प्रयाण की बेला में

August 1949

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(कुँवर हरिश्चन्द्र देव वर्मा ‘चातक’)

(1)

चलना है तो चल रे भाई! चलना है तो चल!

कितने दिवस मूँदकर आँखें चले गये चुपचाप।

कितनी रातें गई शेष इसकी क्या है कुछ छाप?

तू ही एक पड़ा सोता है अब भी हाय! सँभल!

चलना है तो चल रे भाई! चलना है तो चल!

(2)

अपनी धुन में मस्त किसी की सुनती हैं कब बात।

चलती ही जाती हैं लहरें, चलना है दिन रात।

मार थपेड़े तट से कहतीं “तू क्यों पड़ा अचल”

चलना है तो चल रे प्यारे! चलना हे तो चल!

(3)

नन्हीं सी बालिका सुरभि को जाना है उस देश।

चिन्तित सुमन पवन बोला यों करते हुये प्रवेश॥

‘मैं चलता हूँ साथ चले वह, चिंता है निष्फल’

चलना है तो चल रे! झटपट चलना है तो चल!

(4)

नभ का पथिक बढ़ाता जल्दी-जल्दी अपने पैर।

कहीं किसी से मिल कर उसको भी करनी है सैर।

उसको जाते देख घरों को पंछी चले विकल।

चलना है तो चल रे भाई! चलना है तो चल!

(5)

यह जो रूप रंग की चलती फिरती सी तस्वीर।

जिसे देख करके पैरों में पड़ जाती जंजीर॥

चला जा रहा रूप रंग यह उसका भी प्रतिफल।

चलना है तो चल रे प्यारे! चलना है तो चल॥

(6)

जब सब अपने घर जाते हैं तब तू भी घर ध्यान।

अपने घर को चल दे प्यारे! मत हो अब हैरान॥

कहीं हाथ से तेरे भी यह समय न जाय निकल।

चलना है तो चल झटपट! चलना है तो चल!

-कर्मयोग

*समाप्त*


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