इन्द्रियों का नियन्त्रण

February 1953

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देयानि स्ववशे पुँसा स्वेन्द्रियाण्याखिलानि वै। असंयतानि खायन्तीन्द्रियाण्येतानि स्वामिनम्॥

अर्थ- अपनी इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। असंयत इन्द्रियाँ अपने स्वामी को वश में रखना चाहिए।

इन्द्रियाँ आत्मा के औजार हैं, घोड़े हैं; सेवक हैं। परमात्मा ने इन्हें इसलिए हमें प्रदान किया है कि इनकी सहायता से आत्मा की आवश्यकता पूरी हों और सुख मिले। सभी इन्द्रियाँ बड़ी उपयोगी हैं, सभी का कार्य जीव को उत्कर्ष एवं आनन्द प्रदान करना है। यदि उनका सदुपयोग हो तो क्षण क्षण पर जीवन का मधु रस चखता हुआ मनुष्य अपने सौभाग्य को सराहता रहेगा।

किसी भी इन्द्रिय का उपयोग पाप नहीं है। सच तो यह है कि अन्तःकरण की विविध क्षुधाओं को, तृषाओं को तृप्त करने का इन्द्रियाँ एक उत्तम माध्यम हैं। जैसे पेट की भूख प्यास को शान्त न करने से स्वास्थ्य का सन्तुलन बिगड़ जाता है वैसे ही सूक्ष्म शरीर की ज्ञानेन्द्रियों की क्षुधाएँ उचित रीति से तृप्त नहीं की जाती तो आन्तरिक क्षेत्र का सन्तुलन बिगड़ जाता है और अनेक मानसिक गड़बड़ियाँ पैदा होने लगती हैं।

इंद्रियां भोगों की बहुधा निन्दा की जाती है इसका वास्तविक तात्पर्य यह है कि अनियन्त्रित इन्द्रियाँ, स्वाभाविक एवं आवश्यक मर्यादा का उल्लंघन करके इतनी स्वेच्छाचारी एवं चटोरी हो जाती हैं कि वे स्वास्थ्य और धर्म के लिए संकट उत्पन्न करके भी मनमानी करती हैं। आज कल अधिकाँश मनुष्य इसी प्रकार के इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं। वे अपनी वासना पर काबू नहीं रखते। बेकाबू हुई वासना अपने स्वामी को खा जाती है।

गायत्री का ‘दे’ अक्षर अपने ऊपर काबू रखने की शिक्षा देता है। इन्द्रियों पर अपना काबू हो, वे अपनी मनमानी करके जब चाहें तब, चाहे जिधर न घसीट सकें बल्कि जब हम स्वयं आवश्यकता अनुभव करें, जब हमारा विवेक निर्णय करे तब उचित आन्तरिक भूख को शान्त करने के लिए उनका उपयोग करें यही इन्द्रिय निग्रह है। निग्रहित इन्द्रियों से बढ़ कर मनुष्य का सच्चा मित्र, और अनियन्त्रित इन्द्रियों से बढ़ कर भयंकर शत्रु और कोई नहीं है।

इन्द्रियाँ रथ में जुते हुए घोड़े की तरह हैं, यदि घोड़ों पर नियन्त्रण न रखा जाय, उनकी लगाम छोड़ दी जाय, उन्हें चाहे जिस दिशा में, चाहे जिस गति से चलने दिया जाय तो अपने लिए, रथ के लिए, स्वामी के लिए, संकट उत्पन्न किए बिना न रहेंगे। इसलिए बुद्धिमान सारथी सदा सजग रहता है, हर घोड़े की गतिविधि पर ध्यान रखता है और किसी घोड़े को बेकाबू होने से पहले ही, उसके आरम्भिक उपद्रव देखकर ही उस पर नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। इन्द्रियों के संबंध में भी हमारी यही नीति होनी चाहिए। अनावश्यक ढील कभी भी न छोड़ी जाय, कोई इन्द्रिय अनुचित रूप से चटोरी हो रही है, त्याज्य एवं अमर्यादित वासना में प्रवृत्त होना चाह रही हो तो उस पर बड़ा नियन्त्रण, कठोर प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है।

दस इन्द्रियों में पाँच तो कर्मेन्द्रियाँ हैं। उनका नियन्त्रण तो इतना ही है कि न तो उन्हें निठल्ला रहने दिया जाय तो कि वे शिथिल और निष्क्रिय हो जाएँ, और न इतना अधिक कार्य ही उनसे लिया जाय कि उनकी सामर्थ्य असमय में ही शिथिल एवं समाप्त हो जाय। पाँच ज्ञानेन्द्रियों में दो विशेष प्रबल हैं। (1) रसना इन्द्रिय, (2) कर्मेन्द्रिय। जीभ के चटोरेपन के कारण लोग हानिकारक वस्तुओं को, असमय, अनावश्यक मात्रा में सेवन करते हैं। चटपटे और मीठे पदार्थों के स्वाद की क्षणिक लालसा में ऐसे पदार्थ खाते हैं जो पोषण और स्वास्थ्य का उत्कर्ष करना तो दूर उलटे उन्हें नष्ट करते हैं। भूख लगी है या नहीं, पेट को भोजन की आवश्यकता है भी या नहीं, जितना भोजन के लिए पेट में स्थान है उससे अधिक तो नहीं ठूँसा जा रहा है इन बातों पर चटोरे लोग विचार नहीं करते। जीभ के गुलाम बन कर पेट पर निरन्तर अत्याचार करते रहते हैं। फलस्वरूप स्वास्थ्य गिरता जाता है। नाना प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं और असमय ही काल के ग्रास बन जाते हैं।

