अथ गायत्री संहिता

February 1953

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आदि शक्तिस्त्वियं विष्णोस्तामहं प्रणमामि हि। सर्गः स्थितिर्विनाशश्च जायन्ते जगतोऽनया॥1॥

यह गायत्री ही परमात्मा की आदि शक्ति है उसको मैं प्रणाम करता हूँ। इसी शक्ति से संसार का निर्माण, पालन और विनाश होता है।

नाभि पद्म भुवा विष्णोर्ब्रह्मणों निर्मितं जगत्। स्थावरं जंगमं शक्त्वा गायत्र्या एव वैध्रुवम्। 2।

विष्णु की नाभि कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा ने गायत्री शक्ति से ही जड़ तथा चेतन संसार को बनाया।

चन्द्रशेखर केशेभ्यो निर्गता हि सुरापगा। भागीरथं ततारैव परिवारसमं यथा ॥ 3 ॥

जगद् धात्री समुद्भूत्य या हृन्मान सरोवरे। गायत्री सकुलं पारं तथा नयति साधकम् ॥ 4॥

सास्ति गंगैव गायत्री ज्ञाननीर समाकुला। ज्ञान गंगा तु ताँ भक्त्या बारं बारं नमाम्यहम् ॥ 5॥

जिस प्रकार शिव के केशों से निकलने वाली गंगा ने परिवार सहित भागीरथ को पार कर ही दिया उसी प्रकार संसार का पालन करने वाली गायत्री हृदय रूपी सरोवर में प्रकट होकर सपरिवार साधक को भवसागर से पार ले जाती है। वही गायत्री ज्ञान रूपी जल से परिपूर्ण गंगा है। उस गंगा को मैं भक्ति से बार-बार नमस्कार करता हूँ।

ऋषयो वेद शास्त्राणि सर्वे चैव महर्षयः। श्रद्धधया हृदि गायत्रीं धारयन्तिस्तुवन्ति च ॥ 6॥

ऋषि लोग वेद शास्त्र और समस्त महर्षि गायत्री को श्रद्धा से हृदय में धारण करते हैं और उसकी स्तुति करते हैं।

ह्रीं श्रीं क्लीं चेति रुपेभ्यस्त्रिभिर्वालोकपालिनी। भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका ॥ 7॥

हीं, श्रीं, क्लीं, इन तीन रुपों से संसार का पालन करने वाली त्रिगुणात्मक गायत्री संसार में निरन्तर प्रकाशित होती है।

गायत्र्येव मता माता वेदानाँ शास्त्रसम्पदम्। चत्वारोऽपि समुत्पन्ना वेदास्त्वस्या असंशयम्। 8।

शास्त्रों की सम्पत्ति रूप वेदों की माता गायत्री ही मानी गई है। निश्चय से चारों ही वेद इस गायत्री से उत्पन्न हुये हैं।

परमात्मनस्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते। सूक्ष्मा च सात्विकी सैव गायत्रीत्यभिधीयते॥ 6॥

संसार में परमात्मा की जो सूक्ष्म और सात्विक ब्रह्म शक्ति विद्यमान है वह ही गायत्री कही जाती है।

प्रभावा देव गायत्र्या भूतानामभिजायते। अतःकरणेषु दैवानाँ तत्वानाँ हि समुद्भवः ॥10॥

प्राणियों के अन्तःकरणों में दैवी तत्वों का प्रादुर्भाव गायत्री के प्रभाव से ही होता है।

गायत्र्युपासनाकरणादात्मशक्तिर्विवर्धते। प्राप्यते क्रमशोऽजस्य सामीप्यं परमात्मनः ॥ 21॥

गायत्री की उपासना करने से आत्म-बल बढ़ता है। धीरे-धीरे जन्म बन्धन रहित परमात्मा की समीपता प्राप्त होती है।

शौचं शान्तिर्विवेकश्चैतल्लाभत्रयमात्मिकम्। पश्चादा वाप्यते नूनं सुस्थिरं तदुपासकम्॥

मन को वश में करने वाले उस गायत्री के उपासक को बाद में पवित्रता, शान्ति और विवेक ये तीन आत्मिक लाभ निश्चय ही प्राप्त होते हैं।

कार्येषु साहसः स्थैर्यं कर्मनिष्ठा तथैव च। एते लाभाश्च वै तस्माज्जातन्ते मानसास्त्रयः।13।

कार्यों में साहस, स्थिरता और वैसे ही कर्त्तव्य निष्ठा ये तीन मन संबन्धी लाभ उसको प्राप्त होते हैं।

