने के तरीके। भोजन सबका भिन्न भिन्न है। एक सरल सीधे खाद्य पदार्थों में, सूखी रोटियों में मधुर स्वाद लेता है, तो दूसरे को मिर्च मसाले से परिपूर्ण नाना शृंगारिक उत्तेजक भोजन प्रिय है एक ठण्डा जल पीकर आन्तरिक शान्ति का अनुभव करता है, तो दूसरा बर्फ से युक्त सोडा, लैमन, शरबत, ठण्डाई या मद्यपान चाहता है। एक सात घण्टे सोकर नया जीवन लेता है, दूसरा दस घण्टे पलँग तोड़ता है। संक्षेप में, संसार विभिन्न तत्वों, मन्तव्यों तथा जीवन दर्शन वाले व्यक्ति समूहों से विनिर्मित किया गया है। फिर किस प्रकार आप अपनी योग्यता, अभिरुचि अथवा साम्य विचारधारा का व्यक्ति पाने की आशा कर रहे हैं? नहीं, कदापि नहीं। आपको अपने जैसा व्यक्ति कदापि प्राप्त न होगा! आपको जीवन- पथ पर अकेला ही अग्रसर होना पड़ेगा। कोई आपके साथ दूर तक न चल सकेगा। अकेले चले चलिये।
जीवन को एक यात्रा मानिए। यात्रा में एक दो अल्पकालीन संगी साथी आपको प्राप्त हो गए हैं। इनसे चार दिन के लिए आप बोलते बरतते हैं, हँसी ठट्ठा, संघर्ष छीना झपटी चलती है। साथ साथ कुछ समय तक आगे बढ़ते हैं, किन्तु धीरे-धीरे उनकी जीवन-यात्रा समाप्त होती चलती है। एक के पश्चात दूसरा अपने गन्तव्य स्थान पर, वे रुक कर आपको छोड़ते चलते हैं। आपके साथ अभी छः सात व्यक्तियों का परिवार साथ था। सात में से छः रह जाते हैं और फिर क्रमशः आप अकेले ही रह जाते हैं। “अरे, मैं अकेला रह गया, बिलकुल अकेला”- आपका मन कुछ काल के लिए अशान्त सा हो उठता है। उसमें एक कड़वाहट सी आ जाती है। पर वास्तव में जीवन का यह अकेलापन ही मानव-जीवन का चरम सत्य है।
सबको पाकर भी हम सब अकेले हैं, नितान्त अकेले! हमारे साथ कोई भी दूर तक चलने वाला नहीं है। जिन्हें हम भ्रम माया वश अपने साथ चलता हुआ समझते हैं, वास्तव में वे हमारे अल्पकालीन सहयात्री मात्र हैं। हमारे अकेलेपन में कोई भी हाथ बंटाने, दिलासा देने वाला नहीं है। हम अकेले आये, अकेले मृत्यु पर्यन्त चलते रहे, अकेले ही निरन्तर बढ़ते रहेंगे। हम अपने दोनों पाँवों पर ही चलना है, हमें अपने दोनों हाथों का ही सहारा हो सकता है।
नित नए नए रूप बनाकर मनुष्य इस अकेलेपन को विस्मृत करने का उद्योग करता है। भीड़-भाड़ से भरे हुए विशाल नगरों में निवास करता है, सिनेमा, थियेटर, दौड़, खेल इत्यादि देखता है, अपने परिवार इष्ट मित्रों की संख्या में विस्तार करता है। किन्तु वह मूर्ख नहीं जानता, इस माया चक्र से वह स्वयं ही उलझन में फँस रहा है। सूखी रेत से स्निग्धता की आशा रखता है, बालू में से तेल निकालना चाहता है, हवा में किले बनाना चाहता है। दूसरों के बल पर चलने, उनसे आशा उत्साह प्रेरणा या सहायता चाहने का यह माया जाल मृग मरीचिका नहीं तो क्या है?
अकेलेपन से भयभीत न हों!
ईश्वरीय ज्योति के पुण्य मानव! तू अकेला चल! बियाबान जंगल अथवा भीड़भाड़ से युक्त नगर प्रान्त में सर्वत्र अकेला चल। अकेलेपन से तुझे भयभीत नहीं होना है। महान व्यक्ति सदैव अकेले चले हैं, और इस अकेलेपन के कारण ही दूर तक चले हैं। अकेले व्यक्तियों ने अपने सहारे से ही संसार के महानतम कार्य संपन्न किए हैं। उन्हें एक मात्र अपनी ही प्रेरणा प्राप्त हुई है। वे अपने ही आन्तरिक सुख से सदैव प्रफुल्लित रहे। दूसरे से दुख मिटाने की उन्होंने कभी आशा न रखी। निज वृत्तियों में ही उन्होंने सहारा देखा। अपने दो पाँवों के बल पर ही उन्होंने समग्र यात्रा पूर्ण की। अकेलेपन से घबराना नहीं है, प्रत्युत अपने पाँवों को वहन करने, संघर्ष करने के लिए पुष्ट करना है मानव अकेला चल। अकेला अपनी यात्रा को सफल बना।
अकेलापन जीवन का चरम सत्य है। किन्तु अकेलेपन से घबराना, जी तोड़ना, कर्त्तव्यपथ में हतोत्साहित या निराश होना सबसे बड़ा पाप है। अकेलेपन से मत घबराइये। अकेलापन आपके निजी आन्तरिक प्रदेश में छुपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है। अपने ऊपर आश्रित रहने से आप अपनी उच्चतम शक्तियों को खोज निकालते हैं। जितना ही आप अपनी शक्तियों से कार्य लेते हैं, उतना ही उनकी अभिवृद्धि या विकास होता है। अपने हाथ पाँव, मस्तिष्क, शरीर इत्यादि से कार्य लेना अपने पाँवों पर चलना अपनी गुप्त शक्तियों को खोज निकालना है। अतः अकेलेपन में निराशा के लिए, कायरता के लिए, संसार से भाग कर एक कोने में छिप जाने के लिए कोई स्थान नहीं है। अकेले हैं, तो डरें नहीं। हतोत्साहित न हों। वरन् अपनी ही शक्तियों का इस मर्यादा तक विकास करें कि दूसरों के आश्रय की आवश्यकता न पड़े।
आत्मशक्ति जागृत करने के संकेत
दूसरों का आश्रय त्यागकर स्वयं अपनी गुप्त शक्तियाँ जागृत करने के लिए संकेत या सजेशन का प्रयोग किया कीजिए। प्रतिदिन सायंकाल अथवा प्रातःकाल शान्तचित्त हो एकान्त स्थान में नेत्र मूँद कर दृढ़ता से निम्न वाक्यों का पुनः पुनः उच्चारण कीजिए।
“मैं अकेला होते हुए भी शक्तिशाली हूँ। मेरे अन्दर वह शक्ति है, जो स्वतंत्रता पूर्वक कार्य कर सकती है। मैं दूसरों का अनुगामी न बनूँगा। मैं कभी दूसरों का अनुकरण न करूंगा। मैं अपनी महत्ता और प्रतिभा का प्रभाव दूसरों पर डाल सकता हूँ। मुझ में विशेषता है, निजी मौलिकता है। सच्ची शक्ति मेरे भीतर विद्यमान है। मुझे अपनी शक्तियों पर पूरा भरोसा है। मैंने अकेले ही सफलता प्राप्त करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की है। मेरी प्रतिज्ञा दृढ़ व अटल है।”