सन्तों की अमृतवाणी

September 1950

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मूरख का मुख बाँबिया, निकसत बचन भुजंग।

बाकी औषधि मौन है, जहर न व्यापै अड़ग्॥

कहा करै बैरी प्रबल, जो सहाय बलवीर।

दशहजार गज बल घटयो, घटयो न दशगज वीर॥

लौर लागी तब जानिये, जग सों रहे उदास।

नाम रटे निर्भय कला हरदम हीरा पास,॥

लौ लागी तब जानिये जगसों रहे उदास।

नाम रटे निरद्वन्द्व हो, अनहदपुर में बास॥

श्वास-श्वास पै नाम भज, श्वास न बिरया खोय।

ना जाने इस श्वास का, आवन होय न होय॥

गोविन्द गुण गायो नहीं, जन्म अकारथ कीन।

कह नानक हरिभज मना, जेहि विधि जल की मीन

वृद्ध भयो सूक्ते नहीं, काल जो पहुँचो आन।

कह नानक नर वाचरे, क्यों न भजे भगवान॥

घट घट में हरि जू बसै, संतन कह्यो पुकार।

कह नानक तेहि भज मना, भवनिधि उतरहि पार।

साथ न चाले बिन भजन, विषया सकली छार॥

हरि हर नाम कहो मना, नानक यह धन सार।

सुख में बहु संगी भये दुख में संग न कोय॥

कह नानक हरि भज मना, अन्त सहाई होय।

जन्म-जन्म भरमत फिरयो, मिटी न यम की त्रास

कह नानक हरि भज मना, निर्भय पावहि वास॥

कबीर मन तो एक है, चाहे जहाँ लगाय।

चाहे हरि की भक्ति कर, चाहे विष कमाये॥

दुख में सुमरन सब करै, सुख में करें न कोय।

सुख में सुमिरन करै,तो दुख काहे होय॥

सभी रसायन हम करी, नहीं नाम सम कोय।

रंचक घट में संचरे, सब तन कंचन होय॥

हरि का सुमिरन छोड़ के, पाल्यो बहुत कुटम्ब।

धन्धा करते मर गया, भाई रहा न बन्ध॥

जगन से सोवन भलो, जो को जाने सोय।

अन्तर लव लागी रहै, सहजहि सुमिरन होय॥

पढ़ना गुनना चातुरी, यह तो बात सहल्ल।

कामदहन,मन बस करन, गगन चढ़न मुशकल॥

कबीर यह मन लालची, समझे नाहिं गवार।

भजन करने को आलसी, खाने को हुशियार॥

सुख के माथे सिल, पड़े, जो नाम हृदय से जाय।

बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम जपाय।

नाम जपत कन्या भली, साकित भला न पूत।

छेरी के गल गलथना, जामें दूध न मूत।

नाम जपत कुष्टी भली, चुइ चुइ पड़े जो चाम।

कंचन देही काम किस, जो मुख नाहीं नाम॥

मारग चलते जो गिरै, ताको नाहीं दोस।

कह कबीर बैठा रहै, ता सिर करडे कोस ॥

कहता हूँ कह जाता हूँ, कहाँ बजाऊ ढोल।

श्वास खाली जात है, तीन लोक का मोल॥

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।

ओरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय॥

हाड़ जलै ज्यो लाकड़ी, कैश जलै ज्यों घास।

सब जग जलता देखकर, भये कबीर उदास॥

तू’-तू करता तू भया, मुक्त में रहा न हूँ।

वारी तेरे नाम पर , जित देखूँ तित तूँ॥

तीरथ नहाए एक फल, सन्त मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार॥

जाको राखे साँइया, मार सके नहि कोय।

बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय॥

सुवर्ण की चोरी करे, करे सुई को दान।

ऊँचे चढ़ चढ़ देखहीं, आवत कहाँ विमान॥

कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर-पीर।

जे पर-पीर न जानहीं, सो काफिर बेपिर॥

तरुवर सरवर संतजन, चौथे बरसे मेह।

परमारथ के कारणे, चारों धरे देह॥

कबिरा कलियुग कठिन है, साध न मानै कोय।

कामी क्रोध मचखरा, तिनका आदर होय॥

प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि की सोय।

उत्तम प्रीति सो जानिये, जो सतगुरु सो होय॥

हीरा परखे जौहरी, शब्द को परखै साध।

जो कोई परखे साध को, ताकी मती अगाध॥

(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)

वार्षिक मूल्य 2॥) सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य एक अंक का।)


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