गायत्री का वैज्ञानिक आधार

July 1950

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भगवान की अनन्त शक्तियां हैं। उनमें से कुछ हमारे लिए अनुकूल और कुछ प्रतिकूल पड़ती हैं। भगवान ने सिंह व्याघ्र भी बनाये हैं और गाय घोड़े भी। सृष्टि में सिंह व्याघ्र की भी उपयोगिता है परन्तु वे मनुष्य के लिए तो प्रतिकूल ही पड़ते हैं। पशुओं की सहस्रों जातियों में से केवल गाय सब से अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। वृक्ष वनस्पतियों को भी भगवान ने ही बनाया है पर उनमें से बहुत से तो विषैले, कटीले और कष्टदायक होने से प्रतिकूल हैं। फल, अन्न, फुलवारी, औषधि आदि के पौधे मनुष्य के लिये उपयोगी पड़ते हैं और वे सावधानी के साथ पाले पोसे जाते हैं।

ईश्वर की अगणित अदृश्य दैवी शक्तियों में कितनी ही ऐसी हैं जो हमारे लिए उपयोगी नहीं पड़तीं। भूकम्प, वज्रपात, विस्फोट, युद्ध, महामारी, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, दाह, अग्निकाँड, संहार, एवं टिड्डी मूषक आदि की उत्पादक ऐसी अनेक शक्तियाँ हैं जिनमें सृष्टि का कोई और प्रयोजन भले ही पूरा होता हो पर मनुष्य को त्रास ही मिलता है। मानव प्राणी के लिए तो वही शक्तियाँ उपयोगी होती हैं जो उसकी समृद्धि और सुख शान्ति में सहायक होती है। सूर्य भी शक्तियों का भंडार है। उस की किरणों का विश्लेषण कर वैज्ञानिकों ने प्राण घातक “मृत्यु किरण” उपलब्ध की है। साथ ही अल्ट्रावायलेट, अल्फा वायलेट, एक्स रेज, ओजोन आदि ऐसी किरणें भी ढूंढ़ निकाली गई हैं जो असाध्य रोगियों को प्राण दान कर सकती हैं।

संसार में जो कुछ है वह सभी हमारे लिए हितकर नहीं है। अपने लाभ की वस्तुओं को हमें ढूंढ़ना होता है, यह पहचानना होता है और प्रयत्न पूर्वक उनको अधिक मात्रा में उपलब्ध करके उपयोग करना होता है तब हम ईश्वर की अगणित लाभदायक वस्तुओं से सुख प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। गाय, घोड़े, अन्न, फल, औषधि, कपास, खनिज द्रव्य, धातुएं, रत्न आदि को प्राप्त करने के लिए मनुष्य प्रयत्नशील रह कर सुख समृद्धि का अधिकारी हुआ है। यदि उसने इनकी ओर उपेक्षा बरती होती या हानिकार वस्तुओं से जा उलझना होता तो हानि, दुख, दुर्भाग्य, संकट और नाश के अतिरिक्त और कुछ हाथ न आता।

संसार स्थूल और सूक्ष्म दो भागों में बँटा हुआ है। स्थूल पदार्थ वे हैं जो आँखों से दिखाई पड़ते हैं। सूक्ष्म वे हैं जो आँखों से दिखाई नहीं पड़ते फिर भी उनका अस्तित्व मौजूद है। सर्दी, गर्मी, वायु, ईथर, शुद्ध, विद्युत, परमाणु, रोग कीट, रेडियो तरंगें आदि अदृश्य होते हुए भी दृश्य के समान ही मौजूद हैं। मृत्यु होने पर आत्मा शरीर से निकल जाता है फिर भी वह अदृश्य रूप से मौजूद रहता है।

ईश्वर की ऐसी ही अनेक अदृश्य शक्तियाँ हैं उन्हें योग शास्त्र और अभ्यास विद्या के वैज्ञानिक आचार्यों ने अपनी सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से देखा और समझा है। और गुणों के आधार पर उनका नाम रूप स्थिर किया है। इन्हीं का नाम देवता है। ईश्वर की धन शक्ति को लक्ष्मी, बुद्धि शक्ति को सरस्वती, युद्ध शक्ति को दुर्गा, उत्पादन शक्ति को ब्रह्म, पालन शक्ति को विष्णु, संहार शक्ति को शिव, बाल शक्ति को हनुमान, सिद्धि शक्ति को गणेश, शासन शक्ति को इन्द्र कहते हैं, उनसे संबंध स्थापन करने का उनको अधिक समीप लाकर लाभ उठाने का जो प्रयत्न किया जाता है उस प्रयत्न का नाम ही देवी वासना है।