आज अधिकाँश व्यक्ति दाँतों से अपनी कब्र खोदने में लगे हुए हैं। वे भोजन नहीं खाते- भोजन उन्हें खाता है। आरोग्य शास्त्र का मत है कि अधिकाँश रोगों की जड़ पेट में होती है। यदि मनुष्य अपने पेट के साथ अन्याय न करे- जीभ के चटोरेपन पर काबू रखे तो निस्सन्देह वह नाना प्रकार की बीमारियों से बचता हुआ दीर्घजीवी हो सकता है।

रसना के बाद विषना का नंबर आता है। गर्भाधान एक महत्वपूर्ण और उत्तरदायित्व पूर्ण क्रिया है। प्रकृति ने भूख इसलिए लगाई है कि जीव आलसी न बैठा रहे पेट की प्रेरणा से उद्योग एवं पुरुषार्थ में प्रवृत्त हो। इसी प्रकार कामेन्द्रिय में एक विशेष प्रकार की उत्तेजना इसलिए पैदा की है कि संसार में नये जीवों की उत्पत्ति होती रहे। नये प्राणी की उत्पत्ति करना एक ऐसा काम है जिसमें अत्यन्त सावधानी रखने से ही ईश्वर की इच्छा और आज्ञा पूरी की जानी संभव है। असावधानी बरतने से तो ऐसी सन्तान उत्पन्न होती है जो न तो स्वयं चैन से रहती है और न दूसरों को रहने देती है। बच्चों के अनुचित पालन पोषण, विकास, शिक्षण आदि की योग्यता एवं व्यवस्था न होने पर भी जो लोग कामेन्द्रिय के चटोरेपन के लिए काम सेवन में प्रवृत्त होते हैं वे निश्चय ही एक भारी संकट को मोल लेते हैं। आज ऐसे माता पिताओं की कमी नहीं जो स्वयं अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते हुए दुखी रहते हैं और सन्तान को भी शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से दीन हीन रखते हैं।

जैसे जीभ का चटोरापन पेट को खराब करके बीमारी और अकाल मृत्यु को बुलाता है वैसे ही कामेन्द्रिय का चटोरापन शारीरिक दुर्बलता, जननेन्द्रिय संबंधी बीमारियाँ, आर्थिक संकट, कुसंस्कारी एवं दीन हीन सन्तान उत्पन्न करके एक पारिवारिक एवं सामाजिक संकट उत्पन्न करता है। आज तो जन संख्या की अत्यधिक वृद्धि हो जाने से संसार पर भारी संकट छाया हुआ है, भुखमरी बीमारी और लड़ाई का सर्वोपरि कारण जन संख्या की अमर्यादित वृद्धि ही है। ऐसे समय में आँख मूँद कर केवल इन्द्रियों के चटोरेपन से प्रेरित होकर कामसेवन में प्रवृत्त होना एक अपराध ही कहा जा सकता है। जिसका फल उस व्यक्ति को उसके बच्चों को ही नहीं वरन् सारे संसार को भोगना पड़ता है।

आँखों से कानों से कभी-कभी मनुष्य वासना परक, निरर्थक, दुष्प्रभाव डालने वाले आकर्षक दृश्यों को देखना और मधुर ध्वनियों को सुनना चाहता है। इनमें से बुरा प्रभाव डालने वाले नाच रंग एवं बुरी प्रवृत्तियों को भड़काने वाले शब्द या गायन आदि को सुनना त्याज्य है। ऐसे दृश्य या शब्द जो प्रिय मधुर एवं आकर्षक हों साथ ही मन पर अच्छे संस्कार डालें त्याज्य नहीं कहे जा सकते हैं। उनसे प्रसन्नता, उत्साह वृद्धि एवं तुष्टि की प्राप्ति होती है।

इन्द्रिय निग्रह में मुख्य प्रश्न और विषना का है। इन पर काबू रखने की सर्वोपरि आवश्यकता है। मुख में कोई वस्तु डालने से पहले यह समाधान कर लेना चाहिए कि पेट की आवश्यकता और स्वास्थ्य की उपयोगिता की दृष्टि से ही यह खाया जा रहा है न? यदि इसमें जरा भी सन्देह हो तो कड़ाई के साथ दाँत भींच लीजिए और आगत भोजन का विष के समान बहिष्कार कर दीजिए चाहे वह कितना ही स्वादिष्ट क्यों न हो। जीभ का केवल एक परीक्षक डॉक्टर के जितना ही उपयोग कीजिए जो बुद्धि संगत एवं उपयोगी खाद्य पदार्थों में से भले बुरे की परीक्षा कर दिया करे। यही रसना का वास्तविक उपयोग है।

