जीवन के तेरह रूप

August 1949

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

मानव जीवन की विभिन्नता प्रसिद्ध है। आपको जिस प्रकार का जीवन पसंद है, दूसरा उसी को निम्न दृष्टि से देखता है, तीसरा उसी का मजाक उड़ाता है, चौथा उसी से प्रभावित होता है।

यहाँ हम तेरह प्रकार के जीवन का अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठक स्वयं देखें कि वे कौन सी श्रेणी में आते हैं? किस प्रकार के जीवन को कितने अंशों में पसंद करते हैं?

प्रथम रूप -

इस दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति समाजिक जीवन तथा अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में सक्रियता से भाग लेता है। अपने समुदाय तथा जाति के कार्यों में दिलचस्पी लेता है। उसके वातावरण को परिवर्तित तो करना नहीं चाहता वरन् उसे समझना, पसंद करना और मानव समुदाय ने जो सर्वोत्तम किया है, उस तक पहुँचना चाहता है। अनियंत्रित इच्छाओं का दमन तथा नियंत्रण को पसंद करता है। जीवन की सभी अभिनन्दनीय वस्तुओं का सुख क्रमानुसार प्राप्त करना चाहता है। वह जीवन में स्पष्टता, संतुलन, परिष्कार और संयम की आकाँक्षा रखता है। बेहूदगी, अत्यधिक जोश, थोथी शान, अविवेकी व्यवहार, अशाँति, वासना पूर्ति या जिह्वा तृप्ति से दूर रहता है। सबके साथ मित्रता का व्यवहार रखता है किन्तु अनेक व्यक्तियों से गहरी दोस्ती स्थापित नहीं करता। जीवन में संयम, स्पष्ट उद्देश्य, उत्तम व्यवहार तथा निश्चित क्रम अनिवार्य हैं। सामाजिक जीवन में जो परिवर्तन आयें, वे बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे होने चाहिए जिससे मानव संस्कृति को बड़ा धक्का न लगे। व्यक्ति शारीरिक और सामाजिक दृष्टि से सक्रिय बना रहे। सक्रिय जीवन में अनुशासन और बुद्धितत्त्व की प्रधानता रहे।

द्वितीय रूप -

व्यक्ति को अकेले ही अपना मार्ग निर्धारित करना चाहिए और अकेले ही उस पर चलना चाहिए मानव समाज से अपना सम्बन्ध गुप्त रखना, अपने पर ही अधिक समय देना, अपने ही जीवन को संयमित करना चाहिए। व्यक्ति को आत्म तुष्ट, चिंतन, मनन और आत्म ज्ञान में लिप्त रहना चाहिए। ऐसा व्यक्ति सामाजिक झुण्डों से दूर, भौतिक वस्तुओं से विरक्त अपने आप को संयमित करने में ही अधिक समय देता है। सोचता है-अपना बाहरी जीवन सरल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, और भौतिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को घटाने का प्रयत्न करना चाहिए। शरीर के कार्य आत्मा के विकास, परिष्कार और प्रतीति के लिए होने चाहिए। बाह्य जीवन अर्थात् बाहरी आडम्बरों तथा झंझटों में लिप्त जीवन से कुछ अधिक नहीं हो सकता। व्यक्तियों तथा बाह्य वस्तुओं पर अत्यधिक आश्रित रहना कम करना चाहिए। जीवन का मूल केन्द्र आन्तरिक जीवन में ही प्राप्त हो सकता है।

