हमारा लक्ष ‘भोग‘ नहीं है।

February 1953

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(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)

इंग्लैण्ड में कहते हैं कि ‘अमुक मनुष्य ने आत्मा का परित्याग कर दिया, किन्तु भारतवर्ष में कहते हैं कि ‘अमुक मनुष्य ने देह का परित्याग किया।’ पाश्चात्य लोगों का यह भाव है कि मनुष्य देह है और आत्मा देह के अधीन है और प्राच्य लोगों का यह भाव है कि मनुष्य आत्मस्वरूप है और देह उसके अधीन है। इस पार्थक्य के कारण कई जटिल समस्याएँ उठती हैं। यह सहज ही समझा जा सकता हे कि जिन लोगों का मत है कि मनुष्य देहरूप है और आत्मा उसके अधीन है, उनके मत में देह पर विशेष ध्यान दिया जायगा। यदि उनसे पूछा जाय कि मनुष्य-जीवन किस लिये है तो वे कहेंगे कि इन्द्रिय- सुखभोग के लिये- देखने सुनने, भोजन पान करने, धन दौलत के अधिकारी होने के लिये-बस, मनुष्य जीवन का यही आदर्श है। इससे अधिक और कुछ नहीं-

“खाओ, पीओ, मौज उठाओ इसीलिये यह मेला है। कौन जानता कब क्या होगा चलता यही झमेला है।”

इन्द्रियातीत वस्तु की कथा वे स्वप्न में भी नहीं समझ सकते उनकी परलोक की धारणा ऐसी है कि जिस प्रकार इन्द्रिय-सुखभोग यहाँ चल रहा है परलोक में भी बराबर वैसा ही चलेगा। इसी लोक में वे चिरकाल तक इन्द्रिय-सुखभोग नहीं कर सकते, इसका उन्हें बड़ा दुःख है। वे ऐसा सोचते हैं कि मरने के पश्चात् वे एक ऐसे स्थान में जहाँ ये सब इन्द्रिय सुख फिर से प्राप्त होंगे। यही सब इन्द्रियाँ रहेंगी और यही सब सुख भोग रहेंगे, केवल सुख की तीव्रता और मात्रा बढ़ जायगी। वे ईश्वर की उपासना भी इसीलिये करते हैं कि खूब सुख मिले। उनके लिये ईश्वर इस उद्देश्य-लाभ के लिये उपाय स्वरूप है। उनके जीवन का लक्ष्य विषय-सम्भोग है, वे केवल किसी से इस बात को जान गये हैं कि एक पुरुष है जो इन सब सुख भोगों को दे सकता है, इसीलिये वे ईश्वर की उपासना करते हैं। यह तो एक भाव हुआ। दूसरा भाव यह है कि ईश्वर ही हम लोगों के जीवन का लक्ष्य-स्वरूप है। ईश्वर से अधिक श्रेष्ठ और कुछ नहीं है, और इन्द्रिय सुख भोग को छोड़कर उच्चतर वस्तु की प्राप्ति के लिये अग्रसर होना चाहिये। केवल यही नहीं, बल्कि इन्द्रिय सुख को छोड़कर संसार में और कुछ नहीं होता तो संसार बड़ा ही भयानक होता। हम लोग अपने जीवन में नित्य प्रति देखते हैं कि जिस मनुष्य में इन्द्रिय- सुखभोग जितना ही कम है, उस मनुष्य का जीवन उतना उच्चतर है। कुत्तों को देखिये- कौन मनुष्य इतनी तृप्ति के साथ खा सकता है? सूकरों की तरफ देखिये, खाते समय किस प्रकार आनन्द सूचक शब्द करते हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो इस प्रकार से खा सके। तिर्यग्जाति की देखने, सुनने, सूँघने आदि की शक्तियाँ कितनी प्रबल होती हैं- उनकी सब इन्द्रियाँ बहुत उत्कर्ष प्राप्त हैं। मनुष्यों की इन्द्रिय- शक्तियाँ कभी इतनी प्रबल नहीं हो सकतीं, पशुगण इन्द्रिय-सुखभोग के आनन्द में एक बार ही उन्मत्त हो उठते हैं। और मनुष्य जितना ही अनुन्नत रहेगा उसे इन्द्रिय- सुखभोग में उतना ही अधिक आनन्द मिलेगा। वह क्रमशः जैसे-जैसे उन्नत होता जायगा, उसके विचार उच्च होते जाएंगे और हृदय प्रेम से भरता जायगा। आप देखेंगे कि आप में विचार-शक्ति और प्रेम का विकार होने पर आपकी इन्द्रिय-सुखभोग-शक्ति कम होती जायगी। यदि हम लोग यह स्वीकार करें कि मनुष्य के भीतर एक निर्दिष्ट शक्ति है और इस शक्ति का प्रयोग देह, मन या आत्मा के ऊपर किया जा सकता है, मानना होगा कि यदि उस शक्ति का प्रयोग केवल किसी एक ही पर किया जाय तो दूसरों के ऊपर प्रयोग की शक्ति उतनी ही कम हो जायगी। सभ्य जाति की अपेक्षा असभ्य जाति की इन्द्रिय-शक्ति तीक्ष्णतर होती है- और सभ्य जाति का शरीर दुर्बल होता जाता है। किसी असभ्य जाति को सभ्य बनाइये- ठीक यही बात होगी। वह दुर्बल हो जायगी और कोई असभ्य जाति आकर उसको जीत लेगी। ऐसा देखा जाता है कि प्रायः बर्बर जाति ही सर्वदा जय शालिनी होती है। इस कारण यदि हम लोगों को सर्वदा इन्द्रिय सुखभोग की वासना होती है तो समझना चाहिये कि हम लोग एक ऐसे पदार्थ के लिये प्रार्थना करते हैं जिसे पाकर हम लोग पशु हो जायेंगे। मनुष्य जब कहता है कि वह एक ऐसे स्थान में जाना चाहता है जहाँ उसको इन्द्रिय-सुख भोग खूब अधिकता से मिल सके तो समझना चाहिये कि वह मनुष्य जन्म नहीं चाहता है क्योंकि पशु योनि में ही उसको ऐसा सुखभोग मिल सकता है। सूकर को कभी विचार नहीं होता कि वह अशुद्ध वस्तु का भोजन कर रहा है। और यदि ब्रह्मा, विष्णु, महेश उसके निकट आकर उपस्थित हों तो भी वह उनकी ओर देखना नहीं चाहेगा। भोजन में ही उसका मन-प्राण समग्र सत्ता नियोजित है।

