आत्म शुद्धि से बन्धन मुक्ति

February 1953

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री धर्मपालसिंह जी, बहादुराबाद)

आत्मा- परमात्मा का ही अंश है। उसमें अपने मूल उद्गम प्रभु के समस्त गुण मौजूद हैं। परन्तु वह मायिक अपवित्रता के बन्धनों में बँधकर जीव भाव को प्राप्त हो जाता है और जन्म मरण के कर्म भोगों के चक्र में फँसकर चौरासी लाख योनियों में घूमता रहा है।

यदि मल विक्षेपों की मलीनता को शुद्ध कर दिया जाय तो आत्म अपने वास्तविक स्वरूप में पहुँच जाता है। इसी को मोक्ष या मुक्ति कहते हैं। इसके लिए सब प्रकार की शुद्धि करने के लिए जो साधनाएँ करनी पड़ती हैं उन्हें मुक्ति मार्ग कहते हैं। भगवान् मनु ने शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धि के लिए जो उपाय बताए हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं देखिए-

अद्भर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्धयति। विद्या तपोभ्याम भूतात्मा बुद्धि र्ज्ञानेनशुद्धयति।

अर्थात्- जल से शरीर, सत्य से मन, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। सत्य क्या है? साधारण रूप से सत्य विचार सत्य व्यवहार और सत्य वचन से सत्य की परिभाषा की जाती है। वेदादि सत्शास्त्र भी मनुष्य को ‘सत्यं वद’ का आदेश करते हैं। माता-पिता तथा गुरुजन भी सन्तान को सत्य बोलने का उपदेश देते हैं। यह सब होते हुए भी पूर्ण सत्य का सेवी कोई विरला ही प्रभु का प्यारा होता है। इसका क्या कारण है? जो हम उपदेश सुनकर तथा अनेक बार व्रत लेकर सुखद मार्ग से विचलित हो जाते हैं? उत्तर- हमारी भोग शक्ति से लिप्त जन्मान्तरों के दूषित संस्कार हैं। सत्य का पुजारी होने के लिए इन दूषित संस्कारों का परिमार्जन करना होगा। यह परिमार्जन कैसे होगा? धर्माचरण रूप प्रभु की भक्ति से। भक्ति का अर्थ है सेवा और भक्त कहते हैं सेवक को। संसार में देखा जाता है कि जो सेवक स्वामी के आदेशों का पालन करता है उसका अनन्य उपाय करके कठिन से कठिन कार्य संपन्न कर देता है। उस पर मालिक की ममता पुत्रों से भी अधिक होती है। और स्वामी प्रसन्न होकर उसकी सारी दरिद्रता दूर कर उसे सब चिन्ताओं से मुक्त कर देता है। अतः शास्त्र वर्णित धर्म रूप में जो हमारे लिए प्रभु के आदेश हैं। उन प्रभु की सेवा और अपने कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना अति आवश्यक है। इसी पर नीचे कुछ लिखने का प्रयत्न किया जायेगा। महाराज मनु ने धर्म को दस लक्षणों में कह कर अनन्त धर्म सागर को गागर में भर दिया है। वह इस प्रकार है-

धृति क्षमा, दमोऽस्तेयम् शौचम् इन्द्रिय निग्रह। धी र्विद्या, सत्यम् अक्रोध दशकम् धर्मलक्षणम्॥

(1) धृति- का अर्थ है धैर्य। किसी प्रकार की आपत्ति आ पड़ने पर जो बहुधा सभी के जीवन में न्यूनाधिक आती रहती हैं उस समय मनुष्य जान और माल के नष्ट होने की आशंका से अत्यन्त कातर और भयभीत हो जाता है। ऐसे समय पर धर्म का आदेश है- घबराओ नहीं धैर्य रखो परमेश्वर सर्व व्यापक है, सर्वज्ञ हैं, रक्षक हैं, परम दयालु हैं, सब कुछ करने में समर्थ हैं, उनको पुकारो, उनकी कृपा से असम्भव भी सम्भव हो जाता है। तथा विवेक पूर्वक कर्त्तव्य का निश्चय करो।

