आरोग्य का भारतीय आधार

February 1953

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(श्री पं. तुलसी राम शर्मा, वृन्दावन)

आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ ‘चरक’ में जहाँ अनेक औषधियों का वर्णन है वहीं सदाचार रूपी ऐसी औषधि का भी वर्णन है जिसके सेवन से वस्तुतः मनुष्य निरोग और दीर्घजीवी बन सकता है। देखिए-

सत्यं भूते दना दानं बलयो देवतार्च्नम्।

सद्वृत्तस्यानुवृत्तिश्च प्रशमोगुप्ति रात्मनः॥18॥

(चरक विमान स्यान अ॰ 3)

सत्य भाषण, प्राणियों पर दया, दान, बलि, देवताओं की पूजा, सदाचार का पालन, प्रशम (विषयों से उपराम) अपनी रक्षा ॥18॥

हितं जन पदानाँच शिवानामुप सेवनम्। सेवनं ब्रह्मचर्यस्य तथैव ब्रह्मचारिणाम् ॥19॥

कल्याणकारक देशों का सेवन, ब्रह्मचर्य का पालन, ब्रह्मचारियों का संग ॥19॥

संकथा धर्मशास्त्राणाँ महर्षिणाँ जितात्मनाम्। धार्मिकैः सात्विकै र्नित्यं सहस्यावृद्ध सम्मतैः। 20।

धर्मशास्त्रों की भले प्रकार कथा सुनना, जितेन्द्रिय महर्षियों के साथ वार्तालाप, वृद्ध पुरुषों द्वारा प्रशंसित, धार्मिक तथा सात्विक पुरुषों के साथ बैठना।

इत्येतद् भेषजं प्रोक्तमायुषः परिपालनम् ॥ 21॥

यह सब आयु के परिपालन के लिये औषधि है। ‘अष्टाँग हृदय’ में इसी प्रकार जहाँ खाद्य पदार्थों के गुण दोषों का वर्णन है वहाँ यह भी बताया गया कि भोजन कब, कैसे और किस प्रकार करना चाहिये। देखिये-

काले सात्म्यं शुचिहितं स्निग्धोष्णं लघुतन्मनाः।

षड्रसं मधुर प्रायः नाति द्रूत विलम्बितम्॥ 35॥

स्तोतः क्षुद्वान् विविक्तस्थोघौत पाद कराननः।

तर्पयित्वा पितृन् देवानतिथीन् बालकान् गुरुन् ॥36॥

प्रत्यवेक्ष्य तिरश्चोपि प्रतिपन्न परिग्रहान।

समीक्ष सम्यगात्मा नमनिन्दन् नब्रु बंद्रवम् ॥37॥

इष्ट मिष्टैः सहाश्नीयाच्छुचिभक्त जनाहृतम्।

भोजनं तृण केशादि जुष्ट मुष्णी कृतं पुनः॥

शाका वरान्नभूयिष्ठ मत्युष्ण लवणंत्यजेत् ॥38॥

(अष्टाँगहृदय सूत्रस्थान अ॰ 8)

भोजन समय में प्रकृति के माफिक, पवित्र, हितकारी स्निग्ध (घृत युक्त) गरम, लघु (हलका) छः रस वाला, मधुरस अधिक भोजन को, भोजन में मन लगाकर, न बहुत जल्दी, न बहुत धीरे, स्नान करके, भूख लगने पर, एकान्त स्थान में, हाथ पैर मुँह धोकर, भोजन करे। भोजन करने से पूर्व पितर, देवता, अतिथि, बालक, गुरुजन (पिता आदि) इनको तृप्त करके पशु पक्षी आदि तथा जिनको पालन करना है उनको भी अपने से पूर्व भोजन देवें। अपनी आत्मा के अनुकूल भोजन का विचार करके भोजन की निन्दा न करते हुए मौन होकर द्रव अधिक प्रिय भोजन को प्रियजनों के साथ, पवित्र एवं अनुरक्त जनों से लाये भोजन को पावे। परन्तु तिनके, केश आदि पड़े हुए, दुबारा गरम किए, शाक बहुल अपटान्न (कोदों आदि) बहुल, अति उष्ण अति लवण जिसमें ऐसे भोजन को न करे। 35-38।

केवल औषधि सेवन की ही नहीं, रोगों के निवारण के लिए आचरण शुद्धि करने की भी आवश्यकता है। इसी प्रकार शरीर पोषण के लिए बढ़िया भोजन ही पर्याप्त नहीं है वरन् भोजन संबंधी नियमों के पालन की भी जरूरत है। आयुर्वेद की शिक्षा में रोग निवारण एवं अस्वस्थतः की जड़ काटने के लिए सदाचार एवं नियम पालन पर बहुत जोर दिया गया है। भारतीय आरोग्य शास्त्र का मूल आधार यही है।


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