जीवन की सफलता का रहस्य

July 1950

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(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)

अपने जीवन में सबसे बड़ी और मूल्यवान बात जो मैंने सीखी है वह है-साध्य से अधिक साधना की ओर ध्यान देना। यही सफलता का रहस्य है। हम लोगों में सबसे बड़ा दोष यही है कि हम लोग लक्ष्य की ही ओर ध्यान देते हैं और साधन की, कार्यप्रणाली की, ब्यौरे की बातों को भूल जाते हैं। और इसीलिये इसका परिणाम यह होता है कि यदि हम अपने लक्ष्य पर एक बार पहुँच भी गये, यदि हमको एक बार सफलता मिल भी गयी तो भी हमारी वह सफलता स्थायी नहीं होती और हम शीघ्र ही फिसल जाते हैं। हमें सबसे पहले यह बात ध्यान में बैठा लेनी चाहिये कि हमारी कार्यप्रणाली की शुद्धता और अशुद्धता पर ही कार्य का फलाफल निर्भर करता है। यदि हमारी प्रणाली ठीक न रही तो फल कभी ठीक नहीं हो सकता। पद्धति पर ध्यान देने से परिणाम आशा और अभिलाषा के अनुरूप ही होगा इसमें तनिक भी संशय नहीं। प्रणाली की विशुद्धता ही फल है।

अतः हमें चाहिये कि अपना सारा ध्यान कर्म और उसकी प्रणाली पर ही रखें, उसकी पूर्ति के प्रलोभन में तनिक भी न फंसें। गीता का भी यही उपदेश है कि हमें निरन्तर अपने कर्म में लगे रहना चाहिये, फल की स्पृहा करना उसके पीछे अन्धा होना पतन की जड़ है। इसीलिये गीता का कथन है कि सब कर्मों को करते हुए भी उनसे अनासक्त रहें। आसक्ति होना ही बुरा है। संसार में हम कर्म करने के लिये आते हैं। किन्तु कर्मफल के लिये हमारे अन्दर जो स्पृहा, जो लोभ होता है वह हमारा सत्यानाश कर देता है। हम नित्य देखते हैं कि मधुमक्षिका फूलों का रस चूसने के लिये आती है किन्तु चलते समय उन फूलों के रस में उसके पर फंस जाते हैं और वह विवश हो जाती है इसका कारण उसके अन्दर मधु के प्रति आसक्ति है। उसी प्रकार हम भी इस विश्व में केवल कर्म करने के लिये आते हैं किन्तु अपनी मूर्खता से उसके फल के प्रति आसक्ति रखने के कारण संसार में ही फंस जाते हैं। फल इसका बड़ा घातक होता है। हमारी स्वतंत्रता छिन जाती है, हम गुलाम हो जाते हैं। प्रकृति से हम सब चीजें प्राप्त करना चाहते हैं, किन्तु अन्त में प्रकृति हमसे सभी चीजें छीन लेती है और हमको ठुकरा देती है।

अतः हमारे दुःखों का, कष्टों का सबसे बड़ा कारण आसक्ति है। इसीलिये, भगवान कृष्ण ने कहा है कि अनासक्त होकर कर्म करो। कर्म करो। कर्म करो। किन्तु उसके फल के प्रलोभन में न पड़ो जब चाहे उस कर्म-चक्र से अलग हो जाने की क्षमता अपने अन्दर रखो। चाहे कोई हो उससे अपने को अलग कर लेना होगा। जीवन का नाम ही संघर्ष है अशक्तों, अपाहिजों और दुर्बलों के लिये यह जीवन या कर्म-क्षेत्र संसार नहीं बना है। दुर्बलता से ही सब प्रकार की तकलीफें, चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, उत्पन्न होती हैं। दुर्बलता मृत्यु है, शक्ति समृद्धि है, जीवन है, अमरत्व है।

