आत्मीयता का विस्तार करिये।

February 1953

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(श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर)

आत्मीयता अर्थात् अपनेपन की अनुभूति। विश्व के प्रायः समस्त प्राणियों में आत्मीयता सहज स्वभाव के रूप में पाई जाती है पर उसके परिभाषा में काफी अन्तर रहता है, किसी में वह बहुत सीमित दिखाई देती है तो किसी किसी में वह असीम प्रतीत होती है। इसी प्रकार शुद्धि एवं घनी भूतता का भी अन्तर पाया जाता है। माता का पुत्र कैसा था, इसी प्रकार पारिवारिक-कौटुंबिक आत्मीयता होती है उसमें मोह एवं स्वार्थ रहने से उतनी शुद्धि नहीं होती जबकि सन्तों की आत्मीयता में यह दोष नहीं रहने से वह शुद्ध रहती है। किसी किसी के अपने पन की अनुभूति बहुत घनीभूत पायी जाती है तो किसी में वह साधारण होती है।

प्राचीन काल में मनुष्यों में सरलता व स्नेह बहुत अधिक मात्रा में होता था। वर्तमान में सरलता की बहुत कमी हो गई है और स्नेह भी दिखाऊ ज्यादा हो गया है। कपट एवं स्वार्थ की अधिकता हो जाने से आत्मीयता का बहुत ही ह्रास हो गया है। आज भी वृद्धि एवं भोले भाले ग्रामीण मनुष्यों का अन्तराल टटोलते हैं तो उनमें आत्मीयता का भाव गहरा प्रतीत होता है। मेरे अपने अनुभव की बात है। गौरीशंकर जी ओझा व पुरोहित हरि नारायण जी आदि की स्मृति होते ही उनकी आत्मीयता का दृश्य सन्मुख आ उपस्थित होता है। आदरणीय वयोवृद्ध भैरव दत्त जी आसोपा व रावत मल जी बोथरा आज भी जब कभी मिलते हैं हर्ष से गदगद हो जाते हैं। उनकी मुरझाई हृदय कली मानो खिल सी जाती है जिसकी अनुभूति उनके चेहरे से व वाणी से भली भाँति हो जाती है। यद्यपि मेरा उनसे वैसा निकटवर्ती पारिवारिक सम्बन्ध नहीं है। अपने 40 वर्ष तक के आयु वाले निकट सम्बन्धियों में भी मुझे वैसी आत्मीयता के दर्शन नहीं होते। कई वृद्ध पुरुषों को मैंने देखा है उनमें आत्मीयता का भाव इतना गहरा होता है कि वे मिलते ही हर्षातिरेक से प्रफुल्लित हो जाते हैं।

प्राचीन काल में संयुक्त परिवार की समाज व्यवस्था इसीलिए अधिक सफल हो पाई। आज तो सगे भाई तो न्यारे-न्यारे हों तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं पर पिता व माता से भी पुत्र अलग हो रहे हैं। वहाँ एक ही कुटुम्ब में पचास पचास व्यक्तियों का निर्वाह एक साथ हो सकता था आज दो भी प्रेम से साथ नहीं रह सकते, इसका प्रधान कारण आत्मीयता का ह्रास ही है। साथ न रह सकें तो हर जगह वे भले ही अलग अलग रहें पर एक दूसरे को देखने से प्रेम के स्थान पर द्वेष भाव जागृत हो उठता है तब गृहस्थ जीवन अशान्ति का साम्राज्य बने बिना कैसे रह सकता है?

ऐसी ही स्थिति से मानव मानव का शत्रु बनता है, गृह-कलह पड़ता है, यावत् बड़े-बड़े महायुद्ध उपस्थित होते हैं। विश्व की वर्तमान स्थिति पर दृष्टि डालने से यह बात दीपकवत स्पष्ट प्रतिभासित होती है। आये दिन महायुद्ध के बादल छाये हुए नजर आते हैं। आशंका तो प्रति समय बनी हुई है कब कौन किससे लड़ पड़े युद्ध छिड़ जाय। यदि आत्मीयता का भाव विस्तृत किया जाय तो यह नौबत कभी नहीं आने की। तब प्रति-पक्षी या विरोधी कोई रहता ही नहीं है। सभी तो हमारे भाई हैं यावत् हमारे सदृश ही चैतन्य स्वरूप आत्मा होने से हमसे अभिन्न हैं अतः किससे लड़ा जाय? उसका कष्ट अपना कष्ट है। उनकी बरबादी अपने ही एक अंग का विच्छेद है। इस भावना को अधिकाधिक प्रसारित करने से इन महायुद्धों का अन्त हो सकता है।

विश्व शान्ति की बात को एक बार अलग भी रखें पर भारत में ही अपने भाइयों के साथ कितने अन्याय व अत्याचार हो रहे हैं। हमारी अलगावादी भावना से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ और लाखों व्यक्तियों को अमानुषिक अत्याचारों का शिकार होना पड़ा। उसे भी अलग रख कर सोचते हैं तो प्रान्तीयता व गुट, पार्टी व दलबन्दी से हमारा कितना नुकसान हो रहा है। इसका एक मात्र कारण आत्मीयता की कमी ही है। आज कालाबाजार, घूसखोरी, आदि अनीति का बोलबाला है इसमें भी वही अलगाव की वृत्ति काम कर रही है।

