फलाहार तथा शाकाहार।

September 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डॉक्टर लक्ष्मी नारायण टंडन ‘प्रेमी’ एम.ए. साहित्य-रत्न, एम.डी.)

प्राचीन समय में हमारे पूर्वज फल तथा शाकों का अधिक प्रयोग कर के स्वस्थ और दीर्घायु होते थे। आजकल भी योगी और महात्मा पर्वत की कन्दराओं में निवास करके फल, कंद, मूल तथा शाक भाजी पर ही निर्वाह करके दीर्घायु तथा स्वस्थ रहते हुए आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। साधारण गृहस्थ भी फलों का प्रयोग करके स्वस्थ निरोग, और दीर्घायु हो सकते हैं। क्योंकि फल पेट को साफ करते, खून को साफ करते तथा शरीर बनाने का काम करते हैं। यह खाने में स्वादिष्ट तथा शीघ्र पचने वाले होते हैं। विटामिन और प्राकृतिक लवणों की तो यह खान हैं। यों तो अनाज वर्ग, दूध वर्ग आदि में भी विटामिन और लवण होते हैं पर फलों में यह प्रचुर परिमाण में होते हैं। यह आमाशय की बढ़ी हुई खटाई को मारते, गुर्दे के मल को साफ करते तथा जिगर को शुद्ध करते हैं। फलों के फुजले से कब्ज दूर होता है। प्रतिदिन एक नियमित मात्रा में फल खाने से बड़ा लाभ होता है। नारंगी, नींबू, टमाटर, आदि खट्टे फल आमाशय में पहुँचते ही क्षार बन जाते हैं। मुँह में जाते ही बहुत कुछ पच जाते हैं और लार से मिलते ही इनके रस की शर्करा बन जाती है।

फलों के सम्बन्ध में कुछ जानने योग्य बातें यह हैं कि फलों के रस को यदि रखा जाय तो शीघ्र खराब होगा या फल काट कर रखा जाय तो खराब होगा, अतः रस तुरन्त पी लेना चाहिये, तथा काट कर तुरन्त खा लेना चाहिये। फल नये कोषाणु बनाते तथा एकत्रित खनिज पदार्थों को जो रोगों तथा वृद्धावस्था के कारण हो जाते हैं उसे धो डालते हैं। हो सके तो एक दिन एक ही फल खाएं और दूसरे दिन दूसरा फल। भोजन के एक दो घंटे पहिले भी फल खाएं और भोजन के साथ भी। मौसमी फल अवश्य खाएं क्योंकि इसमें उस ऋतु में उत्पन्न होने वाले रोगों का शमन करने की शक्ति होती है। फलाहार से आयु बढ़ती तथा चरबी छँटती और मोटापा कम होता है। यदि रक्त शोधन कराना हो तो अकेले फल खाएं-भोजन के साथ न खाएं। जैसे प्रातः केवल फल खाएं। केवल फलाहार ही, बिन किसी विशेषज्ञ की सलाह के न करें क्योंकि प्रायः आजकल के मनुष्यों का रुधिर और शरीर अशुद्ध और मल-भार से पूर्ण होता है और फल रुधिर की सफाई बहुत शीघ्रता से करते हैं। अतः प्रत्येक पर इसकी प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न रूप में होती है।

फलों में निर्वाह के लिए सब आवश्यक तत्व हैं जो फल कृत्रिम रूप से पकाये, सड़ाये, या सुखाये जाते हैं उनके उपयोग से अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। स्वाभाविक रूप से प्रकृति द्वारा पकाये फलों का उपयोग भी लाभदायक होता है। अच्छा हो चाकू का प्रयोग न हो। फल दाँतों से ही काटे जाएं। गन्दे, कच्चे, सड़े हुये, बासी फल हानिप्रद होते हैं। बहुत दिन के रखे हुए फल भी अपना प्रभाव खो बैठते हैं। फल स्नायु-रोगियों तथा चर्म रोगियों को तो विशेष हितकर होता है। यह विष बाहर निकाल देते हैं। नासूर, कैन्सर, मूत्राशय सम्बन्धी रोग, अम्ल-पित्त, सिर-दर्द के दौरे, टाइफ़ाइड कीटाणुओं द्वारा उत्पन्न रोग आदि में फल बड़े लाभप्रद हैं। फलों के रस की 6 से 7 छटाँक तक की मात्रा जिसमें जल न मिला हो प्रत्येक मनुष्य के लिये पर्याप्त है। वैसे ही आधे पाव सूखी मेवा 3 छटाँक सूखे फल, एक या डेढ़ सेर मौसमी ताजे फल एक मनुष्य के लिए बिलकुल पर्याप्त होते हैं। ग्रीष्म ऋतु में ताजे फल अधिक बढ़ावे और शरद ऋतु में सूखी मेवा अधिक और ताजे फल कम किये जा सकते हैं। फलों में पानी बहुत मात्रा में होता है। केवल फलाहार करने वाले को या तो पानी की आवश्यकता ही नहीं पड़ती या बहुत कम प्यास लगती है। मनुष्य यदि पका भोजन और नमक छोड़ दे तो उसे प्रायः प्यास लगे ही नहीं। प्यास तो अप्राकृतिक भोजनों तथा मसालेदार भोजनों से ही लगती है।

