हत्यारी दहेज प्रथा का-नाश हो!

September 1950

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(श्रीमती सरोज मारुवीय)

हिन्दु समाज किसी समय अत्यन्त सुसंगठित था। आज उसकी अवनत दशा का कारण भले ही राजनीतिक हो, किन्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि उसमें इतनी बुराइयाँ भर गयी हैं कि ऐसा मालूम होता है यदि बुराइयाँ शीघ्र दूर न की गयीं, तो वह छिन्न-भिन्न होकर ही रहेगा। यदि भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी है और इस आधुनिक काल में भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को उपयोगी बनाना है तो बुराइयों, कुरीतियों और अन्धकार को दूर करना ही पड़ेगा। इससे सम्भव है लोगों, को पीड़ा हो, हानि उठानी पड़े, किन्तु थोड़े से लोगों के लिये उज्ज्वल भविष्य को चौपट होने देना कहाँ की बुद्धिमानी होगी? क्या पीड़ा के डर से लोग अपने शरीर के फोड़े का आपरेशन नहीं कराते? आपरेशन हो जाने पर क्या आजीवन उसके निशान बने रहने की सम्भावना नहीं रहती?

हिन्दू समाज में जहाँ अनेक बुराइयाँ, नाशकारी प्रथाएँ और प्रचलित धार्मिक मनोवृत्तियाँ हैं, वहाँ दहेज का लेन देन बड़े ही भयंकर और अनिष्टकर रूप में वर्तमान है। उसकी हानियाँ देख कर लोगों को रोमाँच क्यों नहीं होता? नवयुवकों में इसका नाश करने की प्रबल इच्छा क्यों नहीं उठती? यह समाज का देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा? जो नवयुवक बड़ी बड़ी गरम बातें करते हैं, सुधारवादी बनते हैं, जो छात्र जरा-जरा सी बात पर हड़ताल कर बैठते हैं, उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। यह देश की अजीब परिस्थिति का एक नमूना ही तो है। उच्च शिक्षा प्राप्त युवक भी जब निर्लज्ज होकर दहेज के लिये शादी करते दिखलायी पड़ते हैं, तब हम नारियों को पुरुष समाज के प्रति कितनी घृणा पैदा होती है, वह क्या लिखा जा सकता है।

भला ऐसी अवस्था में पुरुष-स्त्रियों को स्वतंत्रता देंगे? जब वे थोड़े से रुपये या मोटर-साइकिल के लिये इस प्रकार अड़ जाते हैं, जैसे वे आजादी के लिये सत्याग्रह कर रहे हों, तो शादियों की प्रथा और दहेज को त्याग देने की उनसे कौन सूखी आशा करेगा। होंगे वे देश के नौनिहाल, रहने दो उन्हें भावी भारत के भाग्य-विधाता। किन्तु स्त्री तो उनसे कुछ आशा नहीं करती।

अब कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि वधू का पिता अपनी लड़की को कुछ भी दे सकता है। यह पाखण्ड किसी से छिपा है क्या? एक लड़की को उसका पिता चाहे सर्वस्व उठाकर दे दे, किन्तु वर्तमान सामाजिक अवस्था में क्या उसका वह भोग कर सकती है, यदि उसे बहुत सा रुपया ही दे दिया जाय तो कौन कह सकता है कि वह कुछ दिनों में पुरुष के हाथ नहीं लग जाएगा। वे रुपया लेकर करेंगी क्या? इतनी शिक्षा नहीं, इतना ज्ञान नहीं कि वे पुरुषों की यथा समय सहायता करें, या सुझावें कि किस प्रकार धन का उपयोग किया जाना चाहिये, अपने लिये कुछ खरीद सकती ही नहीं, फिर पिता का दिया हुआ रुपया ही, कभी कभी उनके लिये भार हो जाता है।