यदि हम एक दूसरे से अभिन्नता का अनुभव करने लगें तो कोई किसी को मनसा, वाचा, कर्मणा दुख दे ही नहीं सकता। क्योंकि हमारे से भिन्न तो कोई है नहीं। उनका दुःख हमारा दुःख है। हरेक व्यक्ति यदि ऐसी आत्मीयता व अपनेपन का भाव रखे तो विश्व की समस्त अशान्ति विलोप हो जाय और सुख-शान्ति का सागर उमड़ पड़े। आखिर प्रत्येक मनुष्य जन्मा है तो वह मरना अवश्य है। तो थोड़े से क्षणिक जीवन के लिए अपने ही आत्मस्वरूप प्राणी मात्र को कष्ट क्यों पहुँचाया जाय? खुद शान्ति सी जीओ और प्राणी मात्र को सुखपूर्वक जीने दो, यही हमारा सनातन धर्म है। भारत का तो यह आदर्श ही रहा है कि-

आयं मम परो वेत्ति, गणनाहि लघु चेतसा। उदार चरितानाँतु, वसुधैव कुटुम्बकम्॥

अर्थात्- ये मेरा, ये तेरा, यह भाव तो क्षुद्र वृत्ति के मनुष्यों का लक्षण है उदार चरित्र व्यक्तियों के लिए तो समस्त विश्व ही अपना कुटुम्ब है।

भारतीय दर्शनों में विशेषतः जैन दर्शन में तो आत्मीयता का विस्तार मानव तक ही सीमित नहीं रख कर पशु पक्षी यावत् सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं के साथ भी स्थापित करते हुए उनकी हिंसा का निषेध किया गया है। अहिंसा की मूल भित्ति इसी भावना पर खड़ी है कि जैसे दूसरों के बुरे व्यवहार से मुझे दुःख होता है वैसा ही व्यवहार मैं दूसरों के साथ करता हूँ तो उसे भी कष्ट हुए बिना नहीं रहता।

अतः उसे कष्ट देना अपने लिए कष्ट मोल लेना है। जो मुझे अप्रिय है वैसा व्यवहार दूसरे के साथ भी नहीं किया जाय। वास्तव में वह भी मेरा अपना ही रूप है। अतः आत्मीय है।

भारतीय महर्षियों का यह आदर्श वाक्य हमारे हृदय में अंकित हो जाना चाहिये।

“आत्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत्।”

जीवन के प्रत्येक कार्य करते समय इस महावाक्य की ओर हमारा ध्यान रहे। ईश्वर को सृष्टि कर्ता मानने वाले दर्शन जीव जगत को उस परमात्मा का ही अंश मानते हैं। सभी प्राणियों में वह एक ही ज्योति प्रकाशित हो रही है। अतः उसमें से किसी को कष्ट देना परमात्मा को कष्ट देना होगा।

भारतीय मनीषी सब जीवों को अपने समान मान कर ही नहीं रुके उनकी विचारधारा तो और भी आगे बढ़ी और सब जीवों में परमात्मा के दर्शन करने तक पहुँच गये। एक दूसरे से अलगाव का तो प्रश्न ही कैसे उठ सकता है। अपितु व साथ मैत्री होती है। वर्त्तमान में हमारी आत्मीयता इने-गिने व्यक्तियों तक सीमित होने से संकुचित है उसे उदार भाव द्वारा विस्तृत कर जाति, नगर, देश यावत् राष्ट्र व विश्व के प्रत्येक प्राणी के साथ (आत्मीयता-अपनेपन का) विस्तार करते जाना है यही शान्ति का सच्चा अमोघ प्रशस्त मार्ग है।

हमारे तत्वज्ञों ने धर्म की व्याख्या करते हुए लक्षण बतलाते हुए जिससे अभ्युत्थान व निश्रेयस्र प्राप्त हो वही धर्म है कहा है। अतः आत्मीयता का विस्तार वास्तव में हमारा आत्म स्वभाव या धर्म हो जाना चाहिए। अलगाव भेदभाव को मिटाकर सब में अपनेपन का अनुभव कर तदनुकूल व्यवहार करें तो सर्वत्र आनन्द ही आनन्द दृष्टिगोचर होगा। उस आनन्द के सामने स्वर्ग के माने जाने वाले सुख कुछ भी महत्व नहीं रखते। एक दूसरे के कष्ट को अपना ही दुःख समझकर दूर करें व एक दूसरे के उत्थान को अपना उत्थान समझते हुए ईर्ष्या न होकर हमें हर्ष हो। एक दूसरे को ऊँचा उठाने में हम निरन्तर प्रयत्न करते रहें इससे अधिक जीवन की सफलता और कुछ हो नहीं सकती।


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