श्रावणी पर्व का संदेश

August 1949

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श्रावण सुदी पूर्णमासी को श्रावणी का त्यौहार होता है। यह ‘ज्ञान का पर्व’ है। सद्ज्ञान, विद्या, बुद्धि, विवेक और धर्म की बुद्धि के लिए इसे बनाया गया है। इसलिए इसे ब्राह्म पर्व भी कहते हैं। वेद का प्रारंभ इस त्यौहार से किया जाता है। इस दिन से लेकर भाद्रपद बदी सप्तमी तक एक सप्ताह वेद प्रचार की प्रथा चिरकाल से प्रचलित है। प्राचीन काल में इस त्यौहार के अवसर पर गुरुकुलों में नये छात्र प्रवेश होते थे। जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ, उन्हें यज्ञोपवीत दिये जाते थे। गुरु शिष्य के परम पवित्र एवं अत्यन्त आवश्यक संबंध की स्थापना होती थी। वेद मन्त्रों से मंत्रित किया हुआ रक्षा सूत्र आचार्य लोग अपने शिष्यों के हाथ में बाँधते थे, यह सूत्र उनकी रक्षा करता था। और उन्हें धर्म प्रतिज्ञा के बंधन में बाँधता था। बहिनें अपने भाइयों के हाथों राखी बाँध कर या भुजरियाँ (गेहूँ या जौ के दिन बढ़े हुए अंकुर) देकर भाइयों को यह याद दिलाती थीं कि बहिनों की रक्षा के लिए उनका क्या कर्त्तव्य है? भाई उसके बदले में उन्हें आश्वासन के रूप में कुछ उपहार देते थे, मानों वे कहते हों कि हम पूरी तरह सावधान हैं और बहिनों के ऊपर, नारी जाति के ऊपर, कोई विपत्ति आवेगी तो हम प्राण देकर भी उसका निवारण करेंगे। उस दिन नये-नये लता, पुष्प, वृक्ष आदि लगाकर संसार की शोभा और समृद्धि बढ़ाने के लिए प्रयत्न किया जाता था।

प्राचीन काल में श्रावणी पर्व का यह महत्व था। पर आज तो चिह्न पूजा मात्र रह गई है। पकवान, सैंवइ, भात आदि विशेष भोजन खाना, ब्राह्मणों का घर-घर राखी बाँध कर पैसे माँगते फिरना, लोगों का श्रद्धा या अश्रद्धा से उन राखी बाँधने वालों को पैसा धेला देकर पीछा छुड़ाना, लड़कियों का भुजरियाँ बाँधना-बदले में बाप, भाई आदि द्वारा कुछ पैसे मिल जाना। बस आज तो इतनी ही चिह्न पूजा रह गई है।

सब से प्रधान, सबसे अधिक महत्वपूर्ण इस श्रावणी पर्व की ऐसी दुर्दशा होना खेदजनक है। चिह्न पूजा से काम न चलेगा, अब हमें अपने पूजनीय पूर्वजों द्वारा बड़े गंभीर सोच-विचार के साथ बनाये हुए इस त्यौहार का महत्व समझना और उनसे लाभ उठाना होगा, तभी हम अपने गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेंगे और अज्ञान निशा को नष्ट कर सकेंगे।

(1) श्रावणी को वेद पूजा होती है। वेद का अर्थ है-धर्म पूर्ण ज्ञान। चारों वेदों में जितना ज्ञान भरा पड़ा है वह सब धर्मपूर्ण है। उसको समझने और अपनाने से जीवन सब प्रकार की सुख शाँति से भर जाता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों जीवन फलों की प्राप्ति होती है। मनुष्य का शरीर बहुत ही तुच्छ है, इसके हाड़ माँस आदि को बाजार में बेचा जाए तो उसकी कीमत करीब पौने पन्द्रह आना होती है। इससे तो पशुओं का शरीर कहीं अधिक मूल्यवान है। शारीरिक बल में पशु मनुष्य से अधिक बलवान होते हैं फिर भी मनुष्य सब प्राणियों से शिरोमणि है, यह उच्च स्थान उसे बुद्धि बल के कारण ही मिला है। जिसमें जितना अधिक ज्ञान है वह उतना ही बड़ा है। एक कुली और एक बैरिस्टर के शरीर में बहुत अंतर नहीं होता पर उन दोनों में जो बुद्धिबल का अंतर है उसी के कारण उनकी स्थिति में भारी अंतर रहता है। मनुष्य प्राणी में जो चमत्कारी शक्तियाँ हैं वह उसके मस्तिष्क में हैं। मस्तिष्क के द्वारा ही वह असुर या देवता, दरिद्र या धनपति, तिरस्कृत या पूजनीय, रोगी या बलवान बनता है। इसीलिए ज्ञान बल को सबसे ऊंचा स्थान दिया गया है। इस ज्ञान के, बुद्धि, मस्तिष्क के परिमार्जन के लिए ही वेद की पूजा की जाती है। वेदों के मन्त्र-सद्ज्ञान के भण्डार हैं। उनके पढ़ने, सुनने, समझने और आचरण करने से सद्ज्ञान बढ़ता है। असद्ज्ञान तो चाहे जहाँ मिल सकता है पर सद्ज्ञान के लिए वेद का ही आश्रय लेना पड़ता है। वहाँ एक बात और भी स्मरण रखनी चाहिए कि वेद का ज्ञान परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य की आत्मा को दिया हुआ है। बिना पढ़े लोग भी अपनी अन्तरात्मा में वेद की वाणी सुन सकते हैं।