(2) क्षमा- किसी से जब अपनी कोई वस्तु नष्ट हो जाती है अथवा कोई असहनीय अपराध बन जाता है तब मनुष्य अपराधी को दण्ड देकर अपना बदला लेने को उतारू हो जाता है। उस समय धर्म की आज्ञा है कि यदि तू बदला लेने की सामर्थ्य रखता है तो इसे क्षमा कर दे क्योंकि प्रभु ने तुझे क्षमा करने को ही शक्ति प्रदान की है। इस आचरण से तेरा यश चहुँ ओर फलेगा। हानि जो होनी थी वह तो हो चुकी वह बेचारा तो केवल निमित्त था।

(3) दम- का अर्थ है मन का रोकना। मन अति चंचल है इसमें तूफानी नदी की तरह सदैव वृत्तियों की तरंगें उठती रहती हैं। इसकी इस चंचल गति ने मनुष्य को उसके जीवन के चरम लक्ष ईश्वर प्राप्ति से वंचित कर रखा है। सारे जप, तप, ज्ञान, ध्यान, भजन, संध्या, पूजा, पाठ आदि इसी की चंचलता को एकाग्र करने के लिए किए जाते हैं। इसी को अभ्यास कहते हैं। संध्या करते समय मन्त्रों के अर्थ पर और इष्ट देव का ध्यान करते समय उनकी सुन्दर छवि पर बार-बार भागते हुए मन को लगाना चाहिये तथा उन विषयों और वस्तुओं को जिनका यह स्मरण करता है अनित्य, दुख रूप और स्थिर सुख में विघ्न रूप जान उनके प्रति वैराग्य करना चाहिये। क्योंकि कहा है कि स्वर्गलोक पर्यन्त तक के सुखभोग अनित्य और और जीवन मरण के चक्कर में ही फँसाने वाले हैं।

(4) अस्तेय- का अर्थ है चोरी न करना। जीविका उपार्जन के लिए उचित परिश्रम न करके दूसरों की मेहनत से प्राप्त वस्तुओं को उनकी बिना आज्ञा और प्रसन्नता से लेना चोरी है। मन द्वारा छल कपट के भाव भी मानस चोरी है। परन्तु जब मनुष्य परमेश्वर सत्ता को स्वीकार करके उसे सर्व व्यापक रूप में समझने लगता है। तो भगवत् कृपा से उसकी नीयत ठीक हो जाती है। तब वह मन वाणी और कर्म से दूसरे की वस्तु में अनुचित लोभ को त्याग देता है। ऐसा होने पर फिर उसे भोग्य वस्तुओं की कमी नहीं रहती। उसकी हिम्मत का ताला खुल जाता है।

(5) शौच- का अर्थ है पवित्रता, शुद्धि दो प्रकार की कही गई है। अभ्यन्तर और बाह्य। जल और मिट्टी से शरीर की शुद्धि तथा सात्विक कमाई से उत्पन्न पवित्रता पूर्वक पकाया हुआ अन्न, स्वच्छ वस्त्र बाह्य शुद्धि के अंग हैं। सत्य आदि धर्माचरण से अभ्यन्तर शुद्धि कही गई है।

(6) इन्द्रिय निग्रह- का अर्थ इन्द्रियों के भोगों में संयम लाना है। स्वाद के वशीभूत न होकर वीर्य रक्षा के लिए माँस, मदिरा, प्याज, लहसुन, अत्यन्त मिर्च मसाले युक्त गरिष्ठ भोजनों का त्याग जीभ का संयम है। अपनी विवाहिता पत्नी से सन्तान उत्पत्ति के लिए धर्मशास्त्र की आज्ञानुसार वीर्य रक्षा के महत्व को समझते हुए काम सेवन गुप्तेन्द्रिय का संयम है। गाली गलौज, गन्दे गाने व्यर्थ की बकवाद त्यागकर ईश्वर के नाम का जप, स्तुति, प्रार्थना युक्त भजन तथा विनीत, कोमल, सरल वाणी से दूसरों को मान देते हुए वार्तालाप करना वाक का संयम है। कानों से परनिन्दा तथा कुसंग की चर्चा त्याग कर भगवत् चर्चा, संत चरित्र चर्चा अर्थात् आत्म कल्याण चर्चा सुनना चाहिये। आँखों से गन्दे दृश्य, नाटक, स्वाँग तमाशे, सिनेमा आदि तथा पर स्त्रियों को कामुकता की दृष्टि से देखना त्याग कर सुन्दर प्राकृतिक दृश्य, भगवत् विग्रह सत्र, महात्माओं के चित्र तथा उनके दर्शन करने चाहियें। नाक अपवित्र माँस कबाब आदि की गन्ध से घृणा करे। तथा अति सुगन्धित इत्र, तेल आदि की गन्ध में भी आसक्त न हो क्योंकि ये कामोद्दीपन हैं। हाथ हिंसा, चोरी आदि को त्याग कर सेवा, परोपकार, यज्ञ, दान आदि पुण्य के कार्य करें।

