दुश्चिंता करना एक रोग है।

August 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री रामखेलाव जी चौधरी, बी. ए.)

मनुष्य के सारे ज्ञान, विज्ञान और कला का उद्देश्य सुख और शाँति है। खेद है कि अब तक जितना पसीना मनुष्य ने इस नस की उन्नति में बहाया है, उसके बदले में बिल्कुल उल्टी चीजें उसे प्राप्त हुई हैं, वे हैं-चिन्ता, दुख, विग्रह और अशाँति। आज का साहित्य जिसका सृजन आत्म संतोष के लिए होना चाहिए था मन में प्रायः निराशा और अशाँति का बीज बोता है और विज्ञान ने, जिसकी उन्नति से सुख के अनेक साधन उपलब्ध हो सकते हैं, हमें दिया है संघर्ष की प्रवृत्ति और संहार की चेष्टा। आधुनिक सभ्यता के परिणाम स्वरूप ही मनुष्य ने अनेक शारीरिक रोगों के साथ-साथ मानसिक रोग भी प्राप्त कर लिए हैं। मानसिक रोगों में सबसे अधिक दुखदायी है-दुश्चिन्ताओं का रोग।

एक प्रसिद्ध लेखक ने दुश्चिन्ता के कारण होने वाले गंभीर परिणामों के संबंध में लिखते हुए बताया है कि वे ‘व्यवसायों को दुश्चिन्ताओं से विधि-पूर्वक लड़ना नहीं जानते, अल्पकाल में ही मर जाते हैं।’ चिन्ता मनुष्य की इतनी जीवन शक्ति का अपव्यय करती है कि थोड़े दिनों में ही वह काल का ग्रास बन जाता है।

डॉक्टर लोग ही बता सकते हैं कि दुश्चिन्ता करने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, एक साधारण व्यक्ति प्रायः यह समझता ही नहीं कि चिन्ता करने से न केवल उसका सुख नष्ट होता है, वरन् स्वास्थ्य भी नष्ट हो जाता है। चिन्ता करने से मानव शरीर पर क्या कुप्रभाव पड़ते हैं, इसकी खोज पाश्चात्य देशों में हो रही है। इस मनोरंजक किन्तु महत्वपूर्ण विषय को समझने के लिए अच्छा होगा कि प्रसिद्ध लेखक डन बर कृत- ‘मनोभाव और शारीरिक परिवर्तन’

(Emotions and bodily changes) नाम की पुस्तक को अच्छी तरह पढ़ीं जाये। उसमें अच्छी तरह लेखक ने विश्लेषण किया है कि शायद ही शरीर का कोई ऐसा अंग और प्रधान क्रिया-प्रणाली हो जिस पर मनोभावों का प्रभाव न पड़ता हो। और दुश्चिन्ता-यह सब से अधिक संवेदनात्मक मनोभाव है। इन के द्वारा उत्पन्न होने वाली शारीरिक अव्यवस्थाओं में सबसे मुख्य स्नायु-दौर्बल्य है। इसलिए हमें निम्नलिखित बातें याद रखनी चाहिए-

(1) चिन्ता करने से हृदय दुर्बल पड़ जाता है। उसकी स्वाभाविक गति नष्ट हो जाती है।

(2) रक्त-चाप की बीमारी भी अत्यधिक चिन्ता के कारण होती है।

(3) वायु प्रकोप, शूल और गठियाबाई जैसे भीषण रोग जिसे मोल लेने हों वह चिन्ता करे।

(4) अपने पेट को ठीक रखना है तो चिन्ता मत करो।

(5) चिन्ता के कारण ही जुकाम और खाँसी जैसे साधारण रोग पैदा होते रहते हैं।

(6) दुश्चिन्ता का कुप्रभाव शरीर को विकसित करने वाली ग्रन्थियों पर पड़ता है।

(7) चिन्ता के कारण भोजन में अरुचि पैदा हो जाती है और पाचन-क्रिया गड़बड़ हो जाती है।