यदि पाचन खराब हो तो भोजन के साथ फल न खाकर कुछ समय पूर्व ही खाना चाहिए। एक विशेष याद रखने की बात यह है फलों में ठीक छिलके के नीचे, या ठीक बीजों के पास फलों का सत्व रहता है अतः फल छिलके समेत खायें। दूसरी बात यह है कि प्रायः फलों के बीजों में फलों के विपरीत गुण होते हैं। उदाहरण के लिये यदि किसी पदार्थ के उपभोग से अजीर्ण हो गया हो या हानि हुई हो तो उसके विपरीत वाला अवयव यदि दिया जाय तो अजीर्ण नष्ट हो जायगा जैसे खरबूजे का अजीर्ण खरबूजे के बीज, और खरबूजे के बीज का अजीर्ण, खरबूजे से दूर होता है। इस प्रकार प्रकृति ने प्रत्येक पदार्थ की दवा भी उसके पास ही रख दी है। तीसरे यह कि उबालने से फलों के रासायनिक गुण कम तो अवश्य हो जाते हैं पर उनमें विपरीत गुण नहीं आते।

कुछ फुटकर बातें।

1-केला खाली पेट कभी न खाएं। अधिक न खाएं। भारी होता है।

2-खीरे दो से अधिक न खाए। यह पुरुषत्व नाशक होता है तथा पथरी हो सकती है। खीरा, ककड़ी खा कर पानी पीने से हैजा तक हो सकता है।

3-बासी पेट नीबू का रस पीने से पेट, नेत्र, पथरी और निर्बलता में बड़ा लाभ होता है। अधिक प्रयोग से दिल कमजोर होता तथा दाँत की चमक जाती है।

4-आम के ऊपर दूध पीयें तो वीर्य-वर्धक है। आम का कल्प होता है।

5-निराहार अमरूद खाएं। अजीर्ण के रोगी भोजन उपरान्त खायें। साबुत बीज पेट में जाने से एपेनडी-साइटिस का डर रहता है।

6-कच्चे बेर खाने से हैजा होता है। बेर भी अधिक न खाएं। पके बेर यदि 12 घंटे पानी में भिगोकर उसका पानी पियें और बेर खाएं तो दूध सा लाभ हो।

7-मूली पर गुड़ खाने से लाभ होता है।

8-खरबूजे के ऊपर दूध पीने से हैजा हो सकता है पर शरबत पीने से उसके दोष नाश होते हैं।

9-पके कटहल के कोए के ऊपर पान खाने से विष का प्रभाव होता है। और पका कटहल क्षय नाशक है।

10-चिलगोजा अत्यन्त कफ वर्धक होता है।

11-कच्चा सिंघाड़ा पसीने के सब रोग नष्ट करता है।

12-कमरख को, दूध, अंगूर, मुनक्का, गूजर आदि के साथ नहीं खाना चाहिये।

13-कसेरु रक्त-पित्त नाशक है, रक्त के विकारों को दूर करता है।

14-पान का डंठल तथा बीच की नस विष तुल्य होती है।

15-खजूर के ऊपर मट्ठा पीने से उसकी गर्मी का शमन होता है।

शाकाहार।

जो कुछ फलों के विषय में कहा जा चुका है, बहुत कुछ वह शाकों के बारे में भी लागू होता है। खीरा, ककड़ी, गाजर, मूली, पालक, गोभी, करमकल्ला, सलाद आदि अनेक शाक, तरकारियाँ कच्ची भी खाई जाती हैं। इन्हें कच्ची ही खाना चाहिये। पकाने से इनके विटामिन नष्ट हो जाते हैं या बहुत कम हो जाते हैं। अर्थात् अपनी बहुत कुछ शक्ति खो बैठते हैं। प्राकृतिक लवण भी इनके या तो उड़ जाते हैं या पानी में आ जाते हैं। यदि तरकारियाँ पकाई ही जाएं तो वह भूनी और तली न जाएं। उन्हें केवल उबाल लें। एक बात का विशेष ध्यान रखे और वह यह कि तरकारियाँ हल्की आँच में और भाप में उबालें। चूल्हे पर चढ़ा कर बर्तन इस प्रकार तश्तरी-कटोरी आदि से ढक दिया जाय कि उसकी भाप न निकलने पावे, अन्यथा भाप के साथ लवण भी बहुत कुछ उड़ जायेंगे शाक, तरकारियों में बहुत मसाला आदि न डाला जाय अन्यथा उसका प्राकृतिक स्वाद नष्ट हो जाता है। शाक या तरकारी जिस पानी में उबाला जाय वह पानी फेंक न दिया जाय क्योंकि प्राकृतिक लवण तो उसी में आ जाते हैं और वह पानी ही तो मुख्य और महत्वपूर्ण वस्तु है। जिन तरकारियों के छिलके मोटे न हों तथा जो प्राकृतिक रूप में चिपके हों। जैसे परवल, तोरई, बैंगन आदि। उनके छिलके न काटे जायं। जिन तरकारियों के छिलके अलग किये ही जाएं वह बहुत ही सँभाल कर अलग किया जाएं क्योंकि बताया जा चुका है कि छिलके के ठीक नीचे ही उनका प्रमुख तत्व होता है। उदाहरणार्थ यदि आलू उबाला ही जाय तो हल्के से उसका छिलका अलग करके फेंक दिया जाय। यदि कच्चे आलू ही का छिलका चाकू से छीला जायेगा तो छिलके के नीचे वाले लवण और विटामिन बहुत कुछ व्यर्थ फिक जाएंगे।