किन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि पिता का रुपया न देना, उनके जीवन के लिये महान् कष्ट कर साबित होता है। गृह कलह और पति-पत्नी मत भेद का एक यह कारण भी तो है कि एक वधू घर से रुपये और गहने नहीं लायी। स्त्रियों को कुछ समय पहले यह भ्रान्ति थी कि उनके भाई पढ़ लिख कर इस प्रथा को दूर करेंगे। किन्तु नयी रोशनी के साथ साथ दहेज माँगने की नयी-नयी तरकीबें सोच निकाली गयीं।

स्त्री -समाज को दहेज की प्रथा से जो कष्ट मिलते हैं, वे तो मिलते ही हैं, पर स्वयं पुरुष इसे अच्छी तरह भुगतता है। इस लालच के कारण उसे प्रायः अनुकूल संगिनी नहीं मिलती और सदा के लिये थोड़े से रुपयों में वह अपना सारा जीवन, शाँति और सुख बेच डालता है। धन सब वस्तुएं नहीं ला सकता। स्वार्थान्धता तो इतनी तीव्र है कि अपनी बहिन के लिये वे उतना दहेज नहीं दे सकते और तब इस प्रथा की घोर-निन्दा की जाती है, किन्तु अपने आप पर उसे लागू नहीं कर सकते यह अनुमान नहीं वरन् इसके जीते जागते उदाहरण वे स्वयं मौजूद हैं।

कितनी ही योग्य बहिनें इस कुप्रथा के कारण कौमार्य जीवन व्यतीत कर जाती हैं। किसी का विवाह वृद्ध से हो गया और उन्होंने सदा के लिये वैधव्य स्वीकार कर लिया और भी कितनी बुराइयाँ इससे उत्पन्न होती हैं, यह तो सभी मानते हैं। उन्हें दोहराना अपने हृदय को कष्ट देना है।

दहेज की घातक प्रथा ने हिन्दु समाज में कुहराम मचा रखा है। न मालूम हिन्दु-समाज की कितनी भोली-भाली युवतियों को इस निरंकुश प्रथा की बलिवेदी पर बलिदान होना पड़ता है। फिर भी, समाज का पत्थर का दिल नहीं पसीजता। आखिर दहेज के नाम पर ऊँची- ऊँची रकम पा जाने से क्या कोई परिवार धनी हो जाता है? दहेज के लिये लड़की के परिवार को बर्बाद करने में क्या कोई वर-पक्ष दौलतमन्द या खुशहाल हो सकता है? अगर किसी परिवार को बर्बाद करने से ही खुशहाली नसीब होती हो तब तो अभी तक के नीति-शास्त्र की परिभाषा शायद गलत रही है।

इस दहेज के ही सम्बन्ध में थोड़े दिन हुए उज्जैन में एक बड़ी ही रोमाँचकारी घटना हुई थी। स्वर्गीय प्रिंसिपल ताटके की लड़की विवाह योग्य हो गई थी, उम्र 17 वर्ष की थी-बिलकुल तरुणी! लेकिन जहाँ उसके विवाह की बात चल रही थी वहाँ वे लोग दहेज में इतनी बड़ी रकम तलब कर रहे थे जिसे देने में कन्या पक्ष कतई असमर्थ था। किन्तु, वर पक्ष को लड़की के परिवार की स्थिति पर कुछ भी रहम न आया और वे अपनी माँग पर अड़े ही रहे। कन्या के सम्बन्धी हैरान और परेशान थे। वे कहाँ से इतनी बड़ी रकम लाते कि उसे देकर अपनी लड़की की शादी करते। परिवार में गमी छायी हुई थी। लड़की पढ़ी लिखी थी। उसने अपने दिल में महसूस किया कि वही अपने परिवार के दुख का कारण हो रही है। अगर वह न होती तो उसके परिवार को इतनी बड़ी परेशानी का शिकार न बनना पड़ता। उसने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया और आखिरकार अपनी साड़ी पर तेल डाल कर दियासलाई छुआ दी। अग्नि की लपटों में जल कर उसने बेरहम समाज के चंगुल में पड़ने से अपने को बचा लिया और अपने परिवार को आर्थिक कष्टों से बचा लिया। हिन्दु समाज की निरंकुशता पर, वही सती आज स्वर्ग में बैठी अट्टहास कर रही है।


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