तृतीय रूप -

सोचता है- सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार तथा दूसरों में दिलचस्पी ही जीवन का मूल अभिप्राय होना चाहिए। जीवन के मूल में प्रेम वह प्रेम दूसरों पर दबाव या अनुचित रीति से अपने स्वार्थ के लिए उनकी सेवाओं का उपयोग करना नहीं सिखलाता। यह प्रेम स्वार्थ सिद्धि से मुक्त है। बहुत सी वस्तुओं पर अधिकार, कामोत्तेजक सुखों तथा वस्तुओं व मनुष्यों पर शासन करने की आदत छोड़नी चाहिए क्योंकि इससे दूसरों के साथ सहानुभूति-पूर्ण प्रेम, विस्तृत अबाध सार्वभौमिक प्रेम की सिद्धि नहीं हो सकती, और बिना इस प्रेम प्रतीति के जीवन नीरस बालू के समान है। यदि हम हिंसक हैं, या हिंसाजन्य मानवीय दुर्बलताओं के शिकार हैं तो हम इस सहानुभूतिपूर्ण के हृदय-द्वार बंद कर रहे हैं। अतः हमें अपनी संकुचितता त्याग कर दूसरों के लिए प्रेम आदर, प्रशंसापूर्ण, सहायता से परिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

चौथे प्रकार का जीवन -

जीवन आनन्द के, मजेदारी के लिए दिया गया है-इन्द्रियों के सुख लूटने चाहिए, आमोद-प्रमोद का आनन्द उठाना चाहिए। जीवन का अभिप्राय संसार या जीवन के क्रम को रोकना नहीं, प्रयत्न जीवन को सब प्रकार के आनन्दों के लिए उन्मुक्त करना है। जीवन एक आनन्दोत्सव है, नैतिकता तथा नियंत्रण का स्कूल या धर्मालय नहीं। जैसे जीवन-प्रवाह बहता है, वैसे ही उसे चलने देना, वस्तुएं या व्यक्ति जैसे चलना चाहते हैं उन्हें वैसा ही विकसित होने देना, शिव तत्व या शुभ कार्य करने से अधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार के ऐंद्रिक आनन्द के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य आत्म-केन्द्रित रहे व्यक्तिवादी बने। अतः हमें झंझटों, निमंत्रणों से दूर रहना चाहिए, अपने आनन्द के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।

पाँचवें प्रकार का जीवन -

मनुष्य को केवल अपने आप ही में डूबे नहीं रहना चाहिए। न दूसरों से बचना, दूर रहना या अपने ऊपर ही केन्द्रित रहना चाहिए। इसके विपरीत उसे अपने समाज में विलीन कर देना चाहिए, अपने साथियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए, मित्रता द्वारा सामान्य तथा सार्वभौतिक हितों की प्राप्ति में प्रयत्नशील होना चाहिए। व्यक्ति को सामाजिक होना चाहिए और हमें सक्रियता से (आलस्य से नहीं) जीवन व्यतीत करना चाहिए। जीवन को शक्ति के वेग में लय करना चाहिए और सामूहिक आनन्द लाभ करना चाहिए। चिंतन, संयम, आत्म-निमंत्रण इत्यादि मनुष्य को सीमित बना कर जीवन का आनन्द ही नष्ट कर डालते हैं। हमें बड़े शान से, जीवन के सभी बाह्य और ऐन्द्रिय सुखों का उपभोग करते हुए दूसरों की सहायता तथा उनके सुख में सुखी होते हुए व्यतीत करना चाहिए। मानव जीवन अधिक गंभीर चीज नहीं है।

जीवन का छटा रूप -

जीवन की गति धीरे-धीरे स्थिरता और रुकावट (Stagnate) की ओर है, आराम तलब बन कर जीवन में जंग लग जाता है। इस निश्चेष्टता तथा स्थिरता के विरुद्ध हमें निरंतर उद्योग करना चाहिए और क्रिया, निरंतर कुछ न कुछ करना, शारीरिक श्रम, समस्याओं का यथार्थवादी स्पष्टीकरण, समाज तथा विश्व को नियंत्रित करने के लिए क्रियात्मक योजनाएँ बनाते रहना चाहिए। मनुष्य का भविष्य मूल रूप से इस बात पर निर्भर रहता है कि वह क्या करता है? कैसे करता है? कितना प्रयत्न और उद्योग करता है? न कि वह क्या सोचता है। सोचने से करना अधिक महत्वपूर्ण है। यदि विकास की आकाँक्षा है तो परिष्कृत कार्य होने आवश्यक हैं। हम केवल प्राचीन काल के स्वप्न मात्र नहीं देख सकते न भविष्य के विषय में रंगीन कल्पनाएं ही निर्मित कर सकते हैं। हमें तो दृढ़ता और नियमितता से कार्य करना है।

