वनस्पति या स्वर्ण-मृग

July 1950

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(श्री. किशोरी लाल घ. मश्रूवाला)

केन्द्रीय धारा सभा में पं. ठाकुर दास भार्गव ने ‘वनस्पति’ याने तेलों की जमाने की क्रिया और धंधे को बन्द करने के लिये एक विधेयक (बिल) पेश किया है। यदि यह विधेयक मंजूर होगा तो वनस्पति के सब कारखाने बन्द किये जायेंगे। और विदेश से भी उसकी आयात करने की मनाही होगी। इसके बारे में लोकमत क्या है इसे समझने के लिये सरकार ने इस विधेयक को अखबारों आदि द्वारा प्रकाशित किया है। और ता0 31 अगस्त तक के भीतर अपनी राय जाहिर करने के लिये सूचना दी है।

वनस्पति हमारे देश का एक बड़ा महत्व का पदार्थ बन गया है। इसके पैदा करने वाले व्यापारियों को यह धंधा इतना फायदेमंद साबित हुआ है कि तेजी से उसके कारखाने बढ़ाने की कोशिश हो रही है और उसके प्रचारार्थ आकर्षक विज्ञापन आदि में लाखों रुपया खर्च करना आसान हो गया है। थोड़ा भी महत्व रखने वाले किसी भी अखबार को देखिये, वनस्पति के सच्चे झूठे गुणगान करने वाले बड़े-बड़े विज्ञापन पाठकों के ध्यान को आजकल आकर्षित कर देते हैं। इसके अलावा उसके विषय में तरह तरह की जानकारी देने वाली, बड़े आकर्षक और महंगे कागज पर छपी हुई सचित्र पत्रिकायें भी प्रकाशित की गई हैं। और ता0 31-अगस्त की अवधि के भीतर उसके पक्ष में अनुकूल लोकमत प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के प्रयत्न किये जा रहे हैं।

दूसरी तरफ से यह पदार्थ जितना धंधेवालों को फायदेमंद हुआ है, उतना ही लोगों के लिये शकमंद हो गया है। खेती और गो-पालन का धंधा चलाने में इस पदार्थ ने बाधायें पैदा कर दी हैं। घानी का धंधा तोड़ दिया है। आरोग्य की दृष्टि से उसको कोई महत्व सिद्ध नहीं होता। फिर भी अपने मायावी रूप से मोह में डाल कर वह खाने वाले को बिना जरूरी खर्च में डालता है। और एक भ्रम में फंसाता है। शुद्ध तेल और शुद्ध घी प्राप्त करना जनता के लिये उसने बहुत ही मुश्किल कर दिया है। व्यापार धंधे से नीति की भावना निर्मल करने में यह काव्योक्ति यहाँ ठीक लागू होती है। मावी राक्षस ने सुवर्ण-मृग का रूप धारण करके जानकी को आकर्षित किया, राम जानते थे कि सुवर्ण-मृग नहीं हो सकता। फिर भी मजबूर होकर उसके पीछे दौड़े परिणाम में जिसने वह माया पैदा कर दी थी वह रावण, जानकी जी को हरण कर ले गया और उनका शील और जीवन दोनों को उसने जोखिम में डाल दिया। इसी तरह मायावी तेल भी घी का रूप लेकर जनता को आकर्षित करके, यह घी नहीं बल्कि नकली पदार्थ है जैसा जानते हुये भी गृहस्थ को उसके खरीदने के लिये मजबूर कर देता है। परिणाम में जिसने यह माया पैदा की है, उस उद्योगपति जनता की नीति, आजीविका, धन और आरोग्य चारों जोखिम में डाल दिये हैं।

इसके दूसरे नुकसान भी बहुत हैं। उसने तेल कारखानों को अनिवार्य बना दिया है। कारखानों में जो कचरा निकलता है उसे तेली लोग सस्ते में खरीद कर अच्छे तेल में मिलाते है। चीजें भी मिलाते हैं और मिलावटी तेल करते हैं। वनस्पति को घी में मिला कर उसे मिलावटी करते हैं। शुद्ध करने का और जमाने का खर्च करके भी न शुद्ध तेल मिलता है न शुद्ध घी। फिर लोग सोचते हैं कि सब झंझट छोड़कर वनस्पति का ही उपयोग करना बेहतर है। इस तरह दूसरे खाद्यों को बिगाड़ कर वह अपना स्थान जमाता है।

स्थानिक धानियाँ बन्द होने से उनकी खली भी नहीं मिल सकती, मिल की खली में तेल का अंश कम रहता है, अशुद्धियाँ ज्यादा होती हैं। फिर वह निर्यात की जाती है और खाद में जाती है। यानि मवेशी की खुराक की एक आवश्यक चीज समुद्र पार जाती है और भूमि में वैसी ही जाती है। जिससे कितना लाभ होता है इस पर कुछ शंका भी है। इस तरह कृषि और गो पालन दोनों का नुकसान होता है।

अनीति का तो कहना ही क्या? मिलावट और काला बाजार आदि चीजों की शर्म ही नहीं रह गई। झूठ प्रचार की एक कला बनाई गई है।

इन सब बातों का ख्याल करके लोगों को, विशेष कर सार्वजनिक सेवा की संस्थाओं, म्युनिसिपालिटियों, पंचायतों आदि को अपनी राय ता0-31 अगस्त के पहले केन्द्रीय सरकार के अन्न मंत्री केन्द्रीय धारा सभा के सभापति को भेज देनी चाहिये।


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