बालकों का चरित्र निर्माण कैसे हो?

February 1953

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(श्री ज्वाला प्रसाद गुप्त, एम. ए., फैजाबाद)

बालक में काम, क्रोध, ईर्ष्या और प्रवृत्तियों के साथ-साथ सहानुभूति, प्रेम और दया की प्रवृत्तियाँ गुप्त रूप से विद्यमान रहती हैं। इनको वह अपने माता-पिता से परम्परा से प्राप्त करता है और उसका चरित्र इसी पर बहुत कुछ अवलम्बित रहता है। उसकी इन प्रवृत्तियों का विकास उसके सहवास के अनुसार हुआ करता है। कामी, क्रोधी तथा द्रोही मनुष्यों के सहवास में आने से वह स्वयं भी वैसा ही बन जाता है क्योंकि ऐसे लोगों के मध्य में रहने से उसकी काम, क्रोध तथा ईर्ष्या की प्रवृत्तियां प्रबल हो जाती हैं। किन्तु इसके विपरीत यदि उसका सहवास ऐसे मनुष्यों से हो जो दयालु तथा सहानुभूति पूर्ण हों तो उसकी दया, प्रेम और सहानुभूति की प्रवृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं। बालक, संपर्क में आने वाले पुरुषों के भावों, विचारों तथा कार्यों का अनुकरण किया करता है और जैसे आदर्श उसके समक्ष उपस्थित होते है उनके अनुसार उसकी प्रवृत्तियाँ का विकास हो जाता है केवल उन प्रवृत्तियों पर सहवास का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता जो बालकों में जन्म से ही बहुत अधिक प्रबल होती हैं। अतः सबसे आवश्यक बात यह है कि बालक के माता पिता का चरित्र निर्दोष होना चाहिए।

यदि माता पिता चरित्र निर्दोष न हो तो उनके सन्तान के सच्च्रित्र कम संभावना होती है क्योंकि जन्मसिद्धि प्रवृत्तियों को दूर करना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसलिए यह उक्ति प्रचलित है कि “बालक की नैतिक क्रिया उसके जन्म से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है।” इस हेतु अपनी सन्तान को सच्चरित्र बनाने की अभिलाषा रखने वाले माता पिता का यह कर्त्तव्य है कि वे बालक के जन्म से पूर्व ही उन गुणों को स्वयं प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जिन गुणों को वे अपनी सन्तान में होना आवश्यक समझते हैं। इस ओर ध्यान देने से चरित्र गठन सम्बन्धी कई कठिनाइयाँ स्वयमेव ही हल हो जाती हैं।

जिन बालकों के माता पिता ने इस ओर उचित ध्यान नहीं दिया उनकी प्रवृत्तियों का भी अच्छी परिस्थिति की सहायता से बहुत कुछ सुधार किया जा सकता है। मले साथियों के सहवास से बुरी प्रवृत्तियों का दमन तथा अच्छी प्रवृत्तियों को उत्तेजित किया जा सकता है। इस संबंध में बालकों के माता पिता तथा अध्यापकों का यह कर्त्तव्य है कि वे जिन नियमों का बालकों से पालन कराना चाहते हैं उनका स्वयं पालन करें। घर पर तथा पाठशाला में प्रत्येक कार्य नियत समय पर किया जावे, प्रत्येक वस्तु के लिये निश्चित स्थान हो, प्रत्येक कार्य की ओर ध्यान दिया जावे, प्रत्येक व्यवहार में शिष्टता तथा कर्त्तव्य परायणता विद्यमान हो, और भिन्न भिन्न नियमों का यथोचित रीति से पालन किया जावे। इस प्रकार की आदर्श परिस्थिति में उपर्युक्त बातें सरलता से ही बालकों के स्वभाव का अंग बन जाती हैं और वे अनायास ही सच्चरित्र बन जाते हैं जोकि मनुष्यता का प्रधान लक्षण है।

