सेवामय जीवन

July 1950

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बदले की इच्छा की आशा से पुण्य या परमार्थ करना ठीक नहीं। परमार्थ का सब से बड़ा लाभ आत्म संतोष, बल वर्धन है। सेवा की महानता और पवित्रता को कायम रखने के लिए इसी भाव से उन्हें करना चाहिए।

लोक सेवा के तीन प्रकार हैं, (1) परोक्ष सेवा (2) प्रत्यक्ष सेवा (3) सह सेवा। परोक्ष सेवा वह है-जो अपना कार्यक्रम निर्दोष निष्पाप, लोक हितकारी रखते हुए जीवन यापन किया जाये। प्रत्यक्ष सेवा उसको कहते हैं-जिसमें जीवन का प्रधान कार्य, सार्वजनिक कार्यों में लगे रहना होता है। सहसेवा वह है जिसमें मनुष्य अपना बचा हुआ समय दूसरों की सहायता में लगाता है या आवश्यकता पड़ने पर अपने दैनिक कार्यों में से परहित के लिए समय निकाल लेता है।

जो व्यापारी अभक्ष, मिलावटी नकली, खराब, कमजोर चीजें नहीं बेचता वरन् उपयोगी वस्तुएं बेच कर जनता की अभाव पूर्ति करता है, तौल, नाप, प्रामाणिकता और भाव में ईमानदारी बरतता है वह व्यापारी परोक्ष लोक सेवक है। यद्यपि वह अपने व्यापार को व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से ही चलाता है पर उसमें यह ध्यान रखता है कि यह कार्य दूसरों के लिए भी उपयोगी हो। ऐसे व्यवसाय से व्यापारी अपना उतना लाभ नहीं कर पाता जितना बेईमान दुकानदार कर लेते हैं फिर भी निश्चित रूप से उसकी ईमानदारी एक प्रकार की लोक सेवा है। इसी प्रकार कोई भी किसान, मजदूर, वकील, वैद्य, सरकारी कर्मचारी, कारीगर, अध्यापक, वैज्ञानिक, ईमानदारी से अपने कर्त्तव्य का पालन करता हुआ अनीति के द्वारा धन संचय का लाभ त्याग कर परोक्ष लोक सेवा के पुण्य का भागीदार हो सकता है।

प्रत्यक्ष सेवा की प्रत्यक्ष सेवाओं की, वर्तमान समाज में अत्यधिक आवश्यकता है। कारण यह है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में ऊंच नीच, धनी निर्धन, शासक शोषित, शिक्षित अशिक्षित, किसान जमींदार, सेठ मजदूर की बड़ी भारी विषमता फैली हुई है। सरकारी ढाँचा भी ऐसा बोदा है कि वह निर्बलों, गिरे हुए लोगों एवं विपत्ति ग्रस्तों की अधिक सहायता नहीं कर सकता। ऐसी दशा में कमजोरों की हिमायत करने उनकी तकलीफें दूर करने और ऊंचा उठाने के लिए सार्वजनिक कार्यकर्ता न हों तो पीड़ितों के कष्टों का ठिकाना न रहेगा। कितने ही उदार हृदय, दयालु भावना वाले, स्वार्थ त्यागी मनुष्य अपने आराम और लोभ को त्याग कर सार्वजनिक आन्दोलनों, संस्थाओं, सेवा केन्द्रों का संचालन करते हैं और गुजारे के लिए अनायास जो प्राप्त हो जाता है उसमें जीवन यात्रा चलाते रहते हैं। इस वर्ग को लोक सेवक न कह कर लोक सैनिक कहना उपयुक्त होगा। सैनिक अपना सारा समय राष्ट्र रक्षा में लगाता है और प्राण देने तक का त्याग करने के लिए हर घड़ी तैयार रहता है यही स्थिति लोक सैनिकों की होती है।

तीसरे सह सेवक हैं जो अपना कार्य ईमानदारी और समाज हित का ध्यान रखते हुए करते हैं साथ ही सार्वजनिक कार्यों के लिए यथाशक्ति कुछ न कुछ समय निकालते रहते हैं। उपयोगी संस्थाओं के कार्य में हाथ बटाना, सद्गुणों को बढ़ाने की सहायता करने एवं सत्कार्यों में प्रोत्साहन देने के लिए प्रयत्नशील रहना सद्सेवकों को बड़ा रुचिकर होता है। अपनी जीवनचर्या चलाने के लिए वे कमाते हैं साथ-साथ सेवा के अवसरों को भी हाथ से नहीं जाने देते। कोई विशेष आवश्यक सेवा सामने आ जाये तो अपना काम हर्जा करके भी उसे पूरा करते हैं।