पुष्कलं धन समृद्धिः सहयोगश्च सर्वतः। स्वास्थ्यं वा त्रय एते स्युस्तस्माल्लाभश्च लौकिकाः।

सन्तोषजनक धन की वृद्धि, सब ओर सहयोग और स्वस्थता ये तीन साँसारिक लाभ उससे होते हैं।

काठिन्यं विविधं घोर ह्यापदाँ संहतिस्तथा। शीघ्रं विनाशताँ यान्ति विविधा विघ्नराजयः ॥15॥

नाना प्रकार की घोर कठिनाई और विपत्तियों का समूह नाना प्रकार के विघ्नों का समूह इससे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

विनाशादुक्त शत्रूणामन्तः शक्तिर्विवधते। संकटानामनायासं पारं याति तथा नरः॥ 16॥

उपर्युक्त शत्रुओं के विनाश से आन्तरिक शक्ति बढ़ती है। उस आन्तरिक शक्ति से मनुष्य सहज ही संकटों से पार हो जाता है।

गायत्र्युपासक स्वान्ते सत्कामा उद्भवन्ति हि। तत्पूर्तयऽभिजायन्ते सहजं साधनान्यपि ॥ 17॥

निश्चय ही गायत्री के उपासक के हृदय में सदिच्छाएँ पैदा होती हैं। उनकी पूर्ति के आसानी से साधन भी मिल जाते हैं।

त्रुटयः सर्वथा दोषा विघ्ना यान्ति यदान्तताम्। मानवो निर्भयं याति पूर्णेन्नतिपथं तथा॥18॥

जब सर्व प्रकार के दोष, गलतियाँ और विघ्न विनाश को प्राप्त हो जाते हैं तब मनुष्य निर्भय होकर पूर्ण उन्नति के मार्ग पर चलता है।

बाह्यंचाभ्यन्तरमस्य नित्यं सन्मार्गगामिनः। उन्नतेरुभयं द्वारं यात्युन्मुक्तकपाटताम् ॥19॥

सर्वदा सन्मार्ग पर चलने वाले इस व्यक्ति के बाह्य और भीतरी दोनों उन्नति के द्वार खुल जाते हैं।

अतः स्वस्थेन चित्तेन श्रद्धया निष्ठया तथा। कर्त्तव्या विरतं काले नित्यं गायत्र्युपासना ॥ 20॥

इसलिये श्रद्धा से, निष्ठा से तथा स्वस्थ चित्त से प्रतिदिन निरन्तर ठीक समय पर गायत्री की उपासना करनी चाहिये।

दयालुः शक्ति संपन्नता माता बुद्धिमती यथा। कल्याणं कुरुते ह्येव प्रेम्णा बालस्य चात्मनः॥21॥

तथैव माता लोकानाँ गायत्री भक्तवत्सला। विदधाति हितं नित्यं भक्तानाँ ध्रुवमात्मनः॥22॥

जैसे दयालु शक्तिशालिनी और बुद्धियुक्त माता प्रेम से अपने बालक का कल्याण ही करती है उसी प्रकार भक्तों पर प्यार करने वाली गायत्री संसार की माता है वह अपने भक्तों का सर्वदा कल्याण ही करती है।

कुर्वन्नापि त्रुटीर्लोके बालको मातरं प्रति। युवा भवति कश्चिन्न तस्या अप्रीतिभाजनः। 23।

कुर्वन्नपि त्रुटीर्भक्तः कश्चिद् गायत्र्युपासने। न तथा फलमाप्नोति विपरीतं कदाचन॥ 24 ॥

जिस प्रकार संसार में माता के प्रति गलतियाँ करता हुआ कोई भी बालक उस माता का शत्रु नहीं होता उसी प्रकार गायत्री की उपासना करने में गलतियाँ करता हुआ भी कोई भक्त कभी भी विपरीत फल को नहीं प्राप्त होता।

अक्षाराणाँ तु गायञ्या गुम्फनं ह्यस्ति तद्विधम्। भवन्ति जागृता येन सर्वां गुह्यास्तु ग्रन्थयः॥ 25॥

गायत्री के अक्षरों का गुन्थन इस प्रकार हुआ है कि जिससे समस्त गुह्य योग ग्रन्थियाँ जागृत हो जाती हैं।

जागृता ग्रन्थयस्त्वेताः सूक्ष्माः साधकमानसे। दिव्यशक्तिसमद्भूतिं क्षिप्रं कुर्वन्त्य संशयम् ॥ 26॥

जागृत हुई ये सूक्ष्म यौगिक ग्रन्थियाँ साधक के मन में निःसन्देह शीघ्र ही दिव्य शक्तियों को पैदा कर देती हैं।

