हम अपनी ओर देखें

February 1953

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(श्री हरिनारायण जी महतारे, बी. ए.)

यूनान के एक दार्शनिक का कथन है कि हम इसलिए दुःखी नहीं हैं कि, वास्तव में हम दुखी हैं, वरन् इस कारण दूसरा ज्यादा सुखी है, इस कारण हम दुखी हैं- कहावत है कि, शहर के अँदेशे से काजी जी दुबले हैं, यानी उनको अपनी स्वयं की घरेलू चिन्ताओं के बारे में परेशानी ही हैं।

अधिकतर प्रत्येक मानव का यह सहज स्वभाव बन गया है कि वह स्वयं की ओर न देखकर-पड़ौसी की ओर, इसलिये ताकता है कि, वह कहाँ कहाँ भूलें करता है, उसमें कौन कौन सी बुराइयाँ हैं, उसका अहित किस प्रकार हो सकता है, उसके जीवन को कटु कैसे बनाया जा सकता है, आदि-2 विघ्न सन्तोषी वृत्ति के कारण हम व्यग्र हैं- चिन्तित परेशान हैं, अगर भगवान भरोसे कहीं सात्विक भावना बस, हमें उसके दुर्गुणों को दूर करने की सूझ आ जावे, तो सुधार के हेतु नहीं वरन् प्रचार के हेतु जरूर ही- इस प्रकार उपदेश उसे करेंगे जैसे हम बड़े सुधारक हों- हम इस कहावत को चरितार्थ कर डालेंगे कि “पाँव तले की आग सूझे नहीं मूरख को कहत तेरे सिर पर बरत हैं।’

हमने अपना बाह्य ही देखा- अभ्यन्तर नहीं, बाहर घूमे घर को तलाश नहीं किया- घर अंधेरा है, पर मस्जिद में चिराग जरूर जलाने दौड़े-हम क्या करते हैं, क्या हमें मालूम है परन्तु यह ध्यान जरूर रखा कि साथी क्या करता है। परिणाम-इसका भयावह निकला-दियासलाई ने दीपक को जलाने में स्वयं का मुँह जरूर जला किया। परन्तु स्वयं जल गई। जिसकी निन्दा की गई वह उन्नत हुआ। निंदक अवनत-निन्दक का पतन हुआ परन्तु जिसकी निन्दा की गई उसका उत्थान-किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है-

“निन्दक नियरे राखिये- आँगन कुटी छवाय”। बिना पानी, सावन बिना नियरे करे सुहाय॥

अवगुण देखने की ओर एक मर्तबा दृष्टि गई फिर उसका अपने मार्ग को छोड़ना दुष्कर हुआ। जन्म की आदत छूटना कठिन होता है, हमें चारों ओर बुराई ही बुराई दीखने लगी, हम यहाँ तक बढ़े कि भगवान की सृष्टि में भी अवगुण दिखाई दिए। अचानक बोल उठे काँटों वाले गुलाब को देखकर, वास्तव में भगवान ने बड़ी भारी भूल कर डाली कि-सुन्दर गुलाब के पुष्प के झाड़ को कंटकों से युक्त बना दिया। कितना सुन्दर, मनमोदक फूल और साथ ही में अनेक काँटों से घिरा हुआ? तुरन्त ही पास खड़े ज्ञानी का उत्तर मिला- भले आदमी “तेरा दृष्टि दोष है, अखिलेश की महानता को तो देख, उसने काँटों में फूल दिया” केवल अपना गलत दृष्टिकोण सुधार लें। बाहर कुछ नहीं है, जो कुछ है सो भीतर है। वही तो बाहर प्रतिबिम्बित होता है। यह सम्पूर्ण सृष्टि का आदि स्रोत, उद्गम स्थान तो मानव का हृदय स्थल ही तो है। वेद की ऋचा इसका ज्वलन्त प्रमाण दे रही है।

“तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु”

