कठिनाइयों से संघर्ष कीजिए।

February 1953

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(प्रो. लालजी राम शुक्ल)

मनुष्य का आध्यात्मिक विकास सदा कठिनाइयों से लड़ते रहने से होता है। जो व्यक्ति जितना ही कठिनाइयों से लड़ता है, वह उतना ही अपने आपको निकम्मा समझता है और जो उन्हें जितना ही आमन्त्रित करता है वह अपने आपको योग्य बनाता है। मनुष्य जीवन की सफलता उसकी इच्छा शक्ति के बल पर निर्भर करती है। जो व्यक्ति जितना ही यह बल रखता है वह जीवन में उतना ही सफल होता है। इच्छा शक्ति का बल बढ़ाने के लिए सदा कठिनाइयों से लड़ता रहना आवश्यक है। जिस व्यक्ति का कठिनाइयों से लड़ने का अभ्यास रहता है वह नयी कठिनाइयों के सामने आने से भयभीत नहीं होता, वह उनका जमकर सामना करता है। कायरता की मनोवृत्ति ही मनुष्य के लिये अधिक दुःखों का कारण होती है। शूरवीर की मनोवृत्ति ही दुःखों का अन्त करती है। निर्बल मन का व्यक्ति सदा अभद्र कल्पनाएँ अपने मन में लाता है। उसके मन में भली कल्पनाएँ नहीं आती। वह अपने आपको चारों ओर से आपत्तियों से घिरा पाता है। अतएव अपने जीवन को सुखी बनाने का सर्वोत्तम उपाय कठिनाइयों से लड़ने के लिए सदा तत्पर रहना ही है।

मन एव मनुष्याणाँ कारणं बन्धमोक्षयोः।

मनुष्य की कठिनाइयाँ दो प्रकार की होती हैं-

एक बाहरी और दूसरी आन्तरिक अर्थात् भीतरी। साधारण मनुष्य की दृष्टि बाहरी कठिनाइयों की ओर ही जाती है, बिरले ही मनुष्य की दृष्टि भीतरी कठिनाइयों को देखने की क्षमता रखती है। पर वास्तव में मनुष्य की सच्ची कठिनाइयाँ आन्तरिक हैं, बाहरी कठिनाइयाँ आन्तरिक कठिनाइयों का आरोपण मात्र हैं। किसी भी प्रकार की परिस्थिति मनुष्य को लाभ अथवा हानि पहुँचा सकती है। अनुकूल परिस्थिति बुराई का काम कर सकती है और प्रतिकूल भलाई का। जो परिस्थिति मनुष्य को भयभीत करती है वही वास्तव में उसकी हानि करती है। यदि परिस्थिति कठिन हुई और उससे मनुष्य भयभीत न हुआ तो वह मनुष्य की हानि न कर उसका लाभ ही करती है।

मनुष्य का मन आन्तरिक चिन्तन से बली होता है। जिस व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का पूरा निश्चय है, जो उसको पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व खोने के लिए तैयार रहता है उसे कोई भी परिस्थिति भयभीत नहीं करती। मनुष्य के मन में अपार शक्ति है। वह जितनी शक्ति की आवश्यकता अनुभव करता है उतनी शक्ति उसे अपने ही भीतर से मिल जाती है। जो व्यक्ति अपने आपको कर्त्तव्य दृष्टि से भारी संकटों में डालता रहा है वह अपने भीतर अपार शक्ति की अनुभूति भी करने लगता है। उसे अपने संकटों को पार करने के लिए असाधारण शक्ति भी मिल जाती है। जैसे-जैसे उसकी इस प्रकार की आन्तरिक शक्ति की अनुभूति बढ़ती है उसकी कार्य क्षमता भी बढ़ती है।

कठिनाइयों से डरना अनुचित

जब कभी कोई मनुष्य अपने आपको कठिनाइयों में पड़े हुए पाता है तो उसे अपने कर्त्तव्य का ध्यान नहीं रहता। कर्त्तव्य का ध्यान रखने पर बाहरी कठिनाई घिर जाती है। कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति का कर्त्तव्य संबंधी विचार उलझे हुए रहते हैं। यदि किसी व्यक्ति की आन्तरिक कठिनाइयाँ सुलझ जाएं तो उसकी बाहरी कठिनाइयाँ भी सरलता से सुलझ जाएं। बाहरी और भीतरी कठिनाइयाँ एक दूसरे की संक्षेप हैं। मनुष्य को अपने आपका ज्ञान बाहरी कठिनाइयों से लड़ने से होता है और जैसे जैसे उसे अधिकाधिक ज्ञान होता है वह बाहरी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में भी समर्थ होता है।

