(योगीराज अरविन्द घोष)
यदि एक तरफ से या अपने एक अंग में तुम सत्य के सम्मुख हो जाओ, और दूसरी तरफ से आसुरी शक्तियों के लिये अपने द्वार बराबर खोलते रहो तो यह आशा करना व्यर्थ है कि दयामयी दैव्य शक्ति तुम्हारे साथ रहेगी। तुम्हें इस मन्दिर को स्वच्छ रखना होगा यदि तुम इसमें चिन्मयी सत्त को प्रतिष्ठित करना चाहते हो।
हर बार जब वह दैवी शक्ति आती और सत्य को लाती है तब तुम यदि उसकी ओर पीठ फेर दो और फिर उस झूठ को बुला लो जिसे एक बार निकाल चुके हो तो दैवी शक्ति तुम्हारा साथ नहीं देगी, यह दोष दैवी शक्ति का नहीं, तुम्हारे अपने संकल्प के मिथ्याचार और शरणागति की अपूर्णता का है।
तुम तो पुकार करते हो सत्य की, पर तुम्हारे अन्दर कोई बात ऐसी चीज उठा लेती है जो झूठ है, अज्ञान है, और दिव्य भाव के विपरीत है और कुछ नहीं तो ऐसी चीज को सर्वथा छोड़ देने को तैयार नहीं होती तो यह समझो कि तुम्हारे ऊपर आक्रमण होता रहेगा और भगवती तुमसे पीछे हटती ही जायेगी। इसीलिये पहले देखो कि तुम्हारे अन्दर वह कौन सी चीज है जो असत्य है, अज्ञानमय है, और उसका सतत त्याग करो, तभी तुम अधिकारी होगे कि दिव्यत्व लाभ करने के लिये दैवी शक्ति का आवाहन करो।
यह मत सोचो कि सत्य और मिथ्या, प्रकाश और अन्धकार, शरणागति और स्वार्थ एक साथ उस गृह में रह सकते है। जो भगवती के रहने के लिये समर्पित कर दिया गया। दिव्यत्व लाभ सर्वांग में होना चाहिये इसलिये उसकी बाधक वस्तु का त्याग भी सर्वांग से होना चाहिये।
इस मिथ्या धारणा को भी त्याग दो कि, तुम जब जैसे चाहोगे और तुम स्वयं भगवान के निर्दिष्ट पथ पर न चलो तब भी, भगवती तुम्हारे लिये स्वयं ही सब कुछ करेंगी या उन्हें करना ही पड़ेगा। अपनी शरणागति सच्ची और पूरी करो, तभी तुम्हारे लिये बाकी सब कुछ किया जायेगा।
अज्ञान और आलस्य में पड़े-पड़े यह मत सोचो कि दैवी शक्ति ही तुम्हारे लिये शरणागति भी कर देगी। भगवान यह चाहते हैं कि तुम भगवती की शरण लो, पर तुम्हारे ऊपर इसका कोई बन्धन नहीं है, जब तक वह दिव्यत्व लाभ नहीं होता, जिसके प्राप्त करने पर कोई वहाँ से च्युत नहीं होता,तब तक हर समय तुम स्वतन्त्र हो, अपने पास से उसे हटा सकते हो, शरणागति करके भी चाहो तो उसे लौटा भी ले सकते हो यदि उसके आध्यात्मिक परिणामों को भोगने के लिये भी तैयार हो जाओ। तुम्हारी यह शरणागति स्वतः प्रवृत्त और बन्धन रहित होनी चाहिये, जीते-जागते जीव की-सी होनी चाहिये, चलने वाले या अचल चैतन्य रहित जड़ इंजन या यन्त्र की सी नहीं।
जड़त्व वश, कुछ न करना अनेक बार वास्तविक शरणागति सा मालूम होता है। पर जड़ अकर्मण्यता से कोई सत्य और सामर्थ्य नहीं उत्पन्न हो सकती। भौतिक प्रकृति जड़त्व वश अकर्मण्य होने से ही प्रत्येक तामस और आसुरी प्रभाव का शिकार बनती है दैवी शक्ति के कर्म करने के लिये ऐसी अधीनता होनी चाहिये जिसमें प्रसन्नता हो, बल हो और जो अधीनता में भी सहायक हो, यह आज्ञाकारिता सत्य के ज्ञानदीप्त अनुयायी की अंतर्जगत में अन्धकार और असत्य से लड़ने वाले वीर योद्धा की, देवाधिदेव के सच्चे सेवक की, आज्ञाकारिता होनी चाहिये।
यही सद्वृत्ति है और जो इसे धारण कर रख सकते है, वे ही ऐसी श्रद्धा बनाये रह सकते हैं जो निराशाओं और कठिनाइयों से विचलित न हो और इस कठिन अग्नि परीक्षा से निकल कर उस महान् विजय और उस महत् दिव्यत्व को प्राप्त कर सकते हैं।
तुम्हारा विश्वास विशुद्ध, निश्छल और पूर्ण होना चाहिये। मन में और प्राणों में यदि ऐसा अहंकारयुक्त विश्वास हो कि जिसमें बड़े बनने की वासना, अभिमान, वृथाडम्बर, मानसिक प्रगल्भता प्राणों की स्वेच्छाचारिता, व्यक्तिगत माँग निम्न प्रकृति के क्षुद्र सन्तोष प्राप्त करने की कामना के कलंक लगे हुए हो तो ऐसा विश्वास ऊर्ध्वगमना धूम और धूमाच्छत्र अग्निशिखा के सदृश है जो ऊपर स्वर्ग की ओर उज्ज्वलित नहीं हो सकती। यह समझो कि तुम्हें जो जीवन मिला है वह ईश्वरी कार्य के लिये है, ईश्वरी तत्व को प्रकट करने में सहायक होने के लिये है। और किसी बात की इच्छा मत करो, केवल यह चाहो कि ईश्वरी चैतन्य की ही पवित्रता शक्ति, ज्योति विशालता, शांति और आनन्द प्राप्त हो और वह तुम्हारे मन, प्राण और शरीर को पलट कर दिव्य और पूर्ण बनाये बिना नहीं छोड़े। और कोई चीज मत माँगो, केवल यही इच्छा करो कि वह दिव्य, आध्यात्मिक और विज्ञानमय सत्य तुम्हें प्राप्त हो, पृथ्वी पर और तुम्हारे अन्दर और उन सबों के अन्दर जो ऊपर से पुकारे गये हैं। और चुन लिये गये हैं, इस सत्य की सिद्धि हो, और इसकी सृष्टि के लिये और विरोधी शक्तियों पर इसकी विजय प्राप्त के लिये जिन अवस्थाओं की जरूरत है वे तैयार हो जाएं।