माता लक्ष्मी का अपमान न होने पावे

July 1950

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(योगीराज श्री अरविन्द)

रुपया एक विश्वजनीन शक्ति का दृश्य-चिन्ह है। यह शक्ति भूलोक में प्रकट होकर प्राण और जड़ के क्षेत्र में अपना काम करती है। बाह्य जगत की पूर्णता के लिये यह अनिवार्य है। मूलतः और अपनी यथार्थ क्रिया में यह शक्ति है ईश्वर की ही। पर ईश्वर की अन्य शक्तियों के समान यह शक्ति भी पृथ्वी पर प्रेरित की गयी है और अपरा प्रकृति के अज्ञानान्धकार में अहंकार के उपयोगों के लिये इसका अपहरण हो सकता है या असुरों के कब्जे में आकर उनके मनोरथ को सफल करने के लिये यह विकृत की जा सकती है। यथार्थ में यह उन तीन शक्तियों में से-अधिकार, धन और स्त्री-एक है जिनकी ओर मानवी अहंकार और असुर सबसे अधिक आकर्षित होते हैं। और जो प्रायः ऐसे लोगों के हाथ में रहती हैं जिनके हाथ में ये न रहनी चाहिये और इन लोगों के द्वारा इन शक्तियों का बड़ा ही दुरुपयोग होता है। धन के चाहने वाले या धन के रखने वाले प्रायः धन के अधिकारी नहीं बल्कि धन के अधिकार में (वश) में रहते हैं, धन को असुरों ने जो इतने काल से अपने कब्जे में रखा है और इसका दुरुपयोग किया है, उससे धन पर उसकी ऐसी आसुरी छाप पड़ी हुई है कि इसके विकृत करने वाले प्रभाव से पूरे तौर पर शायद ही कोई बचता हो। इसीलिये अनेक साधन-मार्गों में धन के विषय में बड़े संयम, अनासक्ति और त्याग का कड़ा नियम है और धन रखने की वैयक्तिक और अहंकारयुक्त इच्छा का बड़ा निषेध है। कुछ तो धन को छूना ही पाप समझते हैं और दरिद्रता एवं अपरिग्रह को ही एक मात्र, अध्यात्मजीवन की अवस्था मानते हैं। पर वह भूल है, इससे यह शक्ति दानवी शक्तियों के ही हाथ में रह जाती है। सारा धन ईश्वर का है और साधक के लिये श्रेष्ठ परा बुद्धि का मार्ग यही है कि ईश्वर के लिये इसे फिर जीत ले और दैवी पद्धति से दैवी जीवन के लिये इसका उपयोग करे।

धन की शक्ति, उसके द्वारा प्राप्त साधनों और उससे बनने वाले काम से तुम्हें वैरागियों की तरह भागना भी नहीं चाहिये, न इन चीजों के प्रति तुम्हारे मन में कोई राजसिक आसक्ति ही हो चाहिये और न इनके भोग की दासता में ही पड़े रहना चाहिये। धन को केवल यह समझो कि यह एक शक्ति है जिसे माता की सेवा लिये फिर जीत लाना होगा और लाकर माता के ही चरणों में अर्पण करना होगा।

सारा धन भगवान् का है और आज यह जिन लोगों के हाथ में है वे केवल उसके ट्रस्टी हैं, मालिक नहीं। आज यह उनके पास है कल और किसी के पास हो सकता है। जब तक यह इनके हाथ में है तब तक इस ट्रस्ट को ये लोग कैसे निबाहते हैं, किस भाव से निबाहते हैं, किस चेतना से उसका उपयोग करते हैं-इसी एक बात पर सारी बात निर्भर करती है।

