परिश्रम तथा विश्राम

August 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री लक्ष्मीनारायण टंडन ‘प्रेमी’)

प्रकृति में प्रत्येक वस्तु का उपयोग है। कोई भी वस्तु बिल्कुल व्यर्थ नहीं है। इसी सिद्धाँत के आधार पर विश्राम करना भी मनुष्य तथा जीवों के लिए उतना ही आवश्यक और उपयोगी है जितना कि परिश्रम करना। दो में से एक का भी निताँत अभाव था अस्वाभाविकता कभी उसे निकम्मा और रोग का घर बना देगी। परिश्रम करने से एक ओर जो शरीर के कोषाणु टूटते-फूटते हैं तथा माँस, रक्त आदि की छीजन होती है तो दूसरी ओर शरीर के अंगों को स्फूर्ति मिलती है, शरीर के अंगों में निकम्मेपन तथा आलस्य के कारण उत्पन्न जंग नहीं लगने पाती है और अंग कार्य करने के उपयुक्त और अभ्यासी रहते हैं। उसी प्रकार विश्राम करने से टूटे-फूटे कोषाणुओं की मरम्मत तथा नये कोषाणुओं का निर्माण होता है। परिश्रम द्वारा खर्च शक्ति का फिर संचय होता है। थके अवयवों को विश्राम मिलता है। जहाँ एक ओर यह लाभ वाली स्थिति होती है। वहाँ दूसरी ओर विश्राम की दशा में अवयव अकर्मण्य और शिथिल पड़ जाते है। अस्तु यह हम स्पष्ट समझ सकते हैं कि यदि अति का विश्राम या अति का परिश्रम किया गया तो शरीर का अस्वस्थ होना अनिवार्य होता। सत्य ही है ‘अति सर्वत्र् वर्जयेत्’।

आइये, साधारणतया हम देखें कि मनुष्य को दैनिक कार्य कब करना चाहिए और उस समय क्या ध्यान रखना चाहिए? लगभग चार बजे प्रातः मनुष्य को उठना चाहिए। वह दस बजे दिन तक किसी समय कार्य कर सकता है। बाद रहे 24 घंटे में 8 घंटे से अधिक कठिन परिश्रम का कार्य नहीं करना चाहिए चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक। शारीरिक और मस्तिष्क संबंधी कार्यों का सिलसिला साथ-साथ चलना चाहिए। मजदूर-किसान शारीरिक परिश्रम करने वाले टेनिस, फुटबाल, बालीबाल आदि खेलें या टहलें-दौड़ें। कहा जाता है ‘कार्य का परिवर्तन ही विश्राम है’। आफिस में कार्य करने वाले सुबह-शाम मैदान के खेल खेलें या खुले स्थान पर बागवानी आदि करें। वैसे ही किसान-मजदूर आदि भी अवकाश के समय साँझ या रात को घरेलू खेल, खेल कर तबियत बहलायें। एक विद्वान ने कहा है-खाली दिमाग शैतान का घर है। तथा ‘मनुष्य परिवर्तन-शील प्राणी होने से नित-नूतन-परिवर्तन चाहता है।’ यदि ऊपर कहीं हुई दोनों बातों का अर्थ हम ठीक से समझ कर उन्हें अपने जीवन में उतार लें तो कितना लाभ हो।

यह भी ध्यान देने की बात है कि जिस समय कार्य करने की विशेष इच्छा या रुचि हो उस समय अवश्य ही काम करना चाहिए। उदाहरणार्थ जिस समय कोई कवि या लेखक भावों से भरा हो उस समय अवश्य ही उसे अपने भाव कलम-बद्ध करने चाहिए।

