विकास की शक्ति

February 1953

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(श्री शिवशंकर मिश्र एम. ए., लखनऊ)

ईश्वर सर्व शक्तिमान है और उसकी इस अपार शक्ति का एक मात्र आधार प्राणी मात्र में फैला हुआ इसके प्रति विश्वास है। जीवन संघर्ष में चकित एवं पराजित सैनिक भी अपने आपको ईश्वर के सहारे छोड़ कर एक प्रकार की निश्चिन्तता का अनुभव करने लगता है। मन्दिर में मनौती मान लेने के बाद साधक को अपने कार्य की सफलता सुलभ प्रतीत होने लगती है। देयता का प्रसाद मान कर विद्यार्थी परीक्षाफल के विषय में आशावादी हो जाता है। इस प्रकार अच्छे के प्रति विश्वास ही उसे कर्म क्षेत्र में नवीन प्रेरणा एवं नूतन चेतना प्रदान करता है और इस जागरण के फलस्वरूप ही जो सफलता प्राप्त होती है इसका ही श्रेय ईश्वर को विकसित विश्वास पात्र शक्तिशाली बनाता है।

विश्वास का उदय अनेक तत्वों के सम्मिश्रण से होता है। जो चित्तवृत्तियाँ विश्वास का बीज रोपण करती हैं उनमें संस्कार सबसे प्रधान है। यह संस्कार हमारी साँस्कृतिक सम्पत्ति है। देवता, गुरु, ब्राह्मण आदि के प्रति स्वाभाविक आस्था इसी के अंतर्गत आती है। संस्कार द्वारा जगाया हुआ यह विश्वास का बीज व्यक्तिगत साथियों के अथवा श्रुति अनुभवों द्वारा पोषित होकर यथा समय पुष्पित और फलित होता है, अथवा कटु अनुभवों के फलस्वरूप समूल नष्ट हो जाता है, जैसे जैसे हमारा विश्वास बढ़ता जाता है, हमारा विश्वास पात्र विकसित शक्तिशाली होता जाता है। क्रमशः विकास पाने वाले विश्वास विचार, चिंतन एवं आदर्श पर आश्रित होते हैं तथा अधिक स्वस्थ होते हैं। एक साथ उत्पन्न होकर दिन दुगुना और रात चौगुना वृद्धि पाने वाला विश्वास लिप्सा, वासना अथवा जिज्ञासा का आधार पाता है। वह निर्बल होता है और अधिक काल जीवित नहीं रह पाता। कुछ विचारकों का विश्वास है कि प्रथम कोटि के विश्वास का क्षेत्र सज्जन हैं तथा द्वितीय कोटि के विश्वास के दुर्जन अधिकारी होते हैं।

एक बार उदित हो जाने के बाद विश्वास की रक्षा करने का प्रश्न उठता है। स्वयं विश्वास से ही विश्वास की रक्षा होती है। अपना विश्वास हिल जाने के बाद दूसरा व्यक्ति विश्वास का पात्र नहीं जान पड़ता। व्यावहारिक सिद्धान्त यह है कि हमें अपने विश्वास को कच्चे सूत का धागा नहीं बनाना चाहिए कि हम उसे खेल खेल में तोड़ डालें। एक सच्चा विश्वास उत्पन्न होकर ह्रास को प्राप्त नहीं होता और यदि स्थिति की ऐसी विषमता हो ही जावे तो हमें अत्यन्त सोच समझ कर निर्विकार वस्तु का विश्लेषण करके अपना निर्णय करना चाहिये।

दूसरी के प्रति विश्वास का आधार अंशतः आत्म विश्वास भी है। आत्म विश्वास आत्मा को सबल बनाता है और सबल आत्मा लोक-धर्म का स्पष्ट एवं निष्पक्ष निरूपण करती है। आत्म विश्वास से वंचित होकर व्यक्ति न तो दूसरों का ही विश्वास पात्र रह सकता है और न दूसरों पर विश्वास करने की क्षमता ही पा सकता है। माना व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आत्म विश्वास का धरातल अत्यन्त आवश्यक है। आत्म-विश्वास व्यापक जीवन-दर्शन का केन्द्र बिन्दु है।

