मानवता का अभिमान

September 1950

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(श्री मनोहर लाल जी श्रीमान)

मैं गरीब हूँ बेशक, माना पैसे का अभिमान नहीं है।

तो क्या मानव होने का भी मुझको थोड़ा ज्ञान नहीं है॥

मिट्टी की काया पर मेरी चढ़ा नहीं सोने का पानी,

तो क्या मिट्टी और कनक की मुझको कुछ पहचान नहीं है॥

दौलत की आंखों में हँसती है यदि उन्मादों की दुनिया,

निर्धनता के प्राणों में क्या मुस्काता भगवान नहीं है।

धनिकों की महफिल में जुटते गायन वादन के सब साधन,

सड़कों पर गाने को मेरी साँसों में क्या गान नहीं है?

बंगलों की आंखों के आगे हँसती है सतरंगी कलियाँ,

आँगन में मेरे सरसों की क्या फली मुस्कान नहीं है॥

यह माना विद्युत ने जग को अनहोना आलोक दिया है।

तो क्या दीपशिखा में बाकी जलने का अरमान नहीं है।

अमीरों ने पीयूष पिया पर अमर कहाँ वे हो पाये हैं,

विषपायी के यश का कारण क्या उसका विषपान नहीं है॥

-हिन्दुस्तान


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