कार्य कब नहीं करना चाहिए, यह जानना भी जरूरी है। (1) रोग में कठिन परिश्रम करना (2) आवश्यकता से अधिक परिश्रम करना। यह तो हम जानते ही हैं कि परिश्रम से कोषाणु नष्ट होते हैं यदि उसी अनुपात से उनका सृजन नहीं होगा, जिस अनुपात से वह नष्ट हुए हैं, तो मनुष्य धीरे-धीरे अशक्त, अस्वस्थ, क्षीण और रोगी हो जाएगा। (3) भोजन के बाद तुरंत कार्य (मानसिक या शारीरिक) न करें अन्यथा पाचन-अंगों में जो स्वाभाविक रीति से कार्य होने लगा है, उनका ध्यान बंटेगा और खून का दबाव बुद्धि या अन्य शरीर के अंगों की ओर हो जाएगा। इससे पाचन में शिथिलता हो जाएगी ओर भोजन से ठीक तत्व न बन सकेंगे। कम से कम आधे घंटे तक भोजन के बाद विश्राम करो। (4) एनीमा लेने के कम से कम 15 मिनट अवश्य लेटें अथवा कोमल और कमजोर हुई आँतों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। (5) रात के 10 बजे से 3-4 बजे प्रातःकाल तक सोवे। रात्रि ईश्वर ने विश्राम और दिन कार्य के लिए बनाया है। फैशन-परस्त लोग रात के एक-एक बजे तक थियेटर, सिनेमा, नाच-रंग, ताश तथा गप्पबाजी में लगे रहते हैं और दिन को 7-8 बजे तक सोते हैं। प्रकृति के नियमों की अवहेलना करके देर सबेर वे दण्ड पाते ही हैं। पर जिनकी रात की नौकरी हो या कभी-कभी रात की ड्यूटी पड़ती हो, जैसे रेल, पुलिस आदि की नौकरी, तो वहाँ तो लाचारी का नाम सब्र है। ऐसे आदमी दिन में विश्राम करके कमी पूरी कर सकते हैं पर अस्वाभाविकता तो आ ही जायगी। (6) क्रोध आदि मनोविकारों के समय कार्य स्थगित कर देना चाहिए अन्यथा काम बिगड़ जाने का डर होता है।

यह बात हमें विशेष रूप से जान लेनी चाहिए कि खेल और व्यायाम कब करना चाहिए और तब क्या ध्यान रखना चाहिए? (1) प्रातः और साँय का समय उनके लिए उत्तम है। प्रायः एक स्थान पर किये जाने वाले व्यायाम जैसे दण्ड बैठक, जिमनास्टिक, कुश्ती आदि तथा तैरना, घूमना और दौड़ना आदि व्यायाम भी प्रातः करना ही उत्तम है। दौड़ने वाले व्यायाम जैसे टेनिस, हाकी, फुटबाल आदि सायंकाल को अच्छे होते हैं। सूर्योदय के पूर्व सर्वोत्तम समय है, नहीं तो 7-8 बजे दिन तक। सूर्यास्त के बाद सायंकाल के खेल-व्यायाम न करें। (2) कठिन परिश्रम के बाद शरीर को ठंडा करने के लिए कुछ देर टहलना चाहिए। कठिन व्यायाम के तुरंत बाद नहाना ठीक नहीं। नाड़ी की गति के स्वाभाविक आ जाने पर शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शाँत होने पर स्नान करें या देह अंगोछे। हो सके तो फिर कुछ देर विश्राम करें। आराम और कसरत एक के बाद एक चले तो लाभ बहुत होता है।

(3) एक समय पर बहुत से व्यायाम नहीं करना चाहिए। प्रातः स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यायाम, प्राणायाम, यौगिक क्रियायें आदि करना चाहिए और हो सके तो नहाकर, सायं को शारीरिक कम से कम व्यायाम करके खाना न खाये, आधे घंटे तक। अब यह भी देख लें कि खेल और व्यायाम कब नहीं करना चाहिए?

