भगवान का असीम दान

July 1950

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आज हमारे पास जो कुछ है भले ही उसे तुम्हारी बुद्धि ने, तुम्हारे श्रम ने कमाया हो, परन्तु उसको देने वाली न तुम्हारी बुद्धि है और न तुम्हारा श्रम। तुमसे भी बड़े-बड़े बुद्धिमान दुनिया में हैं और तुमसे भी अधिक श्रम करने वाले दुनिया में हैं लेकिन तुम्हारी कमाई उनसे भिन्न है। यदि सब कुछ बुद्धि या श्रम होती तो करने वालों की कमाई एक जैसी होती लेकिन ऐसा नहीं देखा जाता इससे स्पष्ट हो जाता है कि देने वाला तो कोई और ही है, हाँ देने के रास्ते बुद्धि या श्रम हैं। लेकिन यह देने वाला है कौन?

प्रायः सुना जाता है और देखा भी गया है कि जब मनुष्य का बुद्धिबल, श्रमबल, धनबल थक जाता है या चुक जाता है तब वह अपने लिए भगवान से माँगता है, और यह माँग उसकी पूरी होती है। लेकिन भगवान से हम चाहे माँगे चाहे न माँगे भगवान तो निरंतर हमें दे रहे हैं। हाँ यदि हम माँगेंगे तो हमें जो कुछ मिलेगा उसका ज्ञान रहेगा, यदि माँगेंगे नहीं तो भी जो कुछ मिलेगा उसके देने वाले भगवान ही होंगे, भले ही उसकी प्राप्ति में हम अपने ही किसी पुरुषार्थ को शामिल कर लें परन्तु इस पुरुषार्थ रूपी चित्रित पदार्थ के दाता भी तो एक मात्र भगवान ही हैं।

पहली चीज तो यह है कि भगवान स्वयं ही दाता रूप से मानव के अन्तस्तल में, हृदय देश में बैठे हुये मनुष्य की सारी कामनाएं पूरी करते रहते हैं। जब प्राणी मात्र को उत्पन्न करने वाले स्वयं भगवान हैं तब उसका भरण पोषण भी तो वे करेंगे। और करते हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। जब प्राणी का जन्म होता है तब उसके योग क्षेम के लिए माता के स्तनों में दूध उत्पन्न कर देते हैं। यदि दूध वे उत्पन्न नहीं करते तो कौन सी प्रक्रिया है जिससे माँ के स्तनों से दूध भर दिया जाता है। क्या किसी मानव ने या किसी वैज्ञानिक ने ऐसा कोई आविष्कार किया है जिससे मानव यंत्र बनाकर उसमें अपने आप उत्पन्न होने वाले दूध को भर दिया हो।

मस्तिष्क में बुद्धि, मन आदि तत्वों को देकर प्राणी को क्रियावान् बनाना भगवान की प्राणी को महत्वपूर्ण देन है। शरीर में बल का संचार कौन कर जाता है जिसमें शरीर क्रियावान् होकर काम धाम करता है। उपयोग में आने वाले हवा-पानी-अग्नि को किसने बनाया है। क्या कोई व्यक्ति इन्हें बना सकता है। मनुष्य में ज्ञान की भावना को उत्पन्न करने वाला सिवाय भगवान के और कौन हो सकता है। तात्पर्य यह है कि देने में भगवान ने कतई कंजूसी का उपयोग नहीं किया। उन्होंने जो कुछ दिया है और सृष्टि में जो कुछ बनाया है, वह सारा का सारा मुक्त हस्त होकर प्राणी के उपभोग के लिए दे डाला है।

प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर जीवन और जीवनी शक्तियाँ बीज रूप से भगवान ने दे डाली हैं। बीज का जब तक उपयोग न किया जावे, जब तक उसकी शक्तियों को जगाया न जावे तब तक वह मूर्च्छित अवस्था में ही रहता है। मनुष्य के पास भगवान ने जो कुछ दिया है, वह महान है, अनन्त है लेकिन मूर्च्छित अवस्था में जो, उसे जगा कर उसका उपयोग करना जानते हैं, दुनिया में उनके लिए किसी प्रकार का भी अभाव नहीं रहता लेकिन जो बिना जगाये हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, वे भगवान की कृपा के अनाधिकारी होने के कारण उनकी दी हुई शक्ति को अपने लिए पंगु बना डालते हैं।

भगवान पूर्ण हैं और शक्ति के खजाने हैं जितनी शक्तियाँ भगवान में हैं, जो काम भगवान कर सकते हैं उन सबको बीज रूप से भगवान ने प्राणी को दे डाला है। इसीलिए उसके अन्दर अगाध ज्ञान का भंडार है, अगाध कर्म शक्ति है। जिस प्रकार माँ के स्तनों से दूध का भंडार भरा रहता है पर बालक जब तक उन्हें अपने मुँह से लगाकर उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करता है तब तक स्तनों में दूध भरा रहने पर भी बच्चे को वह प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार कर्म शक्ति और ज्ञान शक्ति का निवास होने पर भी जब तक उनको दुहने की कला से प्राणी अपरिचित रहता है, तब तक भगवान की इस दिव्य देन का वह उपयोग नहीं कर पाता।

जिसे कि हम शिक्षा कहते हैं, वह भगवान की दी हुई शक्तियों को जो कि प्रत्येक प्राणी में बीज रूप से मूर्च्छित अवस्था में मौजूद है, उनको जगा-कर काम में लेने की विद्या सिखाती है। उपयोग में लाने की कला का हमें जितना अधिक ज्ञान होगा प्राप्त शक्तियों को जगाकर हम उतनी ही अधिक शक्तिमान हो सकते हैं।