जनयन्ति कृते पुँसामेता वै दिव्यशक्तयः। विविधान् परिणामान्हि भव्यान्मंगलपूरितान् ॥ 27॥

ये दिव्य शक्तियाँ मनुष्यों के लिये नाना प्रकार के मंगलमय, सुन्दर परिणामों को उत्पन्न करती हैं।

मन्त्रस्योच्चारणं कार्यं शुद्धमेवाप्रमादतः। तदशक्तो जपेन्नित्यं सप्रणवास्तु व्याहृतीः॥ 28॥

आलस्य रहित होकर गायत्री मन्त्र का शुद्ध ही उच्चारण करना चाहिये। जो ऐसा करने में असमर्थ हो वह केवल प्रणय (ॐ) सहित व्याहृतियों का जाप करे।

ओमिति प्रणयः पूर्वं भूर्भुवः स्वरतदुत्तरम्। एषोक्ता लघु गायत्री विद्वद्भिर्वेदपंडितैः॥ 29॥

पहले प्रणव (ॐ) का उच्चारण करना चाहिए तत्पश्चात् भू र्भुवः स्वःका। यह पंचाक्षरी मन्त्र (ॐ भूर्भुवः स्वः) वेदज्ञ विद्वानों ने लघु गायत्री कहा है।

शुद्धं परिधान माधाय शुद्धे वै वायुमण्डले। शुद्ध देह मनोभ्याँ वै कार्या गायत्र्युपासना॥ 30 ॥

शुद्ध वस्त्रों को धारण करके शुद्ध ही हवा में देह एवं मन को शुद्ध करके गायत्री की उपासना करनी चाहिये।

दीक्षामादाय गायत्र्याः ब्रह्मनिष्ठाग्रजन्मना। आरभ्यताँ ततः सभ्यग्विधिनोपासना सता ॥ 31॥

किसी ब्रह्म निष्ठ ब्राह्मण से गायत्री की दीक्षा लेकर तब विधि पूर्वक उपासना आरम्भ करनी चाहिए।

गायत्र्युपासनामुक्त्वा नित्यावश्यक कर्मसु। उक्तस्तत्र द्विजातीनाँ नानध्यायो विचक्षणैः॥ 32॥

गायत्री उपासना को विद्वानों ने द्विजों के लिए अनिवार्य, किसी भी दिन न छोड़ने योग्य, नित्यकर्म बताया है।

आराधयन्ति गायत्री न नित्यं ये द्विजन्मनः। जायन्ते हि स्वकर्मभ्यस्ते च्युतानात्र संशय॥ 34॥

जो द्विज गायत्री की नित्य प्रति उपासना नहीं करते वे अपने कर्त्तव्य से च्युत हो जाते हैं।

शूद्रास्तु जन्मना सर्वें पश्चाद्यान्ति द्विजन्मताम्। गायत्र्यैव जनाः साक ह्युपवींतस्य धारणात्॥ 34॥

जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं बाद में मनुष्य गायत्री के सहित यज्ञोपवीत धारण करने से द्विजत्व को प्राप्त होता है।

उच्चता पतितानाँ च पापानाँ पापनाशम। जायेते कृपायैवास्याः वेदमातुरनन्तया॥ 35॥

पतितों को उच्चता और पापियों को उसके पापों का विनाश ये दोनों कार्य इस वेदों की माता गायत्री की अनन्त कृपा से ही होते हैं।

गायत्र्या या युता संध्या ब्रह्मसंध्या तु सा मता। कीर्तितं सर्वतः श्रेष्ठं तदनुष्ठानमागमैः ॥ 36॥

जो संध्या गायत्री से युक्त होती है वह ब्रह्म संध्या कहलाती है। शास्त्रों ने उसका उपयोग सबसे श्रेष्ठ बताया है।

आचमनं शिखाबन्धः प्राणायामोऽघमर्षणम्। न्यासश्चोवासनायाँतु पंच कोषा मता बुधैः ॥37॥

आचमन, चोटी बाँधना, प्राणायाम, अघमर्षण और न्यास, ये पाँच कोष विद्वानों ने गायत्री संध्या की उपासना में स्वीकार किये हैं।

ध्यानतस्तु ततः पश्चात् सावधानेनचेतसा। जपताँ सततं तुलसी मालायाँ सा नुहुर्मुहुः ॥ 38॥

सावधान चित्त से ध्यानपूर्वक गायत्री मन्त्र को सात्विक प्रयोजन के लिये तुलसी की माला पर जपना चाहिए।


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