(ले.- पं. तुलसीराम शर्मा, उड़िया बाबा का स्थान, वृन्दावन)
धर्माधर्म की परिभाषा -
यतोऽभ्युदय निःश्रेय स सिद्धिः स धर्मः।
(वैशेषिक 1/1/2)
जिस व्यवहार से इस लोक में सुख भोगते हुए परलोक में कल्याण प्राप्त हो वह धर्म है।
यमार्याः क्रियमाणं हि शंसन्त्यागमवेदिनः।
स धर्मोयं विगर्हन्ति तमधर्मप्रचक्षते॥
(कामन्दकीय नीतिसार 6/7)
शास्त्र के ज्ञाता श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म की बढ़ाई करते हैं वह धर्म है और जिसकी निन्दा करते हैं वह अधर्म है।
आरम्भो न्याययुक्तो यःस हि धर्म इति स्मृतः।
अनाचारस्त्वधर्मेति ह्येतच्छिष्टानुशासनम्॥
(म.भा. वन. 207/77)
न्याय युक्त कार्य धर्म और अन्याय युक्त कार्य अधर्म है। यही श्रेष्ठ पुरुषों का मत है। इत्यादि धर्माधर्म की परिभाषा मिलती है इनसे भी अधिक स्पष्ट सुश्रुत के टीकाकार डल्हणाचार्य ने लिखा है-
धर्मः कायवां मनोभिः सुचरितम्।
(सुश्रुत शरीर स्थान अ. 1/18 पर डल्हणाचार्य कृत टीका)
अर्थात्- मन वाणी शरीर का जो सुँदर व्यवहार वही धर्म है।
मन वाणी शरीर के सुँदर व्यवहार कौन से हैं इसका खुलासा न्याय दर्शन 1/1/2 पर वात्सायम भाष्य में किया है-
अथ शुभाशरीरेण दानं परित्राणं ब्रह्मचर्यंच।
वाचा सत्यं हितं प्रियं स्वाध्यायं चेति।
मनसादयामस्पृहाँ श्रद्धाँ चेति मेयं धर्माय॥
दान देना, सत्पुरुषों की रक्षा करना, ब्रह्मचर्य से रहना ये शरीर के सुँदर व्यवहार हैं।
सत्य, प्रिय, हितकारी वचन बोलना और अपने धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करना ये वाणी के सद्व्यवहार हैं।
दया (दूसरे के दुख दूर करने का यत्न करना) निस्वार्थ दूसरे का अनिष्ट चिन्तन न करना किसी के द्रव्य तथा स्त्री पर मन न चलाना, गुरु व शास्त्र के वचनों पर श्रद्धा रखना। ये मन के सुँदर चरित्र हैं। इसी के अनुकूल भ. गी. (17/14-16) में भी आता है।
अधर्म की परिभाषा देखिए-
अधर्मः कायवांमनसाँदुश्चरितम्।
(सुश्रुत सूत्रस्थान 6/19 पर डल्हणाचार्य कृत टीका)
अर्थात्- मन वाणी शरीर का जो बुरा व्यवहार है वह अधर्म है।
मन वाणी शरीर के बुरे व्यवहार कौन-कौन हैं?
इस पर देखिए-
दोषैः प्रयुक्तशरीरेण प्रवर्तमानोहिंसा स्तेय प्रतिषिद्ध मैथुनान्याचरति वाचाऽतृत पुरुष सूचना सम्बद्धानि मनसा परद्रोहं परद्रव्याभीप्साँ नास्तिक्यंचेति सेयंपापात्मिका प्रवृत्तिरधर्माच।
(न्याय. वात्सायव भाष्य 1।1।2)
हिंसा, चोरी, व्याभिचार ये शारीरिक पाप हैं। मिथ्या, रूखे वचन, चुगल खोरी, व्यर्थ की बातें करना ये वाणी के पाप हैं। दूसरे का अनिष्ट चिन्तन करना, दूसरे के द्रव्य लेने की इच्छा रखना और नास्तिकता (ईश्वर, परलोक तथा धर्म इन पर श्रद्धा न रखना) ये मानसिक पाप हैं।
इन्हीं दस प्रकार के पापों का वर्णन आदि ग्रन्थों में आता है।
साराँश यह है कि दान देना, सत्पुरुषों की रक्षा करना आदि 10 प्रकार के धर्म लक्षण हैं। हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि 10 प्रकार के अधर्म हैं इन्हीं को अनेक शास्त्रकारों ने कर्त्तव्याकर्त्तव्य माना है।