अपने वैयक्तिक काम में जब तुम इस धन का उपयोग करो तब यह समझो कि जो कुछ तुम्हारे पास है, जो कुछ तुम्हें मिलता है या जो कुछ तुम ले आते हो, वह सब माता का है। स्वयं कुछ भी मत चाहो, जो कुछ वह तुम्हें दे दे उसी को ग्रहण करो और उसी काम में उसका उपयोग करो जिस काम के लिये वह तुम्हें दिया गया हो। नितान्त निःस्वार्थ, पूर्ण प्रामाणिक, पूरा-पूरा हिसाब रखने वाले और तफसील की एक एक बात में पूरी सावधानी रखने वाले उत्तम ट्रस्टी बनो, सदा यह ध्यान रखो कि यह उनका धन है, तुम्हारा नहीं जो तुम व्यवहार कर रहे हो। इसके विपरीत, जो कुछ तुम्हें उनके लिए मिलता है, श्रद्धा के साथ उसे उनके सामने रखो, अपने किसी काम में या किसी गैर के काम में उसे मत लगाओ।

कोई मनुष्य धनी है केवल इसीलिए उसके सामने अपना सिर नीचा नहीं करो, उसकी चमक-दमक शक्ति या प्रभाव के वशीभूत मत हो। जब तुम माता के लिये माँगते हो तब तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि तुम्हारे द्वारा माता ही माँग रही हैं और अपनी ही चीज का किंचित अंश माँग रही है, इस तरह जिस आदमी से तुम माँगो वह इसका क्या प्रत्युत्तर देता है उसी से उसकी परीक्षा होगी।

यदि धन की आसक्ति के लेप से तुम मुक्त हो, पर वैरागियों की तरह तुम उससे भागते भी नहीं हो तो ईश्वरीय कर्म के लिए धन प्रस्तुत करने की अधिकतर शक्ति तुम्हें प्राप्त होगी मन-में समता हो, पूरी निस्पृहता हो और जो कुछ तुम्हारे पास है और जो कुछ तुम्हें मिले और जितनी भी अर्जन करने की शक्ति तुम्हारे अन्दर है, वह सब माता के चरणों में माता के ही कार्य के लिये पूर्ण समर्पण हो ये ही तो इस मुक्ति के लक्षण हैं। धन और उसके उपयोग के सम्बन्ध में मन की कोई चंचलता, कोई माँग, कोई ईर्ष्या किसी-न-किसी अपूर्णता या बद्धता का निश्चित लक्षण है।

इस विषय में उत्तम साधक वही है जो दरिद्रता के साथ रहने को कहा जाय तो दरिद्रता के साथ रहे, किसी भी अभाव की वेदना उसे न हो और उसकी दैवी स्थिति के पूर्ण आन्तरिक आनन्द की क्रीड़ा में उससे कुछ भी बाधा न पड़े और वही फिर, वैभव के साथ रहने को कहा जाय तो वैभव के साथ रहे और अपने धन की आसक्ति या वासना में एक क्षण के लिये भी पतित न हो, या उन चीजों से भी आसक्त न हो जिनका वह उपयोग करता है, या उस भोग की दासता में न हो या धन की अधिकारिता द्वारा निर्मित अभ्यासों से दुर्बल की तरह आसक्त न हो। उसके लिये तो भगवान् की इच्छा और भागवत-आनन्द ही सब कुछ है।

दिव्य सृष्टि में धन शक्ति भगवती को ही पुनः प्राप्त कर देनी होगी और उसे एक सत्यमय, सुन्दर और सामंजस्यमय सजावट (संघटन) के लिये, उपयोग में लाना होगा। भगवती माता अपनी सृष्टिशक्ति-सम्पन्न दृष्टि के अनुसार जैसी व्यवस्था करेगी उसी व्यवस्था के अनुसार एक नवीन दिव्यालोकित प्राणमय और जड़मय जीवन का सिलसिला बाँधने के लिये इसका उपयोग करना होगा। पर इससे पहले यह धनशक्ति उनके लिये जीत कर लौटा लानी होगी और इस विजय यात्रा में वे ही सबसे अधिक बलवान होंगे जो अपने स्वभाव के इस अंश में प्रभावशाली और उदार और अहंकार रहित होंगे और अपने लिये कुछ माँगे बिना या बचाकर रखे बिना, निःसंकोच आत्मसमर्पित होकर भागवत महाशक्ति के युद्ध और बलवान् साधन बनेंगे।


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