वेद पूजा से, ज्ञान की महत्ता, प्रतिष्ठा और उपयोगिता को मनुष्य समझता है और उसकी श्रद्धा ज्ञान में बढ़ती है, इसीलिए श्रावणी पर्व के अवसर पर वेद पूजा का विधान है।

(2) यज्ञोपवीत में नौ तार होते हैं यह नौ सूत, नौ गुणों के प्रतीक हैं। तीन लड़ों से प्रत्येक में तीन तार होते हैं। यह तीन लड़ें जीवन के तीन प्रधान अंगों का संदेश देती हैं। जीवन तीन भागों में विभक्त है (1) आत्मिक क्षेत्र (2) बौद्धिक क्षेत्र (3) सांसारिक क्षेत्र। यही यज्ञोपवीत की तीन लड़ें हैं। इनमें से हर एक में जो तीन-तीन तार हैं उनका तात्पर्य उन तीन-तीन गुणों से है जो इस प्रत्येक क्षेत्र के अंतर्गत होते हैं। आत्मिक क्षेत्र की तीन सम्पत्तियाँ है। (1) विवेक (2) पवित्रता (3) शान्ति। बौद्धिक क्षेत्र की तीन सम्पत्तियाँ है। (1) साहस (2) स्थिरता (3) कर्त्तव्य निष्ठा। सांसारिक क्षेत्र की तीन सम्पत्तियाँ हैं। (1) स्वास्थ्य (2) धन (3) सहयोग। इस प्रकार यह गुण मनुष्य के लिए आवश्यक हैं। जिसमें यह नौ गुण नहीं है जो इन नौ गुणों को प्राप्त करने की इच्छा या कोशिश भी नहीं करता वह शूद्र है। जन्म से सभी मूर्ख, नासमझ, पशुतुल्य होते हैं पर बड़े होने पर जीवन के तीन क्षेत्रों में विकास करने और प्रत्येक क्षेत्र में तीन-तीन गुण प्राप्त करने के महत्व को समझ लेता है और उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न आरंभ कर देता है तो उसका नया जन्म हुआ-दूसरा जन्म हुआ-समझा जाता है। यही द्विजत्व है। इस द्विजत्व की-नौ गुणों के विकास की जिम्मेदारी कंधे पर सदैव धारण किये रहने के चिह्न स्वरूप तीन तार का जनेऊ धारण किया जाता है।

श्रावणी के दिन पुराना यज्ञोपवीत बदल कर नया धारण करते हैं अर्थात् उस जिम्मेदारी को नये सिरे से स्मरण करते हैं। तात्पर्य यह है कि हम ऐसे ज्ञान को ग्रहण करें जिससे मानव जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक इन परम पुनीत नौ दिव्य सम्पत्तियों की प्राप्ति हो सके।

जिनका यज्ञोपवीत संस्कार पहले नहीं हुआ है उन सबको सामूहिक रूप से श्रावणी पर्व पर यज्ञोपवीत लेना चाहिए। शूद्र वे हैं जिनकी चेतना अत्यन्त जड़, पशु तुल्य है, जिनमें आत्मोन्नति के लिए कोई आकाँक्षा नहीं, ऐसे मानव पाषाणों के लिए यज्ञोपवीत का भला क्या महत्व हो सकता है? उनके लिए उसे धारण करना भी बेकार है। सूत का अनावश्यक दुरुपयोग न हो यह सोचकर हमारे धर्माचार्यों ने ऐसे जड़ बुद्धि लोगों के लिए-शूद्रों के लिए- यज्ञोपवीत धारण का निषेध कर दिया है। ऐसे लोग यदि पहनें भी तो बेचारे यज्ञोपवीत को और लजावेंगे। यज्ञोपवीत पहनते समय, बदलते समय और उसे धारण करते समय उन सब तथ्यों पर काफी मनन करना चाहिए, जो यज्ञोपवीत के साथ सन्निहित हैं।