लौकिक जीवन में हमारे संबंधों की स्थिरता पारस्परिक विश्वास पर ही अवलम्बित रहती है। यह पारस्परिक विश्वास ही हमारे जीवन को आनन्द प्रदान करता है और यह आनन्द ही व्यक्तियों के बीच का चुम्बक है। पारस्परिक विश्वास से वंचित रहकर संबंध केवल दिखावा मात्र ही रह जाते हैं। इस दिखावे में मानवीय तत्वों का सर्वथा अभाव रहता है और यह वस्तुतः आत्म प्रवञ्चना के रूप में हमारे सम्मुख आता है। वर्तमान जीवन के कण कण में व्याप्त असन्तोष, अतृप्ति, छल, विडम्बना, कलह, द्वेष, उद्विग्नता, पारस्परिक विश्वास करने वाले व्यक्ति स्वयं कभी भी विश्वास के भागी नहीं हो पाते।

हम अपने दैनिक जीवन में जिन व्यक्तियों पर विश्वास करते हैं, वे हमारे लिए सब प्रकार के सहायक, उपयोगी एवं श्रद्धा के पात्र होते हैं। विश्वास प्रायः सम्मान भावना से इस प्रकार लिपटा रहता है कि उसे किसी प्रकार भी उससे पृथक नहीं किया जा सकता। विश्वास का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिये जिस व्यक्ति के प्रति हम विश्वास करें उसे हम अपने से श्रेष्ठ मानें। उसके प्रति हमारा विश्वास आत्म समर्पण के रूप में हो आदान-प्रदान अथवा व्यापार के रूप में नहीं। यद्यपि विश्वास की कल्पना प्रेम के समान एकाँगी हो पाती फिर भी विश्वास के प्रतिफल में हम साधारणतः स्नेह और कृपा के ही अधिकारी हो सकते हैं।

इस युग में संघटन शक्ति है और संघटन के लिये पारस्परिक विश्वास अनिवार्य है। यदि राष्ट्र के नागरिक परस्पर एवं राज्य के प्रति विश्वास नहीं कर पाते तो शक्तिशाली राष्ट्र की कल्पना तक नहीं की जा सकती। जाति पाँति, धर्म अथवा वर्ग के आधार पर विभाजित देश पारस्परिक विश्वास खोकर निर्बल एवं आत्म-द्रोही बन जाता है। साम्राज्यवादी राज्यों ने “आपस में फूट डालो तथा राज्य करो” के आधार पर ही शासित देशों को शताब्दियों तक निर्बल बनाकर उन पर अपना अधिकार बनाये रखा है। परिवार तथा समाज के संघटन का आधार भी यह विश्वास ही है।

विश्वास मानव का अधिकार, स्वत्व, कर्त्तव्य एवं ज्ञान है। पशु यद्यपि इससे सर्वथा वंचित नहीं रहते फिर भी अधिक मात्रा में इसके अधिकारी नहीं होते। विश्वास का प्रत्येक काम आत्मा को प्रकाश की एक नवीन किरण प्रदान करता है और आत्म विश्वास की चरम स्थिति पर आकर व्यक्ति ज्योतिर्मय होकर ब्रह्म में लीन हो जाता है। इसी स्थिति पर ‘जल में कुम्भ कुम्भ में जल है’ का अनुमान लगता है और महादेवी के शब्दों में- मैं तुम में हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश’ की आत्मचेतना प्राप्त होती है।

अतः अपने नित्य के जीवन में हम छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति छोड़ कर विश्वास को अपना अवलंब बनायें। इसके द्वारा उपार्जित शक्ति को बहुजन हिताय व्यय करें और थोड़े ही समय में हमें आत्म संतोष का जो दैवीय अनुभव होगा वह हमारे जीवन में जय और जागृति का परक एवं जनक होगा।

विश्वास से फल मिलता है और यदि हमें किसी प्रकार का भी फल पाना है तो विश्वास को ही अपना अवलंब बनायें।


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