महात्मा गान्धी की अमृत वाणी

July 1950

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-प्रजा को, निर्बल को, सता कर कोई पुण्यवान् नहीं होता, जिसे पापी होना हो उसे पाप करने का अख़्तियार है। पाप होने की आजादी होने पर भी जो पाप नहीं करता वही पुण्यवान कहलाता है और उसी से देश का लाभ होता है।

-जो अपराध हमने किये हैं उनसे भली भाँति घृणा न करें, तब तक दूसरे के दोष देखने या बताने का हमें हक ही नहीं हो सकता।

-चाहे जितना गुस्से का कारण मिलने पर भी जो मनुष्य गुस्से के आधीन न होकर-नुकसान नहीं करता-वही जीतता है। उसी ने नियम का पालन किया कहा जायगा।

-जो मदद बदला चाहे वह भाड़े की मदद है। भाड़े की मदद भाई-चारे का चिन्ह नहीं कहाती। मिलावट की सीमेंट जैसे पत्थर नहीं जोड़ सकती उसी तरह “किराये की मदद से भाई बन्दी नहीं होती।”

-एक पशु दूसरे को केवल अपने शारीरिक बल से ही वश में कर लेता है। उसकी जाति का यही कायदा है। मनुष्य-जाति का स्वाभाविक कायदा प्रेम-बल से-आत्मिक-बल से-दूसरे को जीतने का है।

-क्रोध के आवेश में आकर जब मनुष्य दूसरे पर प्रहार करता है, तब वह आप परास्त होता है, और अपना सामना करने वाले का अपराधी होता है। जब मनुष्य क्रोध से पीड़ित होकर अपने आप दुःख सहन करता है तब वह अपने ऊपर पवित्र असर पैदा करता है।

-क्षत्रियता सीखने के लिये पुष्ट शरीर की (उतनी) जरूरत नहीं पर मजबूत निडर दिल की जरूरत है। क्रूरता-कठोरता-क्षत्रियता का गुण नहीं परन्तु सहनशीलता, क्षमा, दया, उदारता, अ-पलायन और मूसलाधार मेघ बरसता हो तब भी स्थिर होकर निर्भयता से खड़े रहने की शक्ति में क्षत्रियता है।

-सबल की सबलता विरोधी को प्रेम से जीत लेने में है, मद से कुचल डालने में नहीं।

-पवित्र और ईमानदार मनुष्य, अपने आप जिसको न्याय मान लिया, उसके लिये, हमेशा अपने भोग देने को तैयार रहता है। क्या तुम तैयार हो? अपना आराम, अपना आनन्द, अपना व्यापार, अपना जीवन तक, न्याय प्राप्त करने को दे देने के लिये तुम तैयार हो? जो ऐसे हो तो तुम सत्याग्रही हो और तुम जीतोगे ही।

-केवल शान्ति और अटल निश्चय का मिलाप जब न्याय-पूर्ण कारण के साथ होता है तब उसके परिणाम में सदा विजय ही होती है। न्याय के लिये मरना-मनुष्य का नियम है, मारना जानवर का नियम है।

-जैसे जुल्म और न्याय का विरोध करना अपना धर्म है, उसी तरह जुल्म करने वाले से द्वेष न करना अपना धर्म है।

-जो मैं अन्यायी को सहायता दूँ तो मैं अन्याय में शामिल होऊं। इस कारण अन्याय का स्वरूप जब उग्र हो तब सहायता बन्द करना हमारा धर्म है।

-जिस धर्म की सीमा देह में या क्षेत्र में हो उसे मैं नहीं मानता। इसे सिद्ध करने में मैं समर्थ होऊं-यह मेरी प्रभु से प्रार्थना है।

-तमोगुण का लक्षण ही यह है कि उसमें किसी भोग का त्याग न करना पड़े, कैसी भी कठिनता न सहन करनी पड़े।

-विपत्ति अपराधों की दासी नहीं होती।


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