(3) रक्षा बन्धन का तात्पर्य है गुरुजनों से आशीर्वाद प्राप्त करना। माता-पिता, गुरु तथा इनके समक्ष और भी जो गुरुजन हैं, उनकी पूजा, प्रतिष्ठा, वंदना करना, गुरु पूजा कहलाती है। चाचा, ताऊ, चाची ताई, बाबा, दादी, बड़े भाई, बड़ी भावज, बुआ, बड़ी बहिन, अध्यापक, पुरोहित, स्वामी, यह सब गुरुजन हैं। इनके निकट जाकर उनके चरण स्पर्श करना, हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक उनके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता के भाव प्रकट करना, जो भूलें हुई हैं, उनके लिए क्षमा माँगना, कृपा रखने एवं आशीर्वाद देने की प्रार्थना करना। यह रक्षा बंधन की प्रार्थना है। इस प्रार्थना के प्रत्युत्तर में गुरुजन अपने सहज वात्सल्य से प्रेरित होकर प्रार्थी को आशीर्वाद देते हैं, और अपने आशीर्वाद का प्रतीक एक रक्षा सूत्र उनके दाहिने हाथ में बाँधते हैं। यह रक्षा सूत्र हाथ का कता हुआ हल्दी, रोली या केशर से रंगा हुआ होना चाहिए। बाजारू सूत से बनी हुई चमकदार राखियाँ इस कार्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। गुरुजनों को अपने हाथ से सूत कात कर यह राखी बनानी चाहिए। जिससे गाँधी का प्रिय चक्र सुदर्शन-चर्खा चलना वे भूलने न पावें और पवित्रतम भावनाओं के साथ स्वयं ही रक्षा सूत्र तैयार करें।

राखी बँधवाने के बदले में गुरुजनों को पैसे बाँटना आवश्यक नहीं। गुरुजन बच्चे नहीं होते जिन्हें पैसे देकर प्रसन्न किया जा सके और न वे भिक्षुक होते हैं जिन्हें किसी लोभ से रक्षा बंधन बाँधने का प्रयोजन हो। हाँ, लोक सेवी ब्रह्मकर्मा पुरोहित को अन्य पर्वों की भाँति इस पर्व पर भी दान करना चाहिए, चाहे उसे रक्षा बंधन की दक्षिणा कहा जाए या और कुछ। क्योंकि यदि लोक सेवी व्यक्तियों के निर्वाह एवं लोकहित के कार्यों के लिए मुक्त हस्त से दान देने की परम्परा कायम रखी जाएगी तो ही संसार में धर्म वृद्धि होगी, कंजूसी तो एक प्रकार की अनावृष्टि है जिसके कारण सार्वजनिक धर्म वृद्धि की, सुख शाँति की, खेती सूख जाती है।

(4) बहिनें भाइयों को राखी बाँधती हैं। अर्थात् वे स्मरण दिलाती हैं कि उनका उत्तरदायित्व केवल अपने ही बाल बच्चों की रक्षा तक सीमित नहीं है, वरन् बहिनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उनकी है। जो जाति अपनी नारियों के कष्ट को दूर करने का, उन्हें सब प्रकार सुखी बनाने का, उनकी ओर कुदृष्टि करने वालों को मजा चखाने का कर्त्तव्य पालन नहीं करती, वह जाति नष्ट हो जाती है, उसमें वर्ण संकर पैदा होते हैं और पारिवारिक सुख-शाँति मिट कर कपट, क्लेश और द्वेष का साम्राज्य छा जाता है। इसलिए बहिनों की रक्षा के लिए राखी बाँधी जाती है। यहाँ बहिन समस्त नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती है और भाई को कर्त्तव्य बंधन में बाँधती है कि पौरुष युक्त पुष्प होने के नाते नारी जाति की ओर से भेजी हुई यह राखी-चुनौती के रूप में तुम्हारे हाथ में बाँधी जाती है। हम बहिन, बुआ या बेटी अपनी रक्षा के लिए केवल पति पक्ष पर ही निर्भर नहीं हैं वरन् भाइयों को भी अपने सुरक्षा के लिए प्रतिज्ञा बद्ध करती हैं। किसी अत्याचारी द्वारा बलात् किसी नारी पर इसलिए अत्याचार न होने पाये, चूँकि वह नारी है, अबला है, अशक्त है, अन्यायी से बदला नहीं ले सकती। तुम्हारा बल हर अबला की न्यायोचित सहायता के लिए ढाल बने यही राखी की चुनौती है।