इन सब बातों के आधार पर दावे के साथ कहा जा सकता है कि मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु रोग-क्षय से पीड़ित रोगियों में सबसे अधिक संख्या उनकी है जिन्होंने रात-दिन दुश्चिन्तायें करके अपने शत्रु को बुलाया है।

चिन्ता पीड़ित व्यक्ति के लक्षण -

(1) चिन्तित व्यक्ति हमेशा दुखी बना रहता है। उसके पेट में और सिर में प्रायः दर्द बना रहता है। स्वास्थ्य के मुख्य आधारभूत अंग पेट और सिर ही हैं और यह दोनों ही दुश्चिंता करने से भारी बने रहते हैं।

(2) दुश्चिंता करने वाला व्यक्ति कायर हो जाता है और कायरता की यह प्रवृत्ति विशेष रूप से उन मौकों पर परिलक्षित होती है जब उसे बाह्य संसार की वास्तविकता का सामना करना पड़ता है। उसे सदैव भयंकर हानि का खतरा अनुभव हुआ करता है। कभी- कभी तो वह अकारण ही भयभीत हो जाया करता है।

(3) चिन्ताशील व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है। दूसरों के प्रति उस के मन में संदेह बना ही रहता है। चाहे जितना उसका उत्साह वर्धन किया जाय, उसे असफलता ही नजर आती है।

(4) उस में आवश्यकता से अधिक झुँझलाने की आदत पैदा हो जाती है। कभी-कभी उसके साथ अन्य लोगों का उठना-बैठना भी कठिन हो जाता है। वह अपनी अस्थिरता को छिपाने की चेष्टा करता है पर उसकी चेष्टा बेकार सिद्ध होती है। जरा-जरा सी बात पर उसका खून खौल उठता है।

(5) वह अत्यन्त अनुभूतिशील और आवश्यकता से अधिक सम्मान प्रिय होता है। इसलिए समाज के प्रति उसका दृष्टिकोण गलत और अतिरंजित होता है। वह अपने ही मित्रों, प्रियजनों, परिजनों और परिवारजनों के कार्यों और कथन का उल्टा अर्थ लगाता है, कभी हर बात में वह अपना ही दोष समझता है। इस प्रकार वह अपना जीवन बहुत दुखी बना लेता है।

(6) वह प्रायः नैराश्यपूर्ण भावों से ओत-प्रोत रहता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि उसे निराशा में ही आनन्द आता है, अन्यथा वह उन तामसिक भावों में इतना लीन क्यों रहता। पर चिन्ता पीड़ित व्यक्ति उन भावों से छुटकारा पाना चाहता है। वह उनसे पीछा छुड़ाने में बिल्कुल असमर्थ हो जाता है।

इन मनोवैज्ञानिक लक्षणों के अतिरिक्त कुछ शारीरिक लक्षण भी चिन्ता ग्रस्त व्यक्ति में पाये जाते हैं।

(7) चिन्ता करने से बड़ी जल्दी थकावट आ जाती है। ऐसा जान पड़ता है कि शरीर और मन दोनों थक गए हों। ऐसी थकावट हर समय बनी रहती है और यह भी हो सकता है कि थोड़ी-थोड़ी देर पर काम के बीच में भारी थकावट जान पड़े। जहाँ चिंता है, वहाँ थकावट अवश्य होगी।

(8) भोजन में भी अरुचि हो जाती है। थूक निकालने वाली और अन्य पाचक ग्रन्थियाँ अपना काम बंद कर देती हैं। अच्छे से अच्छे भोजन में स्वाद नहीं मिलता।

(9) काम-प्रवृत्ति भी कुँठित हो जाती है। चिन्तकों में रति की भावना कम ही हो जाती है। बहुतेरे चिन्तनशील अपना पुंसत्व तक खो बैठे हैं।

(10) कोष्ठबद्धता का रोग आ घेरता है। कोष्ठबद्धता से चिन्ता और चिन्ता से कोष्ठबद्धता एक दूषित चक्कर सा बन जाता है।