परोक्ष सेवक होने की प्रत्येक नागरिक से आशा की जाती है। जो बेईमानी, बदमाशी ओर अनीति का आश्रय लेकर कमाता है वह कानूनी पकड़ एवं जनता की घृणा से बचा रहते हुए भी पापी एवं लोक घाती है। उसका वैभव कितना ही बढ़ जाये, चाटुकार उसे कितना ही घेरे रहें पर वह आत्म हत्यारा धर्मद्रोही होने के कारण ईश्वर के दरबार में अपराधी ठहराया जायगा। धर्म की, आत्मा की हर व्यक्ति से यह पुकार है कि वह पुण्य पथ पर अधिक अग्रसर न हो सके तो कम से कम ईमानदार नागरिक, चरित्रवान मनुष्य एवं परोक्ष लोक सेवक तो अवश्य ही बने। इस मर्यादा से नीचे गिरने वाला मनुष्य तो अपनी महानता के उत्तर दायित्व से भी गिर जाता है।

लोक सैनिकों को अपने पारिवारिक भारों को कम से कम रखना चाहिए। ऐसे व्यक्ति अविवाहित रहें तो सबसे अच्छा। विवाहित हों तो आगे के लिए संतान पैदा करना बंद कर दें। आश्रितों के लिए कोई ऐसा आधार बना सके कि वे उसकी सहायता की अपेक्षा न रखें तो सबसे अच्छा है। आश्रितों के आर्थिक उत्तरदायित्वों से लदा हुआ मनुष्य प्रायः ईमानदारी से, पूरी दिलचस्पी और शक्ति के साथ सार्वजनिक सेवा नहीं कर पाता। प्राचीन काल में वानप्रस्थ और संन्यास की व्यवस्था इसी लिए थी कि उस समय तक पर्याप्त मात्रा में अनुभव और ज्ञान इकट्ठा कर लें और छोटे बालकों के पालन पोषण के भार से निवृत्त होकर अपना शेष समय सार्वजनिक सेवा में लगाया जा सके । पर अब तो वह शृंखला भी टूट गई हैं इसलिए गृहस्थों को ही लोक सैनिक, सार्वजनिक कार्यकर्ता बनना पड़ता है। ऐसी दशा में वे कामचलाऊ वेतन लें तो इसमें कुछ अनुचित बात नहीं है।

सह सेवकों के लिए आकस्मिक या स्वल्पकालीन सेवाओं का वेतन या मुआवज़ा लेना निषिद्ध है। यदि लोग ऐसी छोटी मोटी सेवाओं का भी प्रतिफल माँगने लगे, लेने देने का प्रचलन हो गया तो सेवा की प्रथा और पवित्रता पूर्णतया नष्ट हो जायगी।

किसी के यहाँ मृत्यु हो जाने पर पास पड़ोस के लोग बिना कुछ मुआवज़ा लिए उस मृतक की अंत्येष्टि करने के लिए श्मशान को ले जाते हैं। यदि मुआवज़ा लेकर मुर्दा उठाने का रिवाज चल पड़े तो आज अंत्येष्टि में जाना जैसा पवित्र धर्म कार्य माना जाता है फिर वैसा न रहेगा। लोग मुर्दाफरासी का पेशा करने लगेंगे। इससे तो निर्धन जो अपने स्वजन की मृत्यु से दुखी है और भी अधिक कष्ट में पड़ जायेंगे। विवाह, शादी, रंजगमी, बीमारी मुसीबत में लोग एक दूसरे की सहायता बिना कुछ लिए करते हैं। पर्वों, उत्सवों, मेलों पर आने वाले स्त्रियों के लिए लोग सेवा समितियों द्वारा जल आदि की व्यवस्था करते हैं।

बाढ़, अग्निकाण्ड, भूकम्प, अकाल, मैला प्रबंध आदि में स्वयं सेवक सेवा कार्य करके दुखियों की सेवा करते हैं। सार्वजनिक संस्थाओं के कार्यकर्ता प्रायः अवैतनिक ही होते हैं। धार्मिक कथा, कीर्तन, यज्ञ, प्रचार जुलूस आदि में लोग श्रद्धा पूर्वक अपना समय देते हैं। यदि इन सब बातों के लिए वेतन मुआवज़ा या मजदूरी लेने की प्रथा चल पड़े तो एक ऐसी सत्यानाशी परम्परा कायम हो जायगी जिसके कारण सेवा नाम के पवित्र तत्व के लिए मानव जीवन में कोई स्थान ही न रह जायगा।

आत्मिक समृद्धियों में दैवी सम्पदाओं में सेवा सबसे बड़ी संपदा है। लोग भौतिक धन, ऐश्वर्य को इकट्ठा करने के लिए दिन रात चिन्ता और परिश्रम करते हैं। पर खेद की बात है कि आत्मा के साथ रहने वाली जन्म−जन्मांतरों तक सुख देने वाली आत्मिक सम्पत्ति सेवा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। जब तक सेवा भावना का जीवन में पर्याप्त संमिश्रण नहीं किया जाता तब तक कोई व्यक्ति आत्मिक शक्ति नहीं पा सकता, चाहे वह कितना ही धनी या पदाधिकारी क्यों न हों।


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