(5) भुजरियों का आरोपण और उनकी पूजा यह वृक्षारोपण महोत्सव की चिह्न पूजा है। श्रावणी के अवसर पर वृक्ष, फल, पुष्प, पौधे लता, औषधि, घास आदि वनस्पतियों का उत्पादन संसार की कितनी बड़ी सेवा है और इससे प्राणियों का कितना बड़ा हित होता है इस पर जितना विचार किया जाय उतना ही महत्व प्रकट होता है। वायु में फैले हुए विषैले तत्व (कार्बन) को वृक्ष खाते हैं और बदले में प्राणप्रद वायु (ऑक्सीजन) हमें प्रदान करते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि वर्षा वहीं अधिक होती है जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं, जिस प्रदेश में वृक्ष कम हो जाते हैं वहाँ वर्षा भी कम होने लगती है। पत्तियों की खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। लकड़ी दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तु है, हर मनुष्य जलाने में, मकान में, चारपाई में, फर्नीचर में, व्यवसायिक कार्यों में, लकड़ी खर्च करता है, यदि उस खर्च के बदले में पैदावार न बढ़ाई जाय तो धीरे-धीरे लकड़ी का अकाल पड़ने लगेगा। वृक्षों की छाया में अनेक प्राणी आराम पाते हैं, उनके फलों में प्राण पोषक विटामिन तत्व होते हैं जो स्वास्थ्य रक्षा के आवश्यक अंग है, फूलों की सुगन्ध और सौंदर्य से नेत्र और मस्तिष्क को बड़ी शीतलता मिलती है। औषधियों की जड़ी बूटियाँ तो एक प्रकार की अमृत प्रतिमा ही हैं, उनसे कितने ही रोगी, अकाल मृत्यु के मुख में जाते-जाते बच जाते हैं और कठिन बीमारियों से छुटकारा पाते हैं। छप्परों पर, दरवाजों पर वृक्षों पर छाई हुई बेलें रोते हुए, चिंता से जलते हुए मनुष्य तक को शाँति प्रदान करती हैं। सघन वृक्षों के प्रदेश में रहने वाले मनुष्य अधिक स्वस्थ, शांतचित्त और दीर्घजीवी होते हैं यह बात भली प्रकार सिद्ध हो चुकी है।

इन सब बातों पर ध्यान देते हुए श्रावणी के पुण्य पर्व पर वृक्षारोपण यज्ञ का महात्म्य माना जाता है। खेतों पर, खाली भूमियों में, बंजरों में, घर में, द्वार पर, जहाँ भी सुविधाजनक स्थान मिल सके वहाँ फलों के वृक्ष, लकड़ी के वृक्ष, फूलों के पौधे, बेलें, औषधियाँ, तरकारियाँ होनी चाहिए या उनकी पौध लगानी चाहिए। वर्षा ऋतु का समय इस कार्य के लिए बहुत सुविधाजनक होता है। इसलिए जितनी अधिक वनस्पति उत्पन्न की जाए उतना ही श्रेष्ठ है, शुभ है, पुण्य है। यह कार्य केवल पुरुष ही करें ऐसी बात नहीं हैं, स्त्रियाँ भी इस यज्ञ में अपना भाग पूरा करती हैं। वे अधिक नहीं कर सकतीं तो घर में छोटे मिट्टी के गमलों में छोटे-छोटे पौधे बोती हैं, पुष्प आदि के बीज नहीं मिलते तो घर में रखे हुए गेहूँ, जौ आदि अन्न को ही बो लेती है और उन अंकुरों की श्रावणी के दिन पूजा करती हैं। भुजरियों की पूजा का यही कारण है। कितने ही घरों में इस अवसर पर तुलसी की स्थापना या पूजा की जाती है।

श्रावणी पर्व पाँच तथ्यों का संदेश प्रतिवर्ष हमारे लिए लाता है। यदि उन संदेशों को हम सुनें और उनके अनुसार आचरण करें तो यह पर्व हमारे लिए सब प्रकार मंगल-मय हो सकता है।


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