विश्वनारी की पवित्र आराधना।

September 1950

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संसार में सब से अधिक प्रेम संबंध का अद्वितीय उदाहरण माता है। माता अपने बालक को जितना प्रेम करती है उतना और कोई सम्बन्धी नहीं कर सकता। यौवन के उफान काल में पति पत्नी में भी अधिक प्रेम देखा जाता है पर वह वास्तविक दृष्टि से माता के प्रेम की तुलना में बहुत ही हल्का और उथला बैठता है। पति-पत्नी का प्रेम, आदान प्रदान, एक दूसरे के मनः संतोष एवं प्रति फल के ऊपर निर्भर रहता है। उसमें कमी या विघ्न हो तो वह प्रेम विरोध के रूप में परिवर्तित हो जाता है परन्तु माता का प्रेम अतीव सात्विक और उच्च कोटि का होता है। बालक से प्रतिफल मिलना तो दूर रहा उलटे अनेक कष्ट होते हैं। इस पर भी वह वात्सल्य की, परम सात्विक प्रेम की, अमृतधारा बालक को पिलाती रहती है। कुपुत्र होने पर भी माता की भावनाएं घटती नहीं।

श्रीमद्भागवत में वर्णन आता है कि कंस की सभा में जब श्रीकृष्ण जी पधारे तो सभासदों ने अपनी-2 भावनाओं के अनुरूप उन्हें देखा। रामायण में वर्णन है कि सिया-स्वयंवर के समय उपस्थित जन समुदाय राम को साक्षात् वैसा ही देखते थे जैसी कि उनकी भावना थी। ब्रह्म तत्व स्फटिक मणि के समान स्वच्छ निर्मल एवं निर्विकार है। अपनी-अपनी भावनाएं ही कंस सभा और सिया-स्वयंवर के सभासदों की भाँति भगवान में परिलक्षित होती है। दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब दीखता है। कुएं में अपनी ही प्रतिध्वनि वापिस लौटती है। स्फटिक मणि के निकट जिस रंग की वस्तु रक्खी होगी उसी रंग की वह मणि दिखाई देने लगेगी। भगवान को हम माता, पिता, भ्राता, सखा आदि जिस किसी भाव से देखेंगे वे उसी भाव के अनुरूप हमारे लिए प्रतिध्वनित होंगे।

हम भगवान को प्रेम करते हैं और उनके अनन्य प्रेम का प्रतिदान करना चाहते हैं। माता के रूप में उन्हें भजना सबसे अधिक उपयुक्त एवं अनुकूल बैठता है। माता का जैसा वात्सल्य अपने बालक पर होता है वैसा ही प्रेम प्रति फल प्राप्त करने के लिए भगवान से मातृ-संबंध स्थापित करना आत्म-विद्या के, मनोवैज्ञानिक रहस्यों के आधार पर अधिक उपयोगी एवं लाभदायक सिद्ध होता है। कंस, भगवान को काल के रूप में देखता था उसे दिन रात सोते जागते उनका प्राण घाती शस्त्र पाणि महाभयंकर स्वरूप दिखाई पड़ता था। सूरदास के कृष्ण बाल गोपाल स्वरूप थे। हमारे लिये माता का सम्बन्ध अधिक स्नेह-मय हो सकता है। माता की गोदी में बालक या अपने को सबसे अधिक आनंदित सुरक्षित संतुष्ट अनुभव करता है। प्रभु को माता मानकर जगज्जननी वेदमाता गायत्री के रूप में उसकी उपासना करें तो उसकी प्रति क्रिया भगवान की ओर से भी वैसी ही वात्सल्य मय होगी जैसी कि माता की अपने बच्चे के प्रति होती है।

इसके अतिरिक्त एक वैज्ञानिक कारण यह भी है कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वभावतः अधिक होता है। पुरुष शरीर और मन में कुछ ऐसी कमियाँ हैं जो स्त्री से ही पूरी होती हैं। उन अभावों की पूर्ति के लिए विपरीत लिंग की ओर सदैव खिंचता रहता है। ध्यान करने में पुरुषाकृति रूप में मन की उतनी प्रवृत्ति नहीं होती जितनी कि स्त्री रूप में। गायत्री माता की उपासना में मन अपेक्षाकृत अधिक शान्त स्थिर एवं संलग्न रह सकता है इसलिए गायत्री का इष्ट शीघ्र सिद्ध होता है।