मनुष्य के संबंध में भी उसी प्रकार है। वह शूकर के सदृश विषय-वासना के भारी कीचड़ में लेटा हुआ है। इसके बाहर क्या है सो वह नहीं देख सकता। वह इन्द्रिय-सुखभोग ही चाहता है और उसकी अप्राप्ति उसके निकट नर्क में गिरने के सदृश है। इस प्रकार का मनुष्य सच्चा भक्त नहीं कहला सकता। वह कभी सच्चा भगवत्-प्रेमी नहीं हो सकता। समय पाकर इस आदर्श को बदलना होगा। प्रत्येक मनुष्य जानता है कि इसकी अपेक्षा उच्चतर कोई वस्तु है जिसके संबंध में हम नहीं जानते- ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ ।’ मैं लड़कपन में जिस समय पाठशाला में पढ़ता था उस समय किसी सहपाठी के साथ एक मिठाई के लिये झगड़ा हो गया। वह मुझसे अधिक बलवान था इसलिये उसने मिठाई मेरे हाथ से छीन ली। उस समय मेरे मन में जो भाव उठा था वह इस समय भी मुझे याद है। मेरे विचार में आया था कि उसके जैसा दुष्ट लड़का संसार में कोई नहीं है मैं जब बड़ा हूँगा तो उसको दण्ड दूँगा। मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि उसके जैसे दुष्ट को कौन-सा दण्ड दिया जाय- सोचा कि उसको फाँसी देना ही उचित होगा- उसके चार टुकड़े कर डालना ही उचित है। इस समय हम लोग दोनों ही बालक बड़े (बालिग) हो गए हैं और दोनों के बीच में परम बन्धुत्व है। इसी प्रकार यह समग्र जगत अल्पवयस्क शिशु तुल्य मनुष्यों से परिपूर्ण है, जोकि पूड़ी-मिठाई ही को सर्वस्व समझते हैं। यदि इसमें जरा भी इधर-उधर होता है तो वे समझते हैं कि उनका सर्वनाश हो गया। वे केवल सुख-स्वप्न देखते हैं और उनकी धारणा है कि स्वर्ग में पूड़ी-मिठाई खूब मिलती है। अमेरिकन इण्डियनों की धारणा है कि स्वर्ग में आखेट करने का बड़ा सुन्दर स्थान है। हम सब अपने अपने वासनानुरूप स्वर्ग की धारणा करते हैं। किन्तु समय पाकर जितनी ही हम लोगों की अवस्था बढ़ती जाती है और जितनी ही उच्च वस्तु के दर्शन करने की शक्ति होती जाती है, उतना ही समय समय पर इन वस्तुओं से उच्चतर वस्तु का आभास मिलता जाता है।


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