यह हम पर ही निर्भर है कि हम उन शक्तियों का कितना उपयोग कर सकते हैं। भगवान ने शक्तियों का दान देने में किसी पक्षपात का आश्रय नहीं लिया है उन्होंने जो कुछ दिया है, समस्त प्राणियों को समान रूप से दिया है जैसे कि एक पिता अपने पुत्र को अपनी संपत्ति का बंटवारा समान रूप से करता है। लेकिन संपत्ति की रक्षा करना पिता पर ही नहीं पुत्र पर भी निर्भर करता है। कोई पुत्र संपत्ति को चौगुनी अठगुनी या सौ गुनी अधिक कर लेता है और कोई अपना सर्वस्व तक खो देता है। इसी प्रकार भगवान से पाई हुई शक्तियों का हाल है। जो उन शक्तियों को जगाकर उनका उपयोग करते हैं वे संसार के महान से महान व्यक्ति बन जाते हैं पर जो उन शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं वे पतन के गहरे गड्ढ़े में गिर पड़ते हैं तथा जो उन्हें जगाते ही नहीं, वो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते तथा भगवान को अथवा अपने भाग्य को कोसते रहते हैं वे अकर्मणा पुरुष दुनिया में जैसे आते हैं वैसे ही चले जाते हैं। उनकी वे शक्तियाँ उनके साथ ही सुप्तावस्था में समाप्त हो जाती हैं।

दान दाता ने तो प्राणी को इतना दिया है कि फिर उसे कही से कुछ भी माँगने अथवा पाने की आवश्यकता नहीं है लेकिन मूढ़ता एवं अज्ञानतावश प्राणी आज भी भिखारी बना हुआ है। उसने अपनी भीतर के अपार श्रद्धा स्रोत को सुखा कर भगवान की ओर से पीठ फेर ली है। जो शक्ति मानव के भीतर भरी हुई है और बाहर निकल कर उसे माला माल कर देने के लिए उछल रही है उसकी उपेक्षा करके मानव दर दर का भिखारी न बनेगा तो और क्या करेगा? भगवान को भूल कर उनकी शक्तियों को जागृत कर लेना कदापि संभव नहीं है। जिस दाता ने अपनी संपत्ति का दान दिया है उसकी कुँजी उसने अपने ही पास रख छोड़ी है और वह तभी प्राप्त हो सकती है जब मनुष्य श्रद्धा पूर्वक उसकी ओर मुड़े। क्या कोई बालक माँ की ओर पीठ फेर कर उसके स्तनों से दूध प्राप्त कर सकता है? दूध पाने के लिए सिर्फ रोना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि माँ की ओर मुँह करके स्तन चूसना भी आवश्यक हो जाता है। यही उसके उपयोग करने का तरीका तथा सोती हुई शक्तियों को जगाने का ढंग है। भगवान की ओर मुड़ कर श्रद्धापूर्वक उसके साथ सम्बन्ध स्थापित करके ही मनुष्य भगवान की दी हुई शक्तियों को जाग्रत कर सकता है।

भगवान की शक्तियाँ जब भगवान के साथ सम्बन्ध स्थापित करके जाग्रत कर ली जाती है और उनका उपयोग भगवान के लिए ही किया जाता है तो मनुष्य में अनेक दैवी गुणों की उत्पत्ति होना आरंभ हो जाता है। जैसे जैसे इन गुणों की वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे मनुष्य का हृदय दैवी भावनाओं से भर जाता है, यहाँ तक कि एक दिन ऐसा आता है जब कि वह भगवान के निवास करने की दिव्य पीठ बन जाता है, उस समय मनुष्य आनन्द की मूर्ति बना हुआ अपने आस-पास के सभी प्राणियों को मुक्त हस्त होकर आनन्द का वितरण करता है। तब दुःख और शोक नष्ट होकर भगवान के ताल स्वर के साथ मनुष्य अपने ताल स्वर को मिला कर नाचता हुआ अपनी जीवन लीला का संवरण करता है।

भगवान की सम्पत्ति पा लेने पर भी जो भगवान के लिए व्यय करने में कोताही करते हैं या उससे मुँह मोड़ लेते हैं, वे देकर विकास करने की कला से अनभिज्ञ रहने के कारण प्राप्त सम्पत्ति को निरंतर संकुचित करते रहते हैं और एक दिन ऐसा होता है जब कि उनके पास कुछ भी नहीं बचा रहता है।

जितनी सम्पत्ति है, जितनी शक्तियाँ हैं-समस्त भगवान की है, भगवान ने ही उसे दिया है लेकिन भगवान को भूलकर अज्ञानी लोग अपने अहंकार से देने की क्रिया भुलाकर अपने आनन्द को नित्य प्रति खोते रहते हैं और अपने लिए शोक और दुःख का बीज बोते रहते हैं। दाता की सम्पत्ति का उसकी इच्छानुसार वितरण न करके मनुष्य अपने इस लोक के सुखों से तो वंचित होता ही है साथ-साथ परलोक को भी बिगाड़ देता है।

भगवान ने संसार के समस्त प्राणियों को अपार आनन्द शक्ति का दान किया है लेकिन मानव अपनी ही मूढ़ता से उसका वितरण न करके उसे खो बैठता है। बिना वितरण किये उसे स्वयं भी आनन्द का अनुभव नहीं हो पाता। इस प्रकार वह नित्य प्रति मृत्यु का आह्वान करता रहता है। लेकिन मानव जीवन का लक्ष्य मृत्यु नहीं है, लक्ष्य में अमरता। परन्तु भगवान को भुलाकर जहाँ वह उनकी देन को ठुकराता है वहाँ वह अपने लक्ष्य से भी हट जाता है।


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