जैसे गाय सब पशुओं में, गंगा सब नदियों में, तुलसी सब औषधियों में हमारे लिए विशेष लाभदायक हैं वैसे ही ईश्वर की गुप्त दैवी शक्तियों में गायत्री शक्ति मनुष्य जाति के लिए सब से अधिक उपयोगी है। गायत्री वह ज्ञानमयी अदृश्य चेतना है जिसमें सात्विकता, शान्ति और आनन्द का प्रधान अंश है। गायत्री त्रिपदा कही जाती है। ह्रीं-अर्थात् ज्ञान, बुद्धि, विवेक, प्रेम संयम, सदाचार। श्रीं-अर्थात् धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, भोग, ऐश्वर्य। क्लीं-अर्थात् स्वास्थ्य बल, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ, तेज। इन तीन विशेषताओं वाली त्रिगुणात्मक ईश्वरीय शक्ति ही गायत्री है। चूँकि यह तीनों ही तत्व मनुष्य के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक हैं इसलिए ऋषियों ने गायत्री उपासना को भी वैसा ही आवश्यक नित्य कर्म बताया है जैसा साँस लेना, अन्न जल ग्रहण करना, शौच स्नान से निपटना एवं निद्रा लेना आवश्यक है। इन क्रियाओं से शरीर की रक्षा एवं वृद्धि होती है। गायत्री उपासना से आत्मबल की रक्षा और अभिवृद्धि का लाभ मिलता है।

शरीर परिपुष्ट, सबल, सतेज, स्वस्थ सक्षम हो तो उस शारीरिक बल के बदले में अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। शत्रुओं को पछाड़ना, कड़ी मेहनत करके अधिक कमाना, दूर-दूर की यात्राएं कर लेना, रोगों से बचे रहना, दीर्घजीवी होना, सौंदर्य कायम रहना, इन्द्रिय भोगों का भरपूर आनन्द उठाना, किसी की सहायता के लिए आश्रित न होना, आदि अनेकों लाभ शारीरिक बल के हैं। उन लाभों का कितना महत्व है इस बात को वह समझता है जिसने अपना स्वास्थ्य गँवा दिया है और रोज-रोज की शारीरिक पीड़ा, बेचैनी, हानि, एवं असफलताओं की दुर्भाग्यपूर्ण निराशा से दुखी रहता है। आत्मिक बल तो शरीर बल से और भी अधिक महत्वपूर्ण है उसके लाभों की गणना नहीं हो सकती। मनुष्य जीवन में जितना सुख दुख है उसमें तीन चौथाई मानसिक और एक चौथाई शारीरिक होता है। स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, यश, पद, प्रतिष्ठा, नेतृत्व, वैभव आदि के सुख वस्तुतः मानसिक सुख हैं। शरीर को इनसे कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता। इसी प्रकार शोक, वियोग, हानि, भय, चिन्ता, तृष्णा, अपमान, पराजय, असफलता आदि के दुख भी मानसिक हैं। शरीर स्वस्थ होते हुए भी मन में यह रोग लगे रह सकते हैं। आत्मिक बल बढ़ जाने से मानसिक सुखों में वृद्धि और दुःखों में कमी होने का क्रम चल पड़ता है। फलस्वरूप गायत्री साधना द्वारा आत्मिक बल की वृद्धि कर लेने वाला मनुष्य अनायास ही दुखों से छुटकारा पाकर सुख शान्ति की ओर अग्रसर होता रहता है।