नारी शक्ति पुरुष के लिए सब प्रकार आदरणीय, पूजनीय, एवं पोषणीय है। पुत्री के रूप में, बहिन के रूप में, माता के रूप में वह स्नेह करने योग्य, मैत्री करने योग्य एवं गुरुवत पूजन करने योग्य है। पुरुष के शुष्क अन्तर में अमृत सिंचन यदि नारी द्वारा नहीं हो पाता तो वैज्ञानिक बतलाते हैं कि वह बड़ा रूखा, कर्कश, क्रूर, निराश, संकीर्ण एवं अविकसित रह जाता है। वर्षा से जैसे पृथ्वी का हृदय हर्षित होता है और उसकी प्रसन्नता हरियाली एवं पुण्य पल्लव के रूप में फूट पड़ती है। पुरुष भी नारी की स्नेह वर्षा से इसी प्रकार सिंचन प्राप्त करके अपनी शक्तियों का विकास करता है परन्तु एक भारी विघ्न इस मार्ग में बसने का है जो अमृत को विष बना देता है। दुराचार, कुदृष्टि, एवं वासना का संमिश्रण हो जाने से नर नारी के सान्निध्य से प्राप्त होने वाले अमृत फल, विष बीज बन जाते हैं। इसी बुराई के कारण स्त्री पुरुषों को अलग-अलग रहने के, सामाजिक नियम बनाये गये हैं। फल स्वरूप दोनों पक्षों को उन असाधारण लाभों से वंचित रहना पड़ता है जो नर नारी के पवित्र मिलन से, पुत्री बहन और माता के रूप में सामीप्य होने से, मिल सकते हैं।

इस विषय विकार की भावना का शमन करने के लिये गायत्री साधना परम उपयोगी है। विश्व नारी के रूप में भगवान की मातृभाव से परम पुण्य भावनाओं के साथ आराधना करना मातृ जाति के प्रति पवित्रता की अधिकाधिक वृद्धि करना है। इस दिशा में जितनी सफलता मिलती जाती है उसी अनुपात से अन्य इन्द्रियों का निग्रह मन का निरोध एवं अनेक मनोविकारों का शमन अपने आप होता जाता है मातृ भक्त के हृदय में दुर्वासनाएं अधिक देर नहीं ठहर सकतीं।

श्री रामकृष्ण परमहंस, योगी अरविंद घोष, छत्रपति शिवाजी आदि कितने ही महापुरुष शक्ति उपासक थे शक्ति का धर्म भारत का प्रधान धर्म है। जन्म भूमि को हम भारत माता की, मातृ शक्ति की जय बोलते हैं और उसकी उपासना करते हैं। शिव से पहले शक्ति की पूजा है। लक्ष्मी नारायण, सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, आदि नामों में नारी को प्रथम और नर को गौण रखा गया है। माता का, पिता और गुरु से भी पहला स्थान है। इस प्रकार विश्व नारी के रूप में भगवान की पूजा करना नर पूजा की अपेक्षा अधिक उत्तम उपयोगी है। गायत्री उपासना की यही विशेषता है।

ब्रह्म निर्विकार है। इन्द्रियों से अतीत तथा बुद्धि से अगम्य है। उस तक सीधा पहुँचने का कोई मार्ग नहीं। नाम जप, रूप का ध्यान, प्रार्थना, तपस्या, साधना, चिन्तन, श्रवण, कीर्तन आदि सभी आध्यात्मिक उपकरण मायिक है। सतोगुणी माया, एवं चित् शक्ति के द्वारा ही जीव और ईश्वर का मिलन हो सकता है। यह आत्मा और परमात्मा का मिलाप कराने वाली शक्ति गायत्री ही है। ऋषियों ने इसी की उपासना की है क्यों कि यह खुला रहस्य है कि, शक्ति बिना मुक्ति नहीं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली, माया, प्रकृति, राधा, सीता, सावित्री, पार्वती, आदि के रूप में गायत्री की ही पूजा की जाती है। पिता से सम्बन्ध होने का कारण माता है। इसलिए पिता से माता का दर्जा ऊँचा है समुद्र से जल ला लाकर मेघमालाएं ही वर्षा का आयोजन करती हैं। ईश्वर की असीम आनन्द राशि का आस्वादन करने का सौभाग्य गायत्री माता द्वारा ही मानव प्राणी को प्राप्त होता है।

ब्रह्म की इच्छा, शक्ति, एवं क्रिया गायत्री है। उसी से उत्पत्ति, विकास एवं अवसान का आयोजन होता है। सुन्दरता, मधुरता, वीणा, सम्पत्ति, कीर्ति, आशा, प्रसन्नता, करुणा, मैत्री, आदि के रूप में यह महाशक्ति ही जीवन क्षेत्र को आनंदित एवं तरंगित करती रहती है। इस विश्वनारी की, महा-गायत्री की, महा माता की, आराधना करके हम अधिकाधिक आनंद की ओर अग्रसर हो सकते हैं।


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