(श्री गाँधी राम गुप्त, उरई)
जीवन संघर्षमय है। मनुष्य को जीवित रहने के लिए, आगे बढ़ने के लिए, विविध दिशाओं में संघर्ष करना पड़ता है। जिसके कारण गर्मी, बेचैनी और अशान्ति उत्पन्न होती रही है। यह अशान्ति थकान और उद्विग्नता पैदा करती रहती है जिससे त्राण पाने के लिए मनुष्य शान्ति की तलाश करता रहता है। जहाँ शाँति मिलती है वहीं आत्मा को चैन तथा संतोष मिलता है। ऐसी सुख-शाँति पूर्व स्थिति प्राप्त करने के लिए आत्मा सदा तरसती रहती है।
कई लोग जंगलों, पर्वतों, एकान्त स्थलों, तीर्थों, मंदिरों आदि में शाँति की तलाश करते हुए भ्रमण किया करते हैं। इन स्थानों में स्थूल और क्षणिक शाँति की झाँकी भले ही हो जाय पर पूर्ण शाँति नहीं मिल सकती। कारण यह है कि संसार का प्रत्येक परमाणु गतिशील, परिवर्तन शील और चंचल है, स्थूल जगत का कोई भी पदार्थ कोई भी अणु स्थिर नहीं, शाँत नहीं, जो वस्तु स्वयं ही शाँत नहीं वह दूसरों को शाँति कहाँ से दे सकेगी। स्थिर वस्तु एक ही है वह है-आत्मा। इसलिए आत्मा में ही शाँति है। जब हम आत्म-परायण होते हैं, आत्मा में रमण करते हैं तो स्थिर शाँति के दर्शन करते हैं, जिससे अनन्त विश्राम उपलब्ध होता है।
‘मौन’ वह साधना है जो चित्र वृत्तियों को बिखरने से बचाती है। चुप रहने से वाणी और वाणी के साथ व्यय होने वाले मस्तिष्कीय शक्तियों की क्षति होने से बचत होती है। यह बचत आत्म-चिन्तन में लगा दी जाय तो शाँति के उस स्रोत तक पहुँच हो सकती है जो हमारी अशान्तियों को हटाकर सुखद शीतल और स्निग्ध शाँति का आस्वादन कराती है। इस प्रकार के विश्वास के उपरान्त नवीन चैतन्यता, स्फूर्ति और जीवनी शक्ति प्राप्त होती है जो कार्यक्षमता, सूक्ष्मदर्शिता और प्रतिभा को कई गुना बढ़ा देती है।
सांसारिक दृष्टि से भी और आत्मिक दृष्टि से भी मौन एक महत्वपूर्ण साधन है। महात्मा गाँधी इतने कार्य व्यस्त और अनेक उत्तरदायित्वों को अपने कंधों पर उठाये रहने वाले महापुरुष थे। उनके पास समय का बड़ा अभाव रहता था तो भी वे सप्ताह में एक दिन मौन व्रत के लिए अवश्य निकाल लेते थे। उनका कथन था कि इससे मुझे बड़ा विश्राम मिलता है और कार्य करने के लिए नई ताजगी का अनुभव होता है।
मौन की साधना के साथ यदि मनोवृत्तियों को आत्म-चिंतन में लगा दिया जाय तो आध्यात्मिक आनन्द का एक निर्झर झरने लगता है। जिसके रसास्वादन की अनुभूति भुक्त भोगी ही जानते हैं। अरुणाचल के तपस्वी महर्षि रमण विगत 50 वर्षों से मौन की साधना कर रहे हैं। उनकी सिद्धावस्था संदेह से परे है। इस अकेली मौन साधना से वे सब सिद्धियाँ मिल सकती हैं जो अन्य योग साधनों से मिल सकती हैं।
मौन एक दैवी रेडियो है। साँसारिक कोलाहलों से मन को हटाकर जब हम अन्तरात्मा की सुई परमात्मा के केन्द्र पर सटा देते हैं तो ईश्वरीय वाणी सुनाई पड़ने लगती है। जो कुछ जानने लायक है, जो कुछ सुनने लायक है वह मौन के देवी रेडियो के माध्यम द्वारा जाना और सुना जा सकता है।
जो व्यक्ति आत्मोन्नति की दिशा में बढ़ना चाहते हैं और उद्विग्नता मिटाने वाली शाँति के दर्शन करना चाहते हैं उन्हें मौन साधना की ओर बढ़ना चाहिए। जिस दिन फुरसत रहती हो सप्ताह में एक रोज पूरे, आधे या दिन चौथाई मौन रहना चाहिए। यदि नित्य एक दो घंटे मौन रहा जा सके तो और भी अच्छा, किन्हीं विशेष पर्वों या अवसरों पर एक दिन या कई दिन का मौन रखना चाहिए। इस प्रकार मौन की ओर प्रवृत्ति बढ़ाते चलने से आत्मिक मार्ग में रुचि बढ़ती चलती है और शाँति के पथ पर प्रगति होने लगती है।