(11) गहरी नींद भी नहीं आती। चिंता के बोझ से मनुष्य को नींद नहीं आती और अगर वह सो भी जाय तो थोड़ी-थोड़ी देर पर आँख खुल जाती है। जहाँ नींद टूटी, दुश्चिन्तायें फिर आकर घेर लेती हैं।

(12) अव्यक्त पीड़ा भी इसका एक लक्षण है। यह पीड़ा किसी विशेष अंग में टिकाऊ नहीं होती। कभी छाती में, कभी पीठ में, कभी पेट में और कभी सिर में, भिन्न-भिन्न अंगों में चक्कर लगाया करती है।

(13) चिन्ता पीड़ित व्यक्ति हमेशा कहा करता है- ‘कुछ समझ में नहीं आता।’ उसका दिमाग हल्का जान पड़ता है। यह वह स्थिति है जब चिन्ता मस्तिष्क की स्वाभाविक क्रियाओं को अस्त-व्यस्त कर डालती है।

अब ऊपर दी हुई लक्षण-रेखाओं के आधार पर आप अपने मनोपटल पर एक चिन्ता पीड़ित व्यक्ति का चित्र अंकित करें। वह होगा दुर्बल, उत्साह हीन व्यक्ति जो जीवन को केवल भार समझ कर हो रहा होगा। उसके लंबे चेहरे, गड्ढ़े में धंसी हुई आँखें और पिचके हुए गालों पर दुश्चिन्ता के अभिशाप की छाया अंकित होगी। यह चित्र जिस प्रकार के मानव का प्रतिरूप होगा, उसे चिराग लेकर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं, वह आज भारत के घर-घर में पाया जाता है। उसने अपने जीवन को दुखी बनाने के साथ, सारे परिवार और अपने आस- पास के पड़ौसियों को दुखी बनाया है। देश को नन्दन वन बनाने की सारी योजनाओं पर पानी फिर जाएगा। यदि इन चिन्ता पीड़ित मनुष्यों का उपचार न हुआ तो इसके लिए हमें बड़े-बड़े अस्पताल खोलने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि निम्नलिखित संदेश घर-घर पहुँचाये जायं और हर व्यक्ति से कहा जाय इन पर विचार करो और अमल करो -

(1) सुख और दुख, संतोष और असंतोष, रुचि और अरुचि-यह सब मनोदशाएं हैं। हमारे मन में यह बाहर से नहीं आकर घुसतीं, यह मानसिक हैं। इन मनोदशाओं को हम स्वयं अनुभव और अभ्यास के द्वारा पैदा करते हैं। इसलिए इन्हीं के बल पर ये दशाएं बदल सकती हैं।

(2) हमारे मनोभाव आँशिक रूप में बाह्य परिस्थितियों और उपादानों के कारण जाग्रत होते हैं। अगर हम अपनी बाहरी परिस्थितियों को बदल डालें, तो चिन्ता से बहुत कुछ मुक्ति मिल सकती है। यदि बदल न सकें, तो उन्हीं के अनुरूप अपने को अभ्यस्त बना डालें।

(3) हम चिन्ताओं, परेशानियों, दुःख और स्थायी मनस्ताप को इस प्रकार दूर भगा देंगे -

(अ) भावुकता के स्थान पर सुलझे हुए विचारों को स्थान देंगे।

(ब) अपनी परेशानियों का अच्छी तरह विश्लेषण करेंगे।

(स) अतीत की दुखदायी स्मृति को नयी और हरी करने वाली बातों से अलग रहेंगे।

(द) भावुकता को बलपूर्वक दमन करके शाँति की आराधना करेंगे।

(4) अपने परिवार के साथ अपने संबंध पर पुनः विचार हम करें और जरा-जरा सी बात पर बिगड़ना छोड़ दें।

याद रखिए, चिंता सबसे भयानक रोग है। चिंता मनुष्य के शरीर को जलाती है, चिंता शरीर और आत्मा दोनों को जीवित अवस्था में राख की ढेरी बना देती है। इससे मुक्त होने में केवल प्रयत्न की आवश्यकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118