(7) धी- का अर्थ है बुद्धि। मनुष्य बुद्धि रखने से प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ प्राणी गिना जाता है हमें कब क्या करना चाहिए क्या न करना चाहिए इसे जानने के लिये तथा ईश्वर दर्शन के लिए, दिव्य, सूक्ष्म, सतगुणी, ऋतम्भरा प्रज्ञा की ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये तथा सात्विक आहार विहार द्वारा ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर शुद्धतापूर्वक अधिक से अधिक गायत्री का जप करना चाहिये।

(8) विद्या- दो वस्तुएँ हैं विद्या और अविद्या। ईशावास्योपनिषाद में कहा गया है कि जो लोग भोगों में आसक्त होकर उनकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के अनुष्ठान करते हैं वे उन कर्मों के फलस्वरूप नाना प्रकार की योनि और भोगों को भोगने के लिए जन्म मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। यही अविद्या है। परन्तु बुद्धिमान ज्ञानीजन यज्ञ, दान, तप, सेवा, परोपकार आदि कर्मों को निष्काम भाव अथवा ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से करके कर्मों के फल से सदैव के लिए मुक्त हो जाते हैं और अविद्या के द्वारा विद्या को प्राप्त कर लेते हैं। विद्या का अर्थ है ब्रह्म विद्या, अध्यात्म ज्ञान देने वाली विद्या। विद्या वही है जिससे बन्धन टूटे। यों तो संसार में सैंकड़ों प्रकार की विद्या हैं। जो सब बन्धन को जकड़ने वाली हैं। ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए जिज्ञासु को अध्यात्म के रहस्य जानने वाले गुरु की शरण जाना चाहिये। तथा उनके आदेशानुसार उनके बताये मार्ग का अनुकरण करना चाहिए। साधारणतः ज्ञान बढ़ाने के लिए अध्यात्म ज्ञान संबंधी ग्रन्थों का स्वाध्याय करते रहना चाहिये। अविद्या अर्थात् कर्म के रहस्य को जान कर विद्या के द्वारा अमृत पद प्राप्त करना चाहिए।

(9) सत्य- के बारे में पूर्व प्रकाश डाला जा चुका है- मन, कर्म, वचन से प्रिय यथार्थ चेष्टा सत्य है।

(10) अक्रोध- का अर्थ है क्रोध न करना- क्रोध का संबन्ध कान से है, मनुष्य कानों से अपनी निन्दा सुनकर अथवा मन अनुकूल कार्य में विघ्न कर्त्ता पर अत्यन्त क्रोधित हो प्राण तक ले लेना जैसा जघन्य कृत्य कर डालता है इसका कारण भोगा शक्ति अविद्या है। तथा साँसारिक वस्तुओं की अनित्यता को भूल जाना है क्रोध पर विजय पाने के दो मार्ग हैं ज्ञान और प्रेम (भक्ति) अपने को शरीर भाव में न देख सदैव आत्म भाव में देखना। आत्मा-निन्दा, स्तुति, अच्छे बुरे, दुख सुख के प्रभाव से रहित है। भक्ति द्वारा सब प्राणी मात्र में इष्ट देव की भावना करना क्रोध पर विजय पाने का सरल उपाय है। क्योंकि जब सब अपने इष्टदेव ही हैं तो फिर क्रोध किस पर किया जाय। उपनिषद् में भी यही कहा है कि जो मनुष्य सब प्राणियों में ईश्वर को देखता है वह कैसे किसी से घृणा द्वेष करता है।

सर्वतो मुखी शुद्धि के लिए यह धर्म के लक्षण अत्यन्त आवश्यक हैं। यदि हम अपने व्यावहारिक जीवन में इन दस ईश्वरीय नियमों का पालन करते रहें तो वह आत्मिक शुद्धि की एक साधना ही होगी और उसके द्वारा बन्धन से मुक्ति हो सकती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: