वार्तालाप में इन बातों का ध्यान रखिए।

July 1950

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

सम्भाषण काल का सर्वप्रथम नियम यह है कि दूसरे के “अहं” के विस्तार या फैलाव का खुला अवसर मिले। हममें से प्रत्येक अपने “अहं” के प्रकाश का अवसर देखा करता है। उसके मन में नाना प्रकार के कटु और मधुर अनुभव, भाँति-2 की स्मृतियाँ, अपनी दिलचस्पी, खूबियाँ या मजबूरियाँ प्रकट करने की गुप्त इच्छा वर्तमान रहती है। जब आप बातें करें, तो यह ध्यान रखिये कि दूसरे को भी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त हो। अपनी ही अपनी मत हाँकते रहिये प्रत्युत दूसरे की भी सुनिये। दूसरे के “अहं” को कुचल कर आप बातें आगे नहीं चला सकते। यदि आप दूसरे की न सुनेंगे तो कुछ काल पश्चात् उसका ढाढ़स विलुप्त हो जायगा और वह आपकी बातचीत में दिलचस्पी न लेगा।

अपना दृष्टिकोण इस प्रकार कीजिए कि दूसरे पर अनावश्यक जोर न पड़े। वह उन्मुक्त गति से बोलता रहे तथा अपनी व्यथा का भार हलका कर सके ।

आप दूसरों की सुनिये। संसार में सब लोग अपनी बात दूसरों को सुनाने के लिए आतुर हैं। दूसरों को सुनाने से वे एक संतोष, एक हलके पन का अनुभव करते हैं। उन्हें इस हलके पन का अनुभव करने दीजिये। इसके लिए यह आवश्यक है कि आप उनसे ऐसे प्रश्न पूछे जो उन्हीं से सम्बंधित हों। जिनमें उनकी थकी हुई मनोवृत्तियाँ तथा गुप्त अनुभव आपके सामने प्रकट हो सके। दूसरे की सब बातों को ध्यान से सुनिये, सम्वेदना और सहानुभूति का शीतल जल उनके घावों पर छिड़किए उनकी वीरता, तर्क, बुद्धिमता, ईमानदार विश्वास की उच्चता पर प्रसन्नता प्रकट कीजिये।

सत्यता और यथार्थवादिता की प्रशंसा कीजिये, ज्ञान, विज्ञता, और अध्ययन को स्वीकार कीजिये, उदारता, कुलीनता और प्रचुरता की दाद दीजिये जितनी दिलचस्पी आप उसकी आत्मनिर्भरता, स्थिरता, संतुलन सुस्थिरता में लेंगे, उतने ही आप उसे आकर्षक प्रतीत होंगे। चुपचाप दूसरे की सुनना बातचीत की कला की सफलता का एक गुण है। यदि आप शान्ति से दूसरों के दुख दर्द, पारिवारिक समस्याएं और कठिनाइयाँ सुनेंगे, तो सदैव उनके प्रिय बन सकेंगे।

प्रत्येक व्यक्ति अपनी आयु, स्वभाव, पेशा, दिलचस्पी, काल, परिस्थिति, मनोभाव के अनुसार बातचीत करना पसन्द करता है। बच्चों में गंभीर दर्शन शास्त्रों का विवेचन व्यर्थ है, विद्वान से बच्चों जैसी सरल बातें करना मूर्खता है। आनन्द में आनन्द और दुःख निराशा में सम्वेदना तथा सहानुभूति पूर्ण बातें ही रोचक प्रतीत होती हैं। अतएव सर्वप्रथम यह अनुमान लगाइये कि दूसरा व्यक्ति किस मनःस्थिति में है। उसकी मुखमुद्रा अनुभव, अंग संचालन, देख कर आप यह अनुमान बहुत अंशों में कर सकते हैं। यदि मूड पहचानने में आप गलती नहीं करते हैं, और उसी से मेल खाने वाला विषय प्रतिपादन करते हैं, तो बात आगे चलेगी अन्यथा दूसरा व्यक्ति एक संक्षिप्त उत्तर के पश्चात् चुप हो जायगा।