साँसारिक आनन्द आसक्ति से ही हमको प्राप्त होते हैं हम अपने सम्बन्धियों के प्रति, अपने सत्कार्यों के प्रति एवं संसार के प्रति आसक्त हो जाते हैं और फिर अन्त में यही सुख, यही आनन्द दुःख में करुणा में परिणत हो जाता है। सुख भोगने के लिये आसक्ति हीन होना अत्यावश्यक है। यदि कोई अनासक्त हो तो वह कभी दुःखी हो ही नहीं सकता। संसार में वही व्यक्ति अत्यधिक सुखी और सम्पन्न है जिसके अन्दर साँसारिक पदार्थों से अपने को आसक्त रखते हुए भी अनासक्त कर लेने की सामर्थ्य हो। जो संसार में रहते हुए भी, संसार के पदार्थों का उपयोग करते हुए भी, जब चाहे अपने को उनसे विरक्त करले और उसके मनमें उनके प्रति तनिक भी अनुराग न रखे उसी का जीवन सफल है।

कितने ऐसे मनुष्य होते हैं जो संसार के किसी पदार्थ से प्रेम नहीं करते, उनके भीतर किसी भी लौकिक वस्तु के प्रति सद्भाव नहीं होता। वे निर्दय, निर्मम, निष्ठुर होते हैं। निस्सन्देह वे अनेक प्रकार की कठिनाइयों, मुसीबतों से बच जाते हैं। किन्तु वैसे तो निर्जीव पत्थर की चट्टान को भी कोई शोक नहीं होता, कोई वेदना नहीं होती। लेकिन क्या हम सजीव मनुष्य की तुलना पत्थर की चट्टान से कर सकते हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता। मनुष्य मनुष्य ही है पत्थर पत्थर ही है। जो कुलिषवत् कठोर होते हैं, नितान्त एकाकी होते हैं, वे चाहे कष्ट न भोगें पर जीवन के बहुत से आनन्दों का भी उपभोग करने से वे वंचित रह जाते हैं। ऐसा भी जीवन क्या कोई जीवन है? कुशल चतुर व्यक्ति तो वही है जो सब प्रकार से संसार में रह कर, सब तरह के कार्यक्रम पूरा कर, सब की सेवा कर, सब से प्रेम कर फिर भी सब से अलग रहता है।

भिक्षुक क्या कभी सुखी रह सकता है? यदि उसको कोई कुछ देता है तो वह घृणा के भाव से। और इसीलिये भिक्षुक को जो कुछ मिलता है उसका आनन्द वह नहीं उठा सकता। उसी प्रकार हम सभी भिक्षुक हैं। हम जो कुछ भी करते हैं उसका बदला पाने की आशा करते हैं। हम लोगों की बुद्धि व्यापारिक हो गयी है। जीवन में, सुकृति में प्रेम में सब में हम लोग व्यापारी बन गये, तो जब हमारे अन्दर व्यापारिक बुद्धि का प्रवेश होगा तो फिर व्यापार की सभी अवस्थाओं का सामना भी करना पड़ेगा। व्यापार में आदान-प्रदान, क्रय-विक्रय, मन्दी-तेजी, हानि-लाभ सभी होते हैं और हमें उन सबको भोगना पड़ेगा। बस यहीं मनुष्य फंसता है, इसी जगह उसकी कठिनाई आरम्भ होती है। स्पृहा, अभिलाषा और आशा जहाँ शुरू हुई कि दुःख स्रोत उमड़ पड़ा। अतः जो निस्वार्थ कर्म करेगा, जो पुनः वापस पाने कि इच्छा रखकर कार्य नहीं करेगा वही सफल होगा, वही दुःखों से मुक्त रहेगा। कितने ही लोग कहेंगे, “यह तो विचित्र बात है, असम्भव है, गलत है। रोज ही हम देखते हैं कि सीधा सादा, सरल निस्वार्थ कर्मी ठगा जाता है, हानि उठाता रहता है। भगवान ईसा ने सेवा की भावना रख कर कर्म किया, उनका कर्म केवल कर्म के लिये था। फल के लिये उनके अन्दर तनिक भी आसक्ति न थी फिर भी उनको प्राण गंवाना पड़ा। किन्तु साथ ही साथ यह भी हम जानते हैं कि ईसा के आत्मबलिदान ने जगत को वह अमूल्य निधि दी जिसका ठिकाना नहीं। ईसा का उद्देश्य सफल हुआ, अपने लक्ष्य को उन्होंने प्राप्त कर लिया।