विषना- कामेन्द्रिय का विकार नहीं, मन का विकार है। कामसेवन का जीवन में उतना ही स्थान है जितना तीर्थयात्रा का। हम सब, रोज तीर्थयात्रा कहाँ करते हैं? यह कोई इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं कि रोज ही या हर घड़ी, उसकी योजना को मस्तिष्क में भरे रहा जाय। तीर्थयात्रा तो कभी-कभी, सुविधानुसार संयोगवश होती है इतना ही स्थान विषना का भी होना चाहिए। धर्मपत्नी एक सच्चे मित्र या सहयोग भाई के समान अपनी सहचरी के जीवन के अनेकानेक कार्यों में सहयोग के लिए विवाह होता है। विवाह को वासना की खुली छूट मानना एक भयंकर भूल है जिसमें आज मनुष्य समाज बुरी तरह भ्रमित हो गया है। इस भूल को जितनी जल्दी हटाया जा सकेगा उतना ही अच्छा है क्योंकि विवाह को वासना प्रधान मान लेना उसके आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्व को ही नष्ट कर देता है। इस मान्यता के रहते पति-पत्नी सच्चे प्रेमी और सच्चे सहयोगी कदापि नहीं बन सकते।

जैसे हर पेड़ पर एक विशेष अवसर पर कोमल पल्लव एवं पुष्प आते हैं और वह सुन्दर दीखता है इसी प्रकार किशोर एवं नवयौवन अवस्था में हर स्त्री पुरुष सुन्दर दीखते हैं। यह सौंदर्य दृष्टि की शोभा है। जैसे किसी पुष्पों से खिले हुए बगीचे में जाकर हम उसको देखकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं, पर ऐसा नहीं सोचते कि इन पुष्पों को तोड़ लें या खा जावें। इसी प्रकार सुन्दर शरीरों को देखना प्रसन्न होना तो ठीक है पर उसमें वासना की विकार बुद्धि उत्पन्न करना एवं ऐसी मनो वैज्ञानिक भूल है जिससे अपने अन्दर बेचैनी, बुराई, कुबुद्धि, एवं अनैतिकता उत्पन्न होती है। क्या हमारी बहिनें या पुत्रियाँ सुन्दर नहीं होतीं? यदि सुन्दर हो ते हुए भी उनके प्रति हम अनैतिक भाव मन में न लाने में समर्थ रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि अपने में यदि थोड़ी सी मानसिक स्वस्थता एवं दृढ़ता हो तो दूसरी बहिन बेटियों के सौंदर्य को पवित्र आँखों से न देख सकें।

आज हम हाट बाजार में निकलती हुई बहिन बेटियों को गिद्ध दृष्टि से देखते हैं। तरुणी स्त्रियों के चित्र इसलिए खरीदे जाते हैं कि उन्हें विकार बुद्धि से देख कर शैतानी कुप्रवृत्ति को भड़कावें, सिनेमा भी प्रायः लोग इसी दृष्टि से जाते हैं, अश्लील पुस्तकों से, चित्रों से बाजार पटे पड़े हैं, हमारे फालतू समय में ऐसे ही विचार मन में घूमते रहते हैं। विषना का यह निकृष्ट रूप हमारी मानसिक पवित्रता को ही नष्ट नहीं करता वरन् समाज में भयंकर गड़बड़ी भी उत्पन्न करता है, जिसके परिणाम स्वरूप भारी अशान्ति उत्पन्न होती है।

इन्द्रिय निग्रह मानव जीवन के स्वस्थ विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। व्रत एवं उपवास पर मनोविकार नष्ट होते हैं ऐसा गीता में कहा गया है। गायत्री उपासना में प्रभु को माता के रूप में मानने की साधना भी विषना प्रवृत्ति पर भारी अंकुश लगाती है। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन एवं मनोविकारों से लड़ने की तत्परता के आधार पर भी इन्द्रिय लिप्सा पर विजय प्राप्त करना सुगम हो जाता है। इन्द्रियों के चटोरेपन को कभी महत्व न दिया जाय, उनकी पूर्ति करने की सफलता को कभी पुरुषार्थ या सफलता न माना जाय। जब कभी इन्द्रियाँ प्रबल हो रही हों तो उनके समाधान के लिए उस सर्वशक्तिमान सत्ता में सच्चे हृदय से प्रार्थना करनी चाहिए और जब कभी बुद्धि को इन्द्रियाँ हरा दें तब अपने को धिक्कारते हुए उसका पश्चाताप और प्रायश्चित करना चाहिए।

गायत्री का दसवाँ अक्षर ‘दे’ हमें इन्द्रिय निग्रह की शिक्षा देता है। इस शिक्षा को अपनाकर हम माता के सच्चे आज्ञानुवर्ती पुत्र बन सकते हैं।


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