सम्भाषण में मुख मुद्रा चेहरे पर नाना भाव-विभाव का प्रकाशन विशिष्ट स्थान रखता है, साहित्य में जिन नव रसों का विधान हैं उनका प्रकाशन मुखमुद्रा एवं भाव भंगिमा से होना अपेक्षित है। यदि दूसरे की हास्यात्मक उक्ति सुन कर आप उत्फुल्लित न हुए, करुण कहानी सुन कर व्यथा की सम्वेदना के भाव आपके मुख पर प्रतिबिम्बित न हुए, या तर्क और गंभीर चिंतन ने आपको विचारशील न बनाया, तो दूसरे को आप पर कैसे विश्वास हो सकता है? वह आपका हृदय नहीं, मुख देखता है, उसकी प्रत्येक मुस्कान, लकीरें, भाव-भंगिमा, नेत्र संचालन, भ्रू-भंगिमा पढ़ता है। आपको अपने नाना भावों को एक सफल अभिनेता की भाँति चेहरे पर प्रकाशित करने की कला सीखनी चाहिए। करुणा, क्रोध, प्रेम, शान्ति, उल्लास, रौद्र, वीभत्स, इन सभी भावों के प्रकाशन की आवश्यकता सम्भाषण में पड़ सकती है। चुने हुए स्थानों पर विशेषतः भावावेश में अंग संचालन करना बातचीत को प्रभावशाली बनाता है। पत्थर की मूरत की भाँति निश्चेष्ट न खड़े रह कर सजीव भावुक की भाँति क्रियाकलाप करना बातचीत में नव स्फूर्ति नई-चेतना और उत्साह भरता है।

सम्भाषण कला एक सजीव, सप्रमाण कला है। सजीवता के तत्व का अधिक से अधिक समावेश बातचीत में कीजिये। सजीवता की सृष्टि करने वाले तत्वों को समझ लीजिए- (1) हास्य और प्रसन्नता (2) चुटीलापन-आपकी बातचीत में सरसता होनी चाहिए (3) ऐसे प्रसंगों, व्यक्तिगत अनुभवों, प्रमाणों, पुराने दृश्यों का उल्लेख कीजिये जिससे बातचीत का प्रवाह और क्रम अबाध रहे। दूसरों के साथ हंसिये और उसी भाव का प्रकाशन मुख पर कीजिये।

आपकी बातचीत संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी, वाक् वैदग्ध्यमुक्त हो और मुख्य विषय को आगे बढ़ाने वाली हो। उसमें क्रमानुसार चढ़ाव हो तथा वह एक चरम सीमा पर परिसमाप्ति प्राप्त करे।

बातचीत में स्वाभाविकता की नितान्त आवश्यकता है। ऐसे शब्दों का प्रयोग मत कीजिये जो अति गूढ, साहित्यिक या जटिल हों, या ऐसे अवतरणों का प्रयोग मत कीजिये जिसे दूसरा व्यक्ति न समझता हो। यदि आप विद्वान हैं, तो अपनी विद्वता कठिन, भारी भरकम, जटिल, शब्दावली द्वारा प्रदर्शित न कीजिए प्रत्युत सरल, सीधी, रोजमर्रा की भाषा का प्रयोग कीजिये।

यह ध्यान रखिये कि आपकी बातचीत वाद-विवाद का रूप ग्रहण न कर ले। बहस होने से कटुता और क्रोध की उत्पत्ति हो सकती है। इसी प्रकार वह भी ध्यान रखिये कि कहीं आप उपदेशक का रूप ग्रहण कर व्याख्यान न झाड़ने लगें, जिससे आपके वक्तव्य लम्बे, और निष्प्राण न हो जाय।

मित भाषण के साथ आपकी उक्तियों और विषय प्रतिपादन में तड़प व मर्म स्पृश्यता अनिवार्य है। आपका प्रत्येक वाक्य छोटा होते हुए भी अपना निजी महत्व रखता हो, चुस्त और सजीव हो, आपके चरित्र, तथा मनोभावनाओं का, प्राणों का उसमें स्पंदन हो।


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