(1) भोजन करने के कम से कम 3-4 घंटे तक व्यायाम या कठिन शारीरिक परिश्रम न करें। (2) कठिन रोग आदि में, विशेष कर डॉक्टर आदि के मना करने पर, नाशात्मक रोगों में विशेष रूप से कठिन व्यायाम न करें। (3) एनीमा लेने के कम से कम आध घंटे तक (4) बहुत थके होने, शोक, चिंता, क्रोध आदि के समय। (5) ज्वर, दमा, खाँसी, गर्मी, सूजाक, आतशक, खूनी बवासीर और हृदय के समस्त रोगों में व्यायाम हानिकारक है। शेष रोगों में डॉक्टरों की राय के अनुसार हल्का व्यायाम करें। रोग से उठने के बाद तथा मैथुन के बाद भी व्यायाम न करें।

विश्राम करने के अनेक उपाय हैं, किन्तु उन में से प्रमुख निद्रा तथा शिथिलीकरण हैं। शिथिलीकरण पर तो एक स्वतंत्र लेख लिखूँगा, केवल निद्रा पर लिखकर यह लेख समाप्त करता हूँ। सोना कब चाहिए-यह जानना आवश्यक है। (1) 10 बजे रात तक सो जाना चाहिए। बच्चे 1-2 घंटे पहले भी सो सकते हैं। क्योंकि 10 से 12 घंटे तक दो घंटे सोने में शरीर को, पहली नींद में, जितना विश्राम मिल जाता है, बाद में 12 बजे रात के बाद चार घंटे विश्राम और नींद में भी उतना नहीं मिलता। युवक तथा प्रौढ़ को 6 घंटे और बालकों को प्रायः 8 घंटे की निद्रा पर्याप्त होती है। (2) बीमारी में दोपहर को सो सकते हैं। (3) केवल गर्मी के दिनों में, भोजन के कुछ देर बाद घंटा-आध घंटा दोपहर सो सकते हैं। (4) अधिक परिश्रम करने वाला दोपहर को घंटा-आध घंटा सो सकता है। (5) जिनकी नौकरी में नाइट ड्यूटी पड़ती है, वह लाचारी में दोपहर को सो सकते हैं। (6) स्त्री संग का आदर्श समय 12 से 2 बजे रात्रि का है। क्योंकि प्रथम निद्रा के बाद यह ठीक रहता है और स्त्री-संग के बाद कुछ सोना आवश्यक है।

अब यह समझिए कि सोना कब नहीं चाहिए? (1) प्रायः दिन में (2) भोजन के तुरन्त बाद (दिन में आध घंटा गुजर जाने के बाद, भले ही सो लें) (3) ऊषा-काल में सोना।

सोते समय या सोने के पूर्व या सोने के ठीक बाद क्या ध्यान रखना उचित होगा, यह भी हम जान लें-

(1) सोते समय बीच-बीच में जल न पियें। सोने के पहले लघु-शंका करके जल भी पी लें। सोकर उठते ही, दिन हो या रात तुरंत जल न पियें। 10-5 मिनट रुक जाय अथवा जुकाम हो जाने का भय रहता है। (2) बाँयी करवट अधिकतर सोयें क्योंकि रात को दाहिनी श्वास चलना लाभप्रद है पर करवटें बदलते रह सकते हैं। चित्त या पट्ट नहीं सोना चाहिए, सदा करवटों के बल सोएं। सर के नीचे या तो तकिया न हो, और यदि तकिया हो भी तो ऊँचा तकिया न हो। सोते समय सर नीचा हो, उठा हुआ न हो। खाट ढीली न हो। बहुत मुलायम गद्दे आदि कपड़े सोने के न हों। तख्त पर सोना इससे अधिक लाभप्रद है-विशेष कर विद्यार्थियों को। (3) सोने के पहले तथा सोकर उठने के बाद ईश्वर चिंतन तथा आत्म-संकेत करें। ऐसा करने से सोने के बाद भी शाँत नींद आती है।

इस प्रकार हमने देखा कि खूब कसकर परिश्रम करना और जी भर कर विश्राम करना यह दोनों साथ-साथ चलने वाली चीजें मनुष्य को स्वस्थ, सबल और सुँदर बनाती हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: