आत्मिक पुरुषार्थ की आवश्यकता

July 1950

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(ले. पं. दुर्गाप्रसाद जी शास्त्री)

संसार में सुख और शान्ति उत्पन्न करने के लिये मनुष्य को परम पुरुषार्थ की बड़ी भारी आवश्यकता है। यह संसार भलाई और शक्ति से घिरा हुआ है और यह सज्जन और बलवान मनुष्य की रक्षा भी करता है। जो मनुष्य सब से अधिक बलवान होता है, उसी की विजय होती है-जो मनुष्य अपने को भलाई और परोपकार में लगा देता है उसे यह देखकर प्रसन्नता होती है कि झूठ और अनर्थ का नाश हुआ। इसलिये वह उस स्थान पर खड़ा होता है, जहाँ त्याग का अन्त होता है, और चारों तरफ लाभ दिखाई देता है।

अज्ञानी मनुष्य अपनी शक्तियों को विषय वासना और क्षणिक विचारों और निष्प्रयोजन दूसरों को हानि पहुँचाने में नष्ट कर देते है, और दूसरों को सुखी देख कर हमेशा अपने भाग्य को कोसते हैं। ऐसे मनुष्य संसार में न तो स्वयं सुखी होते हैं, और न किसी की भलाई ही कर सकते हैं। ऐसे मनुष्य आकृति मात्रा से तो मनुष्य दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु वास्तव में वे मनुष्य नहीं हैं।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य साहस, सभ्यता, दयालुता और आत्म निर्भरता है। जिन मनुष्यों में यह गुण नहीं है, वे मिट्टी के खिलौने की भाँति हैं, उनमें कुछ भी शक्ति और स्थिरता नहीं होती। वे सच्चे जीवन का कुछ भी सुख नहीं भोग सकते, और न स्वतन्त्रता का सच्चा आनन्द अनुभव कर पाते हैं मनुष्य जीवन का उद्देश्य गिरे हुओं को उठाना, निर्बलों की सहायता करना, दीनों और अनाथों को अपनाना तथा दूसरों की सदैव सेवा करना है। समझदार मनुष्यों को यह भली प्रकार समझ लेना चाहिये कि यह संसार सृष्टि है न कि प्रलय। वह किसी निश्चित नियम पर निर्धारित है। यही कारण है कि इसमें अन्यायी और अत्याचारी बहुत समय तक नहीं ठहर सकते।

क्या कोई भी मनुष्य संसार में सुखी हो सकता है, यदि उसके साथी दुखी हों। जैसे यदि कोई यह समझ ले कि संसार भर में अज्ञानरूपी अंधकार छाया रहे और प्रकाश उस तक पहुँचता रहे। रोग के कीटाणुओं की भरमार हो जाय और वह स्वस्थ बना रहे। देश में दुर्भिक्ष हो और वह आनन्द करता रहे। देश भर का वायुमण्डल दुराचार से भर जाये और उस पर कोई प्रभाव न पड़े। देश अवनति के घोर रसातल में चला जाये और वह उन्नति के उच्च शिखर पर बैठा रहे देश में दारिद्रय और दुर्भिक्ष का वास हो, और वह आनन्द से अपना जीवन व्यतीत करता रहे यह कदापि नहीं हो सकता। जो दूसरों की भलाई नहीं कर सकता, वह सुखी कभी नहीं रह सकता जो संसार को अज्ञान में रखना चाहता है, उसे ज्ञान की आशा छोड़ देनी चाहिए। जो दूसरों को अशुद्ध देख कर उनसे घृणा करता है, वह संसार में कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जो दूसरों को नीच और अस्पृश्य कह कर उनकी छायामात्र से भय खाता है, वह एक दिन अवश्य ही अस्पृश्य हो जायगा। जो दूसरों को गिराना चाहता है, उसका एक दिन पतन अवश्यंभावी है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि जो उसके जीवन का उद्देश्य है, उसे भले प्रकार समझ कर सद्विचार, साहस, शान्ति और स्वतन्त्रता से अपना जीवन व्यतीत करे।

मनुष्य के भीतर एक प्रकार की पाशविक शक्ति पाई जाती है जो समय-समय पर रूप बदलती रहती है। परन्तु क्रोध और आवेश के समय वह मनुष्य को अन्धा बना देती है, जिससे वह मनुष्यता को भूल कर आत्म-गौरव और श्रेष्ठता को भी तिलाँजलि दे बैठता है। मनुष्य अपना शत्रु आप है। वह काम-क्रोधादि दोषों से अपना स्वयं नाश कर बैठता है। ऐसा मनुष्य सदैव अपने को धिक्कारता रहता है, और इसी प्रकार अपने आत्म गौरव को भी खो बैठता है। संसार तत्व पर स्थिर है, यदि हम इस नियमबद्ध संसार में स्वतन्त्र और स्वाधीन रहना चाहते हैं, तो हमारे स्वतन्त्र विचार होने चाहिये, और हमें दूसरों के स्वतन्त्र विचारों का आदर करना चाहिये। यदि हम दृढ़ और पुरुषार्थी बनाना चाहते हैं, तो हमको दृढ़ और उदार होना चाहिये। और यदि हम जीवन के दुःखों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें तुच्छ और घृणित विचारों का समूह नाश कर देना उचित है। यही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। मनुष्य को अपना जीवन अपनी मुट्ठी में रखना चाहिये कि उसे जब चाहे उठाले और जब चाहे नीचे रख दे। जो मनुष्य प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करता है, वह बड़ा अपराध करता है और यही सब दुःखों का मूल है। अज्ञानतावश वह यह समझता है कि मैं प्रकृति के नियमों पर विजय प्राप्त कर सकता हूँ। यह उसकी बड़ी भारी भूल है।

मनुष्य को यह भली भाँति जान लेना चाहिये कि वह बाह्य पदार्थों पर शासन नहीं कर सकता हाँ, अपने ऊपर शासन कर सकता है। वह दूसरों की इच्छाओं को अपने वश में नहीं कर सकता, परन्तु अपनी इच्छाओं को अपने वश में कर सकता है। तुम्हारी शक्ति तुम्हारे साथ है, तुम चाहो तो उसे बुरे कामों में लगा सकते हो। चाहे उसके द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करो चाहे भलाई के मार्ग में लगा दो। इसी से तुम पशु बन सकते हो और इसी से देवता। अपने विचारों को सन्मार्ग पर लगाओ, अपनी कुत्सित इच्छाओं को मन से निकाल दो। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।


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