साकार और निराकार की पूजा

August 1949

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(गोस्वामी स्वतंत्रानन्दजी, रतनपुरा)

ईश्वर के दो रूप हैं, साकार और निराकार। जो कुछ इस संसार में इन भौतिक आँखों से दिखाई देता है, यह सब ईश्वर का साकार रूप है। किसी न किसी रूप में हमें ईश्वर के दर्शन होते ही रहते हैं। यह जो कुछ दिखाई पढ़ रहा है, ईश्वर का ही साकार दर्शन समझना चाहिए।

हमें चाहिए कि इसी साकार ईश्वर की पूजा में जनता जनार्दन की सेवा में, इस भौतिक शरीर को अर्पण कर दें। यही साकार ईश्वर की सच्ची पूजा है। यह भौतिक शरीर इसी साकार ईश्वर की अमानत है। हमारा कर्त्तव्य है कि ईश्वर की अमानत ईश्वर को सौंप दें, अन्यथा हम ईश्वर के चोर होंगे। हमें चाहिए कि इस पंच भौतिक शरीर को जनता जनार्दन की सेवा में मिटा दें, तभी हम सच्चे ईश्वर भक्त बन सकेंगे।

इस समस्त संसार में एक ही चैतन्य शक्ति व्याप्त रूप से समाई हुई है, जिसके द्वारा यह सारा संसार चेतन दिखाई देता है, प्रकृति का अणु-अणु उससे प्रेरित होकर कम्पायमान हो रहा है। हमारे अंदर भी वही आत्मा काम कर रही है जो समस्त संसार में। इस आत्मा को जान लेना ही आत्म दर्शन है। आत्म दर्शन ही निराकार ईश्वर की सच्ची पूजा है।

यदि हम निराकार प्रभु के सच्चे भक्त बनना चाहते हैं तो हमें समस्त विश्व में व्याप्त रूप से समाये हुए घट-घट वासी उस प्रभु परमात्मा को सर्वत्र व्यापक ओर सर्वशक्तिमान के रूप में सदैव देखना चाहिए। यदि साकार की उपासना करना रुचिकर हो तो संसार के प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थ को सुँदर सुव्यवस्थित एवं सतोगुणी बनाने के लिए आत्म त्याग के साथ सेवापरायण होना चाहिए। ईश्वर को सर्वव्यापी सर्व शक्तिमान समझकर पापों से बचना और लोकहित के लिए अधिक आत्म-त्याग करना यह साकार ओर निराकार की उभय पक्षीय पूजा का संमिश्रण है।

इस प्रकार अपने विचारों और कार्यों को विशुद्ध, सेवामय, ईश्वरमय बना लेने वाला मनुष्य अपने आप को ईश्वर में स्थित समझता है और अपने अंदर ईश्वर की झाँकी करता है। ईश्वर भक्ति केवल ध्यान या जप मात्र से ही नहीं हो सकती, उसके लिए आचरण का समन्वय भी होना चाहिए। जिसका जीवन ईश्वरमय है। वही सच्चा ईश्वर भक्त है और उसे ही अपनी अन्तरात्मा में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के महातत्व का दर्शन होता है। सेवा सदाचार, प्रेम, श्रद्धा और संयम की पाँच विभूतियाँ जिसके अन्तःकरण में मौजूद हैं वह ईश्वर प्राप्ति से किसी भी प्रकार वंचित नहीं रह सकता।


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