प्रत्येक कठिनाइयों से भय की अनुभूति करने वाले व्यक्ति के मन में मानसिक अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति रहती है इस अंतर्द्वन्द्व के कारण मनुष्य की मानसिक शक्ति का एकीकरण नहीं होता, आपस में बंटवारा होने के कारण और व्यर्थ लड़ाई हो जाने के कारण मनुष्य का मन निर्बल होता है। ऐसी अवस्था में जब एक बाहरी भारी कठिनाई उसके सामने आ जाती है तो वह अपनी मानसिक शक्ति को बटोर नहीं पाता और उससे भयार्त हो जाता है। जिस प्रकार भीतरी संघर्ष चलने वाला राष्ट्र निर्बल होता है और बाहरी आपत्तियों का आवाहन करता है उसी प्रकार मानसिक अन्तर्द्वन्द्व वाले व्यक्ति का मन भी निर्बल होता है और अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उसके सामने आती रहती हैं यदि कोई व्यक्ति जम कर ऐसी कठिनाइयों का सामना करे तो उसके आँतरिक मन में भी एकता प्राप्त हो जाय। निकम्मा मन ही शैतान की क्रिया-शाला होता है। बाहरी कठिनाइयों के हल करने के प्रयत्न में अनेक कठिनाइयाँ अपने आप ही हल हो जाती हैं।

साधारणतः जो काम मनुष्य के हाथ में आ जाय और जिससे न केवल अपना ही लाभ हो वरन् दूसरे का भी लाभ हो उसे छोड़े न। वह काम पूरा करने के लिए जो त्याग और कष्ट सहने की आवश्यकता हो उसे सहे। यदि वह अपना अभ्यास इस तरह बना ले तो वह देखेगा कि उसे धीरे-धीरे ठोस आध्यात्मिक ज्ञान होता जाता है। जो ज्ञान मनुष्य को दार्शनिक चिन्तन मात्र से नहीं आता वही ज्ञान उसे अपनी परिस्थितियों से लड़ने से आ जाता है। जो मानसिक एकता और शान्ति, राग-भोग से नहीं आती वही कठिनाइयों से लड़ने से अपने आप आ जाती है।

कठिनाइयों से लड़ते रहना न केवल अपने जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है वरन् दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करने के लिये आवश्यक है। जिस प्रकार मनुष्य के दुर्गुण संक्रामक होते हैं उसी प्रकार सद्गुण भी संक्रामक होते हैं। एक कायर को रण से भागते देखकर दूसरे सैनिक भी रण से भाग पड़ते हैं और एक को रण में जमकर लड़ते देखकर दूसरे व्यक्ति भी हिम्मत नहीं छोड़ते। उनके भीतर भी वीरता का भाव जागृत हो जाता। सभी मनुष्यों में सभी प्रकार के दुर्गुणों और सद्गुणों की भावना रहती है। मनुष्य जिस प्रकार के वातावरण में रहता है उसमें उसी प्रकार के मानसिक गुणों का आविर्भाव होता है। वीर पुरुष का चरित्र ही दूसरे लोगों के लिए शिक्षा है। यही उसके समाज की सबसे बड़ी देन होती है जब जोजफ मैजिनी ने इटली की स्वतंत्रता का आन्दोलन चलाया तब केवल पाँच व्यक्ति उसके साथ थे। पर धीरे-धीरे पाँच से पचास हुए और पचास से सारा देश स्वतंत्रता के भावों से ओत-प्रोत हो गया। देश में अनेक योद्धाओं का जन्म हुआ और देश उनके जीवन काल में ही विदेशी हुकूमत से मुक्त हो गया। इसी तरह जब लोकमान्य तिलक ने भारतवर्ष की स्वतंत्रता की आवाज उठाई तो इने-गिने लोग उनके साथी हुए पर उनके विचार दृढ़ थे। उन्हें सत्य की विजय में विश्वास था, अतएव एक से अनेक लोगों तक उनका विचार फैला। महात्मा गाँधी ने 1920 ई. में उनके विचार को अपना लिया और भारतवर्ष को स्वतंत्रता मिलकर ही रही। यदि कोई व्यक्ति पूरे मन से किसी काम को अपना कर्तव्य समझ कर करता है तो उसे काम में सफलता अवश्य मिलती है।