स्थूल वस्तुओं की सहायता से स्थूल वस्तुएं पकड़ने की विधि को सब लोग जानते हैं। हाथ से कलम पकड़ना, पैर को जूते में घुसा देना, चिमटी से अग्नि उठाना, परिश्रम से पैसा कमाना, रुपये से वस्तुएं खरीदना सभी को मालूम है, पर अदृश्य को अपने लाभ के लिए किस प्रकार प्रयुक्त किया जाय, इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को होती है। वैज्ञानिक आविष्कारों से पूर्व भी बिजली, भाप गैस, परमाणु आदि की शक्तियाँ मौजूद थीं पर लोग उनको पकड़ना और प्रयोग करना न जानते थे फलस्वरूप उनके लाभों से वंचित थे। वैज्ञानिकों ने किसी नई शक्ति का निर्माण नहीं किया है केवल उनसे लाभ उठाने की विधि का आविष्कारों से सर्वत्र लाभ उठाया जा रहा है। दैवी शक्तियाँ भाप-बिजली गैस, अणु आदि से भी सूक्ष्म होने के कारण यंत्रों की पकड़ में नहीं है फिर भी ऐसी तरकीबें हैं जिनके द्वारा उन्हें पकड़ा जा सकता है और उनसे लाभ उठाया जा सकता है। अध्यात्म विद्या, योग साधना ऐसी ही वैज्ञानिक पद्धतियाँ हैं जिनका आविष्कार हमारे पूजनीय पूर्वजों ने युगों तक घोर अध्यवसाय करने के उपरान्त किया था।

ऋषियों ने यह देखा कि सूक्ष्म शक्तियाँ उस जाति की हैं जिस जाति की हमारी आत्मा है। इसलिए आत्मा को ही ऐसी विशेष परिस्थिति में ढाला जाय जो उन दिव्य शक्तियों के अनुकूल हो इस प्रकार उन दोनों में साम्य एवं चुम्बकत्व उत्पन्न होने से पकड़ना संभव हो सकेगा। आत्म विद्या के अनेक वैज्ञानिक-ऋषि सहस्रों वर्षों के उत्कट प्रयत्न और अध्यवसाय के साथ इस संबंध में शोध करते रहे और अन्त में उन्हें सफलता मिली। उन्होंने वह तरीके ढूंढ़ निकाले जिनके आधार पर अपनी आन्तरिक सत्ता को ऐसी योग्यताओं एवं विशेषताओं में ढाल लिया जाता है कि जिस दैवी शक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करना हो तद्नुकूल बन कर उसे अपने चुम्बकत्व द्वारा पकड़ सकेगा। जमा हुआ मोम, तेल में नहीं मिलता पर यदि मोम को अग्नि पर पिघला दिया जाय तो वह तेल में घुल जायगा। इसी प्रकार दैवी सूक्ष्म शक्तियाँ साधारणतया हर किसी को प्राप्त नहीं होतीं पर यदि साधना द्वारा अन्तस्तल को पिघला दिया जाय तो वह शक्ति आत्मसात हो सकती है। इसी विधि व्यवस्था को, क्रिया को आध्यात्मिक भाषा में “साधना” कहते हैं।

योग महाविज्ञान के आधार पर अब तक असंख्य व्यक्तियों ने ईश्वर की अभीष्ट शक्तियों को प्राप्त करने योग्य आत्म निर्माण किया है, प्राचीन इतिहास पुराणों में ऐसे अनेक वर्णन आते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि भिन्न देवताओं की, भिन्न विधियों से साधना करके अनेक व्यक्तियों ने भिन्न वरदान पाये थे। इसका अर्थ है उन लोगों ने साधना द्वारा अपनी अन्तः चेतना को इस योग्य बनाया था कि ईश्वर की अभीष्ट शक्ति को वे पकड़ सके और उससे लाभ उठा सके । गायत्री साधना एक वैज्ञानिक पद्धति है इसके द्वारा ईश्वर की ह्रीं, श्रीं, क्लीं विज्ञान, वैभव और बल की सम्मिलित शक्ति को पकड़ कर, खींच कर अपने में धारण कर सकते हैं और उसके आधार पर जीवन में अनेक मानसिक एवं साँसारिक आनन्दों का उपभोग कर सकते हैं।

