उपवास का रहस्य

July 1950

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(डॉक्टर लक्ष्मी नारायण टंडन ‘प्रेमी’ एन. डी.)

यह तो हम जानते ही हैं कि अन्न को जठराग्नि पचाती है। और अन्न न देने पर वह दोषों को पचाती है। वस्तु, मात्रा तथा समय का ध्यान रख कर यदि भोजन न किया जायेगा तो खाने से विकार पैदा होगा। उदाहरणार्थ यदि ‘वस्तु’ का ध्यान रख कर हम नहीं खाते, अर्थात् अन्न के साथ यदि फल, फूल, शाक, तरकारी नहीं खाते, या मात्रा का ध्यान रख कर हम नहीं खाते अर्थात् भोजन वास्तविक भूख समाप्त होते ही हम बंद नहीं कर देते या समय का ध्यान हम नहीं रखते अर्थात् बिना भूख लगे ही हम खाते हैं तो ऐसा भोजन हमें हानि पहुँचायेगा। प्रकृति के सारे कार्य धीरे-धीरे और वास्तविक भूख समाप्त होने ही हम बंद नहीं कर देते या समय का ध्यान हम नहीं रखते अर्थात् बिना भूख लगे ही हम खाते हैं तो ऐसा भोजन हमें हानि पहुँचायेगा। प्रकृति के सारे कार्य धीरे-धीरे और बंधे नियमों के आधार पर होते हैं। आज ही हम गलत भोजन करें और आज ही हम रोगी हो जायें ऐसा प्रायः नहीं होता।

उपवास एक प्रकार से गलत भोजन करने का प्रायश्चित है। दोषों को पचाने वाली चीजें उपवास में हैं। दोषों को पचाने में कुछ कष्ट होता है। दोष हमारी गलती से होते हैं। यदि दोष भीतर जलते हैं तो हम उसे ‘ज्वर’ कहते हैं और जब दोष बाहर निकलता है तो हम उसे ‘कफ’ आदि कहते हैं। इस प्रकार से ‘रोग‘ प्रकृति द्वारा शरीर के अन्दर संचित विजातीय द्रव्यों के बाहर निकालने के प्रयत्न का रूप है अस्तु ‘रोग‘ जिसका नाम सुन कर काँप जाते हैं, एक प्रकार से हमारे मित्र हैं, शत्रु नहीं।

तीनों विकारों-पित्त, कफ, वायु को जठराग्नि पचाता है वैश्वानर को यदि हम अवकाश दें तो वह दोषों को पचायेगा। यह उपवास है। तेज बुखार हमसे कहता है-अब मत खाना, यह अंतिम चेतावनी है।

लगातार भोजन करने से दोष अधिक हो जायेंगे तब यदि हम पेट को भोजन न देंगे तो कष्ट होगा। जितना ही शरीर में विजातीय द्रव्य होगा, उपवास काल में उतना ही कष्ट होगा। याद रहे झाडू गर्द नहीं होती, गर्द तो पृथ्वी में होती है। इसी भाँति शरीर में उपवास के कारण कष्ट नहीं होता वरन् कष्ट तो उन विकारों के कारण होता है जो हमारे शरीर में होते हैं।

उपवास करने से सफाई होती है। एक तो हम नित्य-नित्य घर में झाड़ू लगाते हैं। फिर हर इतवार को अर्थात् प्रति सप्ताह पर्याप्त सफाई करते हैं। और वर्ष भर में एक बार दीपावली के अवसर पर तो पूरे घर भर की सफाई होती है सफेदी आदि पोत कर। यही लाभ उपवास के संबंध में होना चाहिए। नव दुर्गाओं के अवसर पर ऋतु परिवर्तन होता है तथा रोगों का तब प्रकोप होता है। अतः 9 दिन नव रात्रि में हम बड़ी सफाई (वार्षिक) उपवास द्वारा करें। नित्य प्रति के उपवास यह है कि 12 बजे दोपहर के पहले भोजन न करे तो हमारा अर्ध उपवास हो जायगा। सप्ताह में एक बार या प्रति प्रदोष तथा एकादशी आदि का व्रत रखें तो यह साप्ताहिक उपवास हुआ।

शरीर में विकार के कारण ही कष्ट होता है। जितना ही हमारा शरीर मल रहित होगा, या मल रहित होता जायेगा, उतना कम कष्ट भय होगा या होता जायेगा। जैसे गर्द वाले फर्श में झाड़ू देने से तो गर्द उड़ेगी, पर साफ आँगन में झाड़ू देने पर गर्द नहीं उड़ेगी। गर्द उड़ेगी, इस डर से क्या हम झाड़ू ही न लगाएं? प्रारंभ में गर्द का कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा और उसके बाद फिर ‘सफाई’ का आनन्द प्राप्त होगा।

बारह बजे दोपहर तक (मल बाहर निकालने का) काल है। अब जब माँस ही बनाता है तो सुबह ही क्यों खाया जाये? पानी शरीर के विकार को घोल कर बाहर निकालता है। इसी से जो प्रातःकाल पर्याप्त जल पीते हैं वह जानते हैं कि कितना खुल खुल कर पेशाब होता है।

ठंडा जल शक्तिवर्धक होता है और गरम जल संचारक होता है। ठंडे जल से जो जितना नहायेगा उतना ही शरीर मजबूत बनेगा। परन्तु ‘अहिंसा’ का सदा ध्यान रखे। यदि कमजोर शरीर के ठंडा पानी माफिक न पड़े तो बहुत ठंडे पानी से नहाना शरीर के साथ ‘हिंसा’ होगी। धीरे-धीरे वह ठंडे जल का अभ्यास करे।

क्रिया के बाद प्रतिक्रिया सदा होती है। जितनी ही प्रतिक्रिया हो और अच्छी प्रतिक्रिया हो, उसी हिसाब से ठंडा पानी दे। उपवास के साथ पीने नहाने या एनेमा के रूप में जल का अटूट सम्बंध है अतः जल का महत्व अत्यधिक है।

जब पेट को भोजन मिलता है तो वैश्वानर भोजन को पचाने का कार्य करने लगता है। भोजन न मिलने पर वह दोषों को उभार कर उन्हें पचाने में लग जाता है। जब उसने दोषों को पचाने का कार्य आरम्भ कर दिया है और उन उखड़े हुए दोषों के रूप में परिभ्रमण के कारण हमें कष्ट हो रहा हो जैसे जी मिचलाना, सरदर्द आदि और तब हम भोजन कर लें, तो नतीजा यह होगा कि उभरे हुए दोष झट से दब जायेंगे। हमारा वैश्वानर दोषों को पचाना छोड़ फिर अन्न पचाने में लग जायेगा तथा हमारे शारीरिक कष्ट शाँत हो जायेंगे।

यदि इतनी सी बात हम समझ लें तो भोजन तथा उपवास के सिद्धान्त को हम समझ गए। भोजन केवल माँस बनाता है, शक्ति नहीं देता। शक्ति तो केवल उस रहस्यमयी वस्तु से प्राप्त होती है जिसे हम प्रकृति, ईश्वर या ऐसा ही कुछ नाम देते हैं। मेरी बात संभव है 99 प्रतिशत लोगों को ठीक न जंचे। किन्तु बहु संख्या ही, सत्यता का प्रमाण नहीं है। आत्म शुद्धि तथा ईश्वर परायणता से वास्तविक शक्ति प्राप्त होती है। शरीर की शक्ति इससे उतरती है और इसके उतरने पर शरीर स्वतः स्वस्थ हो जाता है। यही कारण है कि उपवास काल में मनुष्य आत्मा या ईश्वर के अति निकट होता है।

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