प्रत्यक्ष जो दिखाई देता है, वह प्रथम हमारे मन में कल्पना के रूप में, बीज रूप में निहित था, और उसका स्थूल साकार रूप संसार के नाम से हमारे चारों ओर फैला हुआ है। आदि काल से मानव हृदय की आन्तरिक अनुभूतियों का प्रत्यक्ष प्रमाण हम वर्तमान में दुनिया के नाम से सम्बोधित कर रहे हैं। खूब समझ लें, दूसरा वही है, जो कि आप अपने भीतर हैं, आप अपना ही प्रतिबिम्ब देख रहे हैं।

उपरोक्त कथन की सत्यता की साक्षी श्री मद्भागवत की कथा पूर्व अंशों में दे रही है। भगवान कृष्ण ने एक समय दुर्योधन को यह आदेश दिया कि वह संपूर्ण भारतवर्ष में स्वयं घूम कर सच्चरित्र, पवित्र आत्मा तथा परोपकारी व्यक्ति को लावें, तथा इस महान कार्य के हेतु छः माह की अवधि दी गई तथा युधिष्ठिर को (धर्मराज) को इसी अवधि के अंतर्गत एक महान पतित, दुष्ट तथा अन्यायी व्यक्ति को खोज वाने को कहा गया- निश्चित अवधि के बाद दुर्योधन ने आकर, महान दुःख प्रगट करते हुए कहा- कि संपूर्ण भारत में मुझे एक भी भला मानस दिखाई न दिया- अतः लाचार हूँ, क्षमा करें। धर्मराज ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुये भगवान से क्षमा चाही। कि वे बड़े परेशान हैं सम्पूर्ण देश भर में एक भी बुरा व्यक्ति नहीं।

कितना तर्क स्पर्शी कथानक है। ज्वलन्त प्रमाण है। मनुष्य की आभ्यन्तरिक दशा का। हम बहिर्मुख हो चुके हैं, अंतर्मुख होना पड़ेगा। जब ही हमारा कल्याण होगा, अन्यथा कठिन है।

स्वामी रामदास जो कि प्रसिद्ध ज्ञानी हो गए हैं। उनका कहना था- “क्या हमारी वाणी परोपदेश तक ही सीमित रहेगी? क्या अपने कथन को, हम आचरण में उतारने का प्रयत्न नहीं कर पावेंगे? फिर बकवाद करना निरर्थक है।” राम का नाम उतना महत्व नहीं रखता, जितना कि राम ने जो काम किया है, वह अपना लिया जावे।

परोपदेशे पंडित्यं सर्वेषाँ कुशलंनृणाम। धर्मस्वीय मनुष्याणाम् बुद्ध देवे न दर्शिता॥

भगवान गौतम बुद्ध का नाम अमर इसलिए हुआ कि उन्होंने अपने कथन को करणी द्वारा सिद्ध किया था। मन, वचन तथा कर्म जब एक होते हैं, तभी मनुष्य समाज में आदर पाता है। परोपदेश पर, कविकुल चूड़ामणि तुलसीदास ने भी बड़ा मार्मिक विवेचन किया है, वे कह गये हैं-

पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं तेनर न घनेरे॥

अतः हमारा सर्वोपरि महान उत्तरदायित्व होता है कि हम अपने कथन को करनी में आत्मसात करें, मन की पवित्रता को प्राथमिकता दें। विश्व बन्धु बापू के कथन का ध्यान रखें। “सबके भले में अपना भला” इस अमर वाक्य को स्वर्णाक्षरों में लिख कर लगावें। हमारा दृष्टिकोण अंधकार को नहीं, सर्वदा प्रकाश को देखे। अधिकार के पहले कर्त्तव्य को स्थान दें, बुराई को भलाई से बदल दें। जब हम अपनी सम्पूर्ण अनुभूति मंगल की ओर मोड़ देंगे, अमंगल दूर भाग जावेगा। भावना और कर्त्तव्य ऊँचा होने पर तुम छोटे से बड़े, क्षुद्र से महान बन जाओगे।

भगवान हमें सर्वदा शुभ की ओर ही देखने का स्वभाव दे, सत्गुण को देखना हम सीखें और सत्विचार करना सीखें, तब चहुँ ओर शुभ ही शुभ तथा मंगल ही मंगल है।


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