गायत्री साधनाएं स्थूल दृष्टि से देखने में सामान्य क्रिया मालूम होती हैं इनके द्वारा किसी प्रकार कोई लाभ मिल सकता है, साधारणतः यह बात समझ में नहीं आती पर अवश्यम्भावी परिणामों को देखकर यह मानना पड़ता है कि इसमें कोई तथ्य अवश्य है। गायत्री के चौबीस अक्षरों का गुँथन इस प्रकार से हुआ है कि उनके उच्चारण से जिह्वा, मुख, कंठ, तालु की ऐसी नाड़ियों का क्रमबद्ध संचालन होता है जिनके कारण शरीर के विभिन्न भागों में अवस्थित योगिक लघु चक्र जागृत होते हैं। जैसे कुँडलिनी जागरण के लिए षट् चक्रों को जागृत करके दिव्य शक्तियाँ प्राप्त की जाती हैं वैसे ही गायत्री के उच्चारण मात्रा से यह लघु ग्रंथियां जागृत होकर आशाजनक परिणाम उपस्थित करती हैं। “गायत्री महाविज्ञान” पुस्तक के प्रथम भाग में चित्र देकर सविस्तार यह बताया जा चुका है कि शरीर के किस-किस भाग में कौन-कौन सी गुप्त ग्रंथियाँ हैं और गायत्री के किन-किन अक्षरों के उच्चारण से उनमें कौन-कौन ग्रंथि जागृत होती है और उस ग्रंथि चक्र के जागरण से हमें कौन-कौन सी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। उस सब का वर्णन यहाँ नहीं किया जा सकता पर इतना बताया जा सकता है कि गायत्री के चौबीसों अक्षर बड़े ही रहस्यपूर्ण ढंग से ऋषियों ने गूँथे हैं। उनके उच्चारण से शरीर के भीतर ऐसी सूक्ष्म प्रक्रिया होती है जिसके कारण आसानी से हमारी अन्तः भूमि ऐसी चुम्बक शक्ति से परिपूर्ण हो जाती है जिसमें ईश्वर की गायत्री शक्ति को आसानी से खींच कर अवस्थित किया जा सके ।

सृष्टि के आदि से लेकर अब तक असंख्य मनस्वी महापुरुषों ने गायत्री की साधना की है। विचार विद्या के ज्ञाता यह बात सहज ही समझ सकते हैं कि इतने अधिक मनस्वी पुरुषों का इतने अधिक काल तक, इतना अधिक मनोबल रहा है वह गायत्री मंत्र अपनी ज्ञानपूर्ण संचित पूँजी के कारण भी कितना अधिक प्रभावशाली हो गया होगा। विचार कभी नष्ट नहीं होते उनके बादल आकाश में मँडराते रहते हैं, वे विचारों की प्रचुरता देखते हैं वहीं स्वयं भी बरस पड़ते हैं। इसी से भले और बुरे विचारों को अदृश्य रूप से बल मिलता रहता है। नये गायत्री साधक पर पूर्वकाल के गायत्री साधकों के विचार बादल बरसते हैं और वह शीघ्र ही सफलता की ओर अग्रसर होने लगता है।

विविध रेडियो स्टेशनों द्वारा विविध प्रोग्राम हर घड़ी प्रसारित होते रहते हैं। पर सुनाई वहीं पड़ते हैं जहाँ रेडियो यंत्र रखा हो। उस यंत्र में भी जिस नम्बर पर सुई होगी उसी स्टेशन की खबरें सुनाई पड़ेंगीं। ईश्वर की अनेक शक्तियाँ अनेक केन्द्रों से प्रचारित होकर सर्वत्र व्याप्त रहती हैं, पर उनको ग्रहण वही कर सकता है जिसने साधना द्वारा अपने आपको रेडियो यंत्र बना लिया है। जिस दैवी शक्ति को प्राप्त करना है उसी की विशेष साधना करना मानो रेडियो की सुई उस नंबर पर लगा देना है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर के महाशक्ति सागर में से, विपुल वैभव में से, हम अपनी आवश्यक शक्तियाँ एवं सम्पदाएं प्राप्त कर सकते हैं। प्रभु के अक्षय भंडार में किसी वस्तु की कमी नहीं है। ईश्वर के अमर युवराज-मनुष्य को अपने पिता की प्रत्येक वस्तु पर पूरा पूरा अधिकार है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम अपनी पात्रता सिद्ध करें अपने प्रयत्न, श्रम, अध्यवसाय और साधना द्वारा यह साबित कर दें कि हम अभीष्ट वस्तुओं के अधिकारी हैं तो कोई कारण नहीं कि हमें सन्तोष जनक सुख शान्ति प्राप्त न हो।

गायत्री साधना ठोस अध्यात्मिक महाविद्या की वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। उसका श्रद्धा और विश्वासपूर्वक परीक्षण किया जाये तो परिणाम सदा ही आशाजनक होता है।


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