आप जो कुछ भी करो, जो कुछ भी दो उसका बदला न चाहो। जो कुछ भी दे सको दो, जहाँ तक हो सके करो, इसका फल आपको हजार गुना मिलेगा किन्तु आप आशा न करो, अभिलाषा न करो, माँगो नहीं। जीवन देना ही तो है और क्या है? यदि आप देना बन्द कर दोगे या नहीं देना चाहोगे तो प्रकृति आपका गला दबा कर आपसे ले लेगी। आप सोचते हो कि जीवन संग्रह करने के लिये है, हाथ बन्द करने के लिये हैं किन्तु जब प्रकृति आपका गला दबा कर आपका हाथ खोल देती, तब आपको इस बात का ज्ञान होता कि वास्तव में जीवन देने के लिये बना था। मरने के बाद सिकन्दर के दोनों हाथ खुले हुए बाहर निकल कर लटक रहे थे। उसने इस ध्रुव सत्य को समझ लिया था कि जीवन में कुछ संचय नहीं किया जा सकता, यह तो देने के ही लिये बना था। इसी को प्रारम्भ में लोग नहीं समझते किन्तु एक समय ऐसा आता है जब विवश होकर उन्हें समझना पड़ता है। लेकिन यदि हममें इतनी बुद्धि होती कि हम प्रकृति के इस रहस्य को समझते, भगवान के उपदेशों के अनुसार चलते तो दुःख किस बात का था। अतः, हमें ऐसा नियम बना लेना चाहिये कि हम जो कुछ भी दें उसको पुनः प्राप्त करने की आशा से न दें और न उसे माँगे ही। नदी जब तक बहती रहती है एवं अपना जल समुद्र में उड़ेलती रहती है तभी तक उसमें बाहर से जल आता रहता है किन्तु जिस क्षण वह समुद्र को जल देना बन्द कर देती है। उसी क्षण उसमें बाहर से जल का आगमन रुक जाता है। जब तक आप देते रहोगे, जब तक बाहर निकालते रहोगे तब तक आपके पास संचय होता रहेगा।

अतः भिक्षुक न बनो, देने में कृपणता न करो। इसी का लोग ख्याल नहीं करते। कठिनाइयों का पहिले से ही ध्यान रखना चाहिये। और हम रख भी सकते हैं। यह तो बहुत ही सरल कार्य है फिर भी अपनी ही भूल से हम गड्ढे में गिरते हैं। प्रकृति हमें घूँसे का जवाब घूँसे से, लात का लात से और थप्पड़ का थप्पड़ से देने के लिये प्रेरित करती है किन्तु बुद्धिमानी यही है कि हम मौन रहें, अनासक्त रहें, निर्विकार रहें। अपने पर नियन्त्रण रखें।

कठिनाइयाँ तो बहुत पड़ती हैं इसमें सन्देह नहीं। और इन्हीं के द्वारा हमारा साहस, उत्साह, भंग हो जाता है। किसी के कटु शब्द कह देने पर हमसे निर्विकार शान्त, मौन नहीं रहा जाता। असाधारण स्थिति में मनुष्य और भी भूल करता है, उद्विग्न हो जाता है, किन्तु उस असाधारण स्थिति के पार जाना ही वीरता है। इनसे पार जाने पर, इनसे छुटकारा पाने पर ही वास्तविक सुधार सम्भव है। इसके लिये अपेक्षा है आध्यात्मिक बल की, आध्यात्मिक शक्ति की। इन सब बन्धनों से, दुर्बलताओं से, मायाजाल से छुटकारा प्राप्त करने के लिये हमें, चाहे कितने ही कष्टों का सामना करना पड़े, अपने मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिये। वरन् विघ्न-बाधाओं के, कठिनाईयों के आने पर अविचल भाव से उनका सामना करना चाहिये और उसी समय अपनी तत्परता का, शान्ति का, अनासक्ति का परिचय देना चाहिये।

