(प्रो. श्री अगर चन्द नाहटा)
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय।
बिना साबुन पानी बिना, निरमल करे सुभाय॥
श्रवण, नयन, मुख, नासिका, सबही का इक ठौर।
हँसियौ, रभिवौ, वोलिवौ, चतुरन को कछु और॥
जो विषया सन्तन तजी, मूढ ताहि लपटात।
जो नर डारत वमन करि, स्यान स्वाद सौं स्रात॥
नानक नन्हें हे रहो, जैसी नन्हीं दूब।
बड़ी घास जल जायगी, दूब खूब की खूब॥
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबित रहा न कोय॥
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की, काटे कोटि उपाधि॥
तुलसी सोई चतुरता, सन्तचरन लवलीन।
परधन परमन हरन को, वेश्या बड़ी प्रवीन॥
रहिमन पाई बजे न को, लघु न दीजिए डार।
जहाँ काम आबे सुई, का करै तलवार॥
बालक हूँ तै सीखिए, उचि कहत जो होय।
सूर्य प्रकाशै जहाँ नहीं, दीप प्रकाश सोय॥
करत करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान।
रसरी आबत जात है सिल पर होत निशान॥
जैसी दृष्टि हराम पै, तैसी हर पै होय।
चला जाय बैकुँठ में, रोकि सकै नहिं कोय॥