मेरे मन के अधिकारी (Kavita)

February 1953

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जिसे देख कर सहसा वाणी है मुखरित हो जाती। वो मेरे दुखमय जीवन की है सबसे प्रिय थाती॥

प्राणों में श्रद्धा नयनों में करुणा-कण लहराते। करके जिसकी याद पन्थ के शूल सुमन बन जाते॥

गाता है मन-मोर देख जिसको तुम वह बादल हो। सागर सम अविकार व्योम के सदृश सरल निरथलहो।

स्वाति-बिन्दु तुम, जिसे बुलाता मेरा चातक प्यासा। मूर्ति मान तुममें मानस की युग-युग की अभिलाषा॥

कितने दिन हैं अभी दूर रहने को मेरे स्वामी। कितने दिन यह मन खोजेगा तुमको अन्तर्यामी॥

कितने दिन तक अभी न लय होने दोगे अपने में। कितने दिन तक छिपे रहोगे कलित काव्य सपने में॥

मेरे बिना अपूर्ण रहेगी सत्ता देव, तुम्हारी। इस मन पर अधिकार करो हे, हे मेरे अधिकारी!!


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