यह कार्य कठिन है तो अवश्य किन्तु अभ्यास से क्या नहीं हो सकता। हमें अपनी भावना ही ऐसी बना लेनी चाहिये कि चाहे कुछ भी हो हमारे ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि हम अपनी अहंमन्यता को मिटा सकें तो हमारे लिये सब कुछ सम्भव है। यदि हम अपने अन्दर यह विचार बैठा रखें कि दुःख और मुसीबतें अकस्मात् और असम्भावित रूप से नहीं आतीं वरन् वे अनिवार्य हैं, हमारे पूर्व कर्मों के फल अच्छे या बुरे हमें अवश्य मिलेंगे, तो फिर हम निश्चिन्त रहेंगे। हमें कोई परेशानी न होगी।

दूसरी बात यह है कि हम लोगों की यह एक विचित्र आदत-सी पड़ गयी है कि जो भी दुष्परिणाम हमको भोगने हैं, जो भी कठिनाईयाँ आपत्तियाँ हमारे सामने आती हैं, उनके लिये हम अपने को दोषी न समझ कर दूसरों के सर दोष मढ़ दिया करते हैं। हमारा यह दृढ़ विश्वास होता है कि इसका कारण हमारे दुष्कृत्य नहीं है। दूसरों को हम दोष देते समय न जाने क्या क्या कह डालते हैं, “अन्धा अपनी नेत्रविहीनता की ओर ध्यान न देकर काने को दोष देता है, कैसी विडम्बना है। संसार बुरा है, नारकीय है, भले लोगों के रहने की यह जगह नहीं है, यही हम लोग मुसीबत के समय कहा करते हैं। यदि संसार ही बुरा होता और हम अच्छे होते तो भला हमारा जन्म ही यहाँ क्यों होता? यदि थोड़ा सा भी आप विचार करो तो तुरन्त विदित हो जायगा कि यदि आप स्वयं स्वार्थी न होते तो स्वार्थियों की दुनिया में आपका वास असम्भव था। किसी हरिश्चन्द्र के सामने झूठ बोलने का साहस कोई नहीं कर सकता हमें तो जो कुछ भी मिलता है वह हमारे कर्मों के अनुसार। दूसरों को इसके लिये दोष देना व्यर्थ है। हम अच्छे हो और संसार जिसमें हम रहते हैं, बुरा हो यह हो नहीं नहीं सकता। इससे बढ़ कर असत्य कथन नहीं हो सकता।

अतः सबसे पहली बात यह है कि हमें दूसरों को किसी प्रकार भी दोषी नहीं ठहराना चाहिये। क्योंकि यदि हमारे कर्म वैसे न होते तो वह दुष्परिणाम हमको न भोगना पड़ता। इसलिये ऐसे समय आत्मनिरीक्षण करना चाहिये और अपने अन्दर जो दोष हों उनको दूर करना चाहिये।

ऐसा करने से, अनासक्त रहने से, निर्लिप्त रहने से ही हम सुधर सकते हैं। दूसरों की चिन्ता छोड़ कर हमें अपनी चिन्ता करनी चाहिये। संसार के प्राणी ही हमारा अभिप्राय यहाँ मनुष्य से है, संसार को बनाते हैं। यदि मनुष्य का सुधार हो जाये तो संसार में सुख प्राप्त कर सकता है, जीवन में सफल हो सकता है एवं अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।


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