कुछ तरकारियाँ जैसे लौकी, तोरई आदि कच्ची भी खाई जा सकती हैं किन्तु जिनके मेदे कमजोर हैं उन्हें कच्ची तरकारियाँ हजम करना संभव नहीं अतः उबाली हुई तरकारियाँ खाना ही उचित है। कुछ तरकारियाँ तो कच्ची खाना ही नहीं चाहिये। उनका हजम करना आजकल के मनुष्य का काम नहीं। जैसे आलू में स्टार्च इतना अधिक होता है जितने की आवश्यकता मनुष्य को नहीं। आलू उबालने से बहुत कुछ उसका स्टार्च जल जाता है और जितना शेष रहता है उतना मनुष्य के लिये आवश्यक और उपयोगी है।

अच्छा हो तरकारियों में नमक डाले ही नहीं और यदि डालें भी तो बहुत हल्का। तरकारियाँ और शाक बहुत शीघ्र पच तो जाते ही हैं, विटामिन और प्राकृतिक लवणों की खान भी हैं, उनके फुजले भी बड़े लाभ के होते हैं। आँतों की सफाई करने, मल बाँध कर पैखाना निकालने में वह बड़े सहायक सिद्ध होते हैं।

कुछ भारी बादी तरकारियाँ जैसे हरा कद्दू, घुइयाँ आदि का नित्य प्रयोग अस्वस्थ तथा निर्बल मनुष्य के लिये उचित नहीं। इनका प्रयोग न करे या नहीं के बराबर करें।

भोजन में तरकारी शाक का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करना चाहिए। तरकारी-शाक का उपयोग केवल इसी दृष्टिकोण से नहीं करना चाहिये कि उनके साथ से भोजन स्वादिष्ट और रुचिकर हो जाता है वरन् इस दृष्टिकोण से भी करना चाहिए कि स्वास्थ्य रक्षा के लिये उनकी अवहेलना असंभव है। उनका कम मात्रा में प्रयोग हानिप्रद सिद्ध हो सकता है।

हो सकता है, निर्धन मनुष्य फल न खा सकें। किन्तु मौसमी सस्ते फल बेर, रसभरी, जामुन, आम, खरबूजा, अमरूद, फालसा, शहतूत, आदि तो अंगूर, अनार, सेब, संतरा, मौसम्बी आदि की अपेक्षा सस्ते भी होते हैं। अतः इनका प्रयोग सर्वसाधारण कर सकते हैं। जिनको अर्थाभाव के कारण यह भी संभव न हो वह शाक-तरकारी का तो प्रयोग कर ही सकते हैं। मौसमी शाक-तरकारियाँ तो काफी सस्ती हो जाती हैं। यदि मनुष्य यह भी न कर सके या न करना चाहे तो उसका केवल ईश्वर ही रक्षक है।

मनुष्य के शरीर में अप्राकृतिक जीवन बिताने, जीभ के बस में होने, गलत रहन-सहन, अनुचित आहार-विहार आदि के कारण विजातीय पदार्थों मलों तथा एक प्रकार के श्लेष्मा का जमाव हो जाता है और इस श्लेष्मा का अस्तित्व और अधिकता ही रोगों की जड़ होती है। फल और शाक तरकारियों के खाने से यह श्लेष्मा (म्यूकस) बनना ही बंद नहीं हो जाता, वरन् पहले के एकत्रित विष म्यूकस और शरीर के अंदर मौजूद अवांछनीय पदार्थ भी निकलने लगते हैं। अतः फलों और शाक भाजी के महत्व और उपयोग पर जितना अधिक जोर दिया जाए कम है। यदि हम अनुचित समय में भोजन, अनुचित मात्रा में भोजन, अनुचित भोजनों के संमिश्रण और अवांछनीय खाद्य पदार्थों से अपने को नहीं रोक सकते तो फल और शाक-तरकारियों का भी साथ-साथ उपयोग जारी रखने पर बहुत कुछ अपनी गलतियों और उसके परिणामों में कमी कर सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118