चरित्र निर्माण के लिए तीसरी आवश्यक बात “आचारिक शिक्षा” है। यदि परम्परा तथा बालक का सहवास उत्तम हो तो शिक्षा सोने में सुगन्ध का काम करती है। परम्परा तथा सहवास द्वारा प्राप्त कुप्रवृत्तियों का सुधार कुछ अंशों में आचारिक शिक्षा द्वारा हो सकता है। परन्तु इस प्रकार की शिक्षा देने में निम्नलिखित तीन बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है।

(1) कुछ सीमा के अन्दर बालकों को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता अवश्यमेव देनी चाहिये। उनकी प्रवृत्तियों का व्यर्थ दमन करने तथा हर समय उनको सख्त कैद में रखने से बहुत हानि की आशंका रहती है। इस प्रकार बालक डरपोक बन जाते हैं और उनमें आत्म विश्वास, स्वावलंबन, दृढ़ निश्चय, उद्योग शीलता तथा मौलिकता आदि गुणों का विकास नहीं होने पाता। अतः बालकों को स्वतंत्र रीति से कार्य करने का अधिक से अधिक अवसर देना चाहिए जिससे कि उनके व्यक्तित्व और चरित्र का उचित रूप से विकास हो सके।

(2) बालकों में आत्म संयम का भाव उत्पन्न किया जावे तथा उनकी बुरी प्रवृत्तियों को रोका जावे। यह विशेषकर उन बालकों के लिए बहुत आवश्यक है जिनकी परम्परा तथा बाल्यकाल का सहवास अच्छा नहीं होता है। इस प्रकार के बालकों को उसी समय दृढ़ता पूर्वक रोकने की आवश्यकता होती है जबकि वे सीमा का उल्लंघन करने को उद्यत होते हैं। ऐसी अवस्था में यदि अन्य साधनों से सफलता प्राप्त न होवे तो दण्ड का भी प्रयोग किया जा सकता है जिससे कि बालक की कुप्रवृत्तियों का दमन होकर उसमें संयम का भाव उत्पन्न हो सके।

(3)बालकों को गुणों, नियमों, आदर्शों तथा कर्त्तव्यों से परिचित कर देना चाहिए जिनके आधार पर उनके चरित्र का निर्माण करना है जिससे उनको यह भली भाँति विदित हो जावे कि कौन सी बातें उनके लिए हितकर हैं कौन सी अहितकर, कौन सी बातें उचित हैं और कौन सी अनुचित तथा उनको किस आदर्श के अनुसार कार्य करना है। शिक्षाप्रद नाटकों, रोचक कथाओं, उत्तम-2 कविताओं, आदर्श पुरुषों के जीवन चरित्रों से बालक के आचरण संबंधी ज्ञान की वृद्धि तथा पुष्टि करें। बालकों को सुन्दर सुन्दर कविताएं, गीत, पद तथा श्लोक भी कण्ठाग्र करा देनी चाहिएं क्योंकि इनके द्वारा उचित निर्णयों पर पहुँचने और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उचित रीति से व्यवहार करने में बहुत सहायता मिलती है।

(4)बालकों को निषेधात्मक कार्य की अपेक्षा विधेयात्मक कार्यों का स्मरण दिलाना अधिक श्रेयस्कर है। यदि बालक को किसी कार्य को करने का निषेध किया जाता है तो उस कार्य को करने के लिए वह अधिक लालायित हो जाता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल शाब्दिक रीति से अच्छी आदतों का बोध देकर ही शिक्षक तथा माता पिता को सन्तुष्ट न होना चाहिए। उनके मन में उन आदतों के प्रति श्रद्धा तथा उनको अपने जीवन में चरितार्थ करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न की जानी चाहिए। इस प्रकार की दृढ़ इच्छा उत्पन्न हो जाने पर भिन्न-भिन्न गुणों कर्तव्यों तथा सिद्धान्तों के संबंध में बालकों के मन में स्थायी भाव (सेन्टी मेन्टस) उत्पन्न हो जाते हैं। इस भाव के उत्पन्न हो जाने से वे उन कार्यों को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हैं।

