पथिक! बढ़े चलो।

August 1949

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(पं. शिवशंकरलाल त्रिपाठी, फतेहपुर)

जीवनोद्देश्य की यात्रा बड़ी लम्बी है। उस पर चलते-चलते अक्सर यात्री के पैरों में थकान आ जाती है। मार्ग में झाड़-झंखाड़ और कंकड़-पत्थर ऐसे आते हैं, जिनकी ठोकरों से आहत होकर पथिक का साहस टूट जाता है वह सोचता है इतना दुर्गम पथ किस प्रकार पार किया जा सकेगा? किस प्रकार इस ऊँची पहाड़ी पर चढ़ा जा सकेगा? एक बार उसका सिर चकरा जाता है और निराशा की ठंडी साँस भर कर हतोत्साह हो जाता है।

ऐसे अवसर पर उन धूमिल पथ-चिह्नों की तलाश करनी चाहिए। जिनसे पूर्व पीढ़ी के उन लोगों का पता चलता है जो उसी की भाँति इस कठिन मार्ग पर चलते हुए जीवनोद्देश्य की मंजिल को पार करने में सफल हुए थे।

ऐसे निराशाजनक अवसर पर उन सिद्धाँतों और आदर्शों का स्मरण करना चाहिए जो आत्मा की अमरता का पाठ पढ़ाते हैं और कर्त्तव्य पथ पर बढ़ते जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। सफलता असफलता का कोई विशेष महत्व नहीं। मंजिल की ओर जितने कदम बढ़ते जाते हैं उतने ही अंशों में सफलता प्राप्त हो चुकी। जो मंजिल शेष रह गई उसको एक विराट कार्य समझना चाहिए। असफलता और कुछ नहीं केवल एक कठोर विश्राम काल है, जिस पर ठहरने के पश्चात दुगने उत्साह से आगे बढ़ने का उपक्रम किया जाता है।

आज कठिनाई है, आज निराशाजनक वातावरण है तो कोई चिन्ता की बात नहीं है। रात्रि का अंधकार सदा नहीं ठहरता। उषा का प्रकाश होना निश्चित है। केवल धैर्य धारण करने और प्रतीक्षा करने की आवश्यकता होती है। यह कठिनाइयाँ आज नहीं तो कल दूर होकर रहेंगी। आज के काँटे कल फूल बन कर रहेंगे, आज का ग्रीष्म कल पावस की शीतल मन्द सुगंध बनकर रहेगा।

पथिक! चले चलो, रुको मत, कठिनाइयों को देखकर रुको मत, भय मत करो, तुम आत्मा हो, आत्मा के लिए निराशा और असफलता का कोई कारण नहीं। लक्ष्य कितना ही दूर क्यों न हो, मंजिल कितनी ही कठिन क्यों न हो, पर चलते रहने वाले तो ध्येय तक पहुँच ही जाते हैं। आशा और उत्साह, श्रद्धा और विश्वास तुम्हारा संबंध है। पथिक बढ़े चलो, बढ़ना तो प्रत्यक्ष विजय है।


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