अपनी कठिनाइयों पर विजय वे ही लोग प्राप्त कर सकते है जो कठिनाइयों के आध्यात्मिक पहलू को भूल नहीं जाते। जोजफ मेज नी को बड़ा काम करना था अतएव न केवल उसने राजनीतिक संस्थाएँ बनाकर इटली की स्वतंत्रता का आन्दोलन चलाया वरन् उसने मनुष्य के कर्तव्य (डयूटी आफ मेन) नामक पुस्तक भी लिखी। यह उसके जीवन की सबसे बड़ी देन है। अपने अनुभव के आधार पर उसने बताया है कि मनुष्य को अपने कर्तव्य का निर्माण किस प्रकार करना चाहिए और इसमें कैसे लगना चाहिए। इसी प्रकार लोकमान्य ने भारत के पुराने कर्तव्य शास्त्र अर्थात् गीता की नयी व्याख्या की। बिना इस व्याख्या के देश को स्वतंत्रता प्रदान करने जैसे कठिन काम में सफलता मिलना असम्भव था। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र के सभी लोगों की गति बदल देता है, यद्यपि वह निराशा की जगह आशा का संचार कर देता है और जनता को बताता है कि केवल पूजा पाठ करने, उनका नाम रटने अथवा जंगल में उनकी खोज करने में भगवान नहीं मिलते, वरन् देश की सबसे महत्व की समस्याओं को हल करने के प्रयत्न से वे मिलते हैं तो वह राष्ट्र में नये बल का संचार कर देता है। भारतवर्ष फल की दृष्टि से काम करना सीख गया था, वह कर्तव्य की दृष्टि से काम करना भूल गया था, संसारी कामों को भी देय दृष्टि से देखा जाता था। जिन लोगों में निर्लोभ मात्र रहता था और त्याग बुद्धि में आगे थे वे प्रायः भक्ति भाव में अपने आपको खो देते थे अथवा जंगल में जा कर योगाभ्यास करते थे। इन मनो वृति को भगवान् तिलक ने बदल दिया। यही कारण है कि अनेक कठिनाइयों के होते हुए भी भारतवर्ष स्वतंत्रता प्राप्त करने में समर्थ हुआ। यहाँ हम देखते हैं कि सच्चा दर्शन कठिनाइयों से लड़ते रहने में आता है और कठिनाइयों पर विजय के लिये वह अच्छा साधन भी बनता है। मनुष्य की बुद्धि जितनी ही स्थूल जगत से उठकर सूक्ष्म जगत में अर्थात् विचारों के जगत में जाती है, उसे अपनी वस्तु स्थिति का उतना ही अधिक ज्ञान होता है और फिर वह परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने में उतना ही सफल होता है। पर इस प्रकार विचारों को ऊँचा उठाने के लिए जान-बूझकर अपने आपको कठिनाइयों में डालना आवश्यक है। जब दूध गरम होता है तभी मलाई ऊपर आती है। ऐसे विचार तभी ऊँचे उठते हैं जब मनुष्य कठिनाई में पड़ता है।

यदि किसी व्यक्ति की उसकी कठिनाई में सच्ची सहायता करनी हो तो उसका सर्वोत्तम उपाय है कि मनुष्य अपने आपको उससे भी अधिक कठिनाइयों में डाल दे। मनुष्य की सच्ची सहायता भौतिक नहीं आध्यात्मिक है। भौतिक सहायता से मनुष्य को सामयिक लाभ भले ही हो, उससे वह अपना आत्मविश्वास खो देता है जिससे उसका विनाश ही होता है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को आध्यात्मिक सहायता दी और दुर्योधन को भौतिक। इससे अर्जुन की विजय हुई और दुर्योधन का विनाश हुआ। यदि इस आध्यात्मिक रहस्य को समझने की चेष्टा करें तो हम देखेंगे कि कृष्ण ने अपने आपको अर्जुन की सहायतार्थ जितने संकट में अर्जुन था उससे अधिक संकट में अपने आपको डाल दिया। रण में अर्जुन के कुछ संबंधी मारे जाना निश्चित था। यह उन्होंने अपने लिए भी स्वीकार किया। फिर अर्जुन के पास दुर्योधन के बराबर बल नहीं था, पर कृष्ण ने तो निःशस्त्र होकर अर्जुन का रथ हाँकने का काम अपने लिए स्वीकार किया था। यहाँ न तो रण में कुशलता की कीर्ति का प्रयोजन उनके समक्ष था और न किसी प्रकार का प्रयोजन। इतना ही नहीं अपने प्राणों की रक्षा की परवाह भी उन्होंने नहीं की। इसलिए ही अर्जुन को सच्चा आध्यात्मिक बल उनसे मिला और वे युद्ध को जीतने में समर्थ हुए। इस प्रकार एक अर्जुन को जिताकर उन्होंने संसार के सामने सब समय के लिए उदाहरण उपस्थित कर दिया कि दूसरे व्यक्तियों को उसकी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में उचित सहायता कैसे दी जाती है। कृष्ण का ध्येय अर्जुन के मानसिक बल को बढ़ाना था न कि घटाना। यदि हमारी सहायता से हमारा कोई मित्र परावलंबन सीखता है तो वह सहायता सच्ची सहायता नहीं है। यह तो उसके विनाश की सीढ़ी है। सच्ची सहायता मानसिक होती है। यह केवल सदुपदेश से या सद्पुरुष से ही प्राप्त नहीं होती, वरन् उसके त्याग और आचरण से भी प्राप्त होती है।


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