(5) ऐसे भावों को बालकों के मन में अवश्य उत्पन्न करना चाहिए जिनको उसके समाज में विशेष महत्व दिया जाता है। इसके साथ-साथ कुछ ऐसे गुणों के प्रति भी उसके मन में स्थायी भाव उत्पन्न कर देना आवश्यक है जिनका होना मनुष्यता का सूचक है और सभ्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए वाँछनीय है, जैसे- आत्म सम्मान, सभ्यता, ईमानदारी, सत्यता, स्वच्छता, स्वास्थ्य रक्षा, साहस, निर्भीकता, न्यायशीलता, दया, परोपकार, सहनशीलता आस्तिकता, कर्त्तव्यपालन, संयम, नियम पालन आदि। इसमें सबसे आवश्यक आत्म सम्मान का स्थायी भाव है। बालकों के चरित्र गठन में इससे सबसे अधिक सहायता मिलती है। जिस बालक में यह भाव उत्पन्न हो जाता हे वह कोई अनुचित कार्य कर ही नहीं सकता क्योंकि इस भाँति के व्यवहार से उसके आत्म सम्मान में धब्बा लग जाने, उसके यश के कलंकित हो जाने और अन्य लोगों की दृष्टि में उसके गिर जाने की उसको सदा आशंका रहती है। इस भाव का विकास शनैःशनैः होता है। इसको पूर्ण रूप से जागृत करने के लिए बालक पर विश्वास करना चाहिए और उसके उत्तरदायित्व के भाव को जागृत करना चाहिए।

(6) किसी अनुचित कार्य को करने पर उसे भला बुरा नहीं कहना चाहिए बल्कि ऐसा कह कर कि “इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारे योग्य नहीं। यह कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता। तुमसे कदापि ऐसी आशा न थी, इत्यादि -2.........।” उसके आत्म सम्मान के भाव को जागृत करना चाहिए जिससे भविष्य में वह कोई भी काम अनुचित ढंग से न करे ऐसे अवसर पर भला बुरा कहने से बालक का उत्साह सदा के लिए भंग हो जाता है और दिन प्रतिदिन उसकी अवनति होने लगती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सुन्दर स्थायी भावों की हमारे जीवन में कितनी महत्ता है। जिन लोगों में बुद्धि की वृद्धि अधिक हो जाती है किन्तु जिनके मन में सुन्दर स्थायी भाव नहीं बन पाते वे एक ओर बुद्धिमान होते हुए भी दूसरी ओर दुराचारी हो सकते हैं। उनका विवेक उन्हें दुराचार से रोकने में समर्थ नहीं होता है। कितने ही बड़े-बड़े बुद्धिमान दुराचरण करते हुए दिखाई देते हैं, परन्तु बहुत से अपढ़ लोग भी सदाचारी होते हैं क्योंकि अपढ़ होते हुए भी उनमें सुन्दर ‘स्थायी भाव’ होते हैं। अतः सदाचार के लिए सुन्दर स्थायी भावों का होना अनिवार्य है।

किसी आदर्श के प्रति स्थायी भाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि बालकों में मन में उसका स्पष्ट चित्र खिंच गया हो तथा उसके संबंध में उचित अंत क्षोभ का संगठन कर दिया गया हो। इसके लिए अभीष्ट गुणों तथा आदर्शों की महत्ता प्रभावशाली शब्दों में प्रकट करनी चाहिए तथा उसके विपरीत गुणों पर घृणा दर्शाना चाहिए। इन गुणों से संबंध रखने वाले कार्य भी बालकों से बार-बार कराने चाहिएं। चरित्र सुधार के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि निरन्तर अभ्यास द्वारा बालकों में कुछ अच्छे स्वभाव डलवा दिये जावें।

चरित्र गठन के लिए बालकों में दृढ़ संकल्प शक्ति का होना भी आवश्यक है जिससे कि विघ्न बाधाओं तथा शारीरिक कष्टों का सामना करते हुए अपने निर्णयों को कार्य रूप में परिणित कर सकें। इस दृढ़ता को उत्पन्न करना भी बालक के माता पिता एवं गुरुजनों का आवश्यक कर्त्तव्य है।


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