जीवन का सातवाँ रूप -

भिन्न-भिन्न काल ओर समयों में हमें जीवन के क्रम, उद्देश्य एवं नीति को परिस्थिति एवं काल के अनुसार परिवर्तित करना है, किसी एक को पकड़ कर नहीं चलना है। कभी एक उद्देश्य तो कभी दूसरी नीति काम करती है। जीवन में आनंद, चिंतन एवं कार्य सभी आवश्यक तत्व हैं। जब इन में से कुछ भी कम या अधिक हो जाता है तो हम कुछ न कुछ महत्वपूर्ण चीज खो देते हैं। अतः हमें परिस्थिति के अनुसार मुड़ना या लपक (Flexibility) जाना सीखना चाहिए। अपने अंदर विभिन्नता स्वीकार करनी चाहिए, और साथ ही साथ आनन्द और कार्य में कुछ समय पृथक चिंतन के लिए भी निकालना चाहिए। जीवन का अधिकतम लाभ कार्य, चिंतन, आनन्द के क्रियाशील सामंजस्य में निहित है। अतः इन सभी का उचित उपयोग जीवन में होना चाहिए।

आठवें प्रकार का जीवन -

आनंद ही जीवन का मूल तत्व होना चाहिए। तीव्र और उद्वेगजन्य आनन्द नहीं, सरल और सहज रूप में प्राप्त हो जाने वाले आनन्द ही सर्वोत्कृष्ट है। इन आनन्दों में सीधा-साधा सात्विक आहार, आराम देने वाली परिस्थितियाँ, इष्ट मित्रों की सुखद वार्ता, विश्राम और मानसिक तनाव को कम करना है। प्रेम और सौहार्द से युक्त घर, सम्माननीय सामाजिक स्थिति, पौष्टिक भोजन से भरी हुई रसोई-ये घर को रहने योग्य बनाती हैं। शरीर विश्राम ले सके, मानसिक तन्तु तने न रहें मस्तिष्क से धीरे-धीरे काम लिया जाता रहे अनावश्यक तेजी, चिंता जल्दबाजी न रहे। सायंकाल दिन भर के कठिन परिश्रम के पश्चात विश्राम कर सकें, संसार को कृतज्ञता से आशीर्वाद दे सकें-यही जीवन सार है। आगे धकेलने वाली महत्वाकाँक्षा और योगियों जैसा कठोर संयम अतृप्त व्यक्तियों में सरल, निर्द्वन्द्व और निश्चिंत आनन्द के प्रवाह में तैरने की शक्ति नहीं है।

नवीं प्रकार का जीवन -

हमें अपने आप को शिक्षण के लिए खुला रखना चाहिए। यदि हम मन को संकीर्ण न बनावें और प्रत्येक प्रकार की शिक्षा तथा सद्ज्ञान को ग्रहण करने के लिए तैयार रहें तो हमारा जीवन स्वयं उत्तम प्रकार के रूप में आ जाएगा। जीवन में उत्तमोत्तम वस्तुएं स्वयं उत्पन्न होने लगती हैं क्योंकि हमारे जीवन का आदि स्रोत परमेश्वर है। आनन्द हमें शारीरिक इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य पाँचों प्रकार के आनन्दों से मिलने वाला नहीं है। सामाजिक जीवन की गूढ़ गुत्थियों में जकड़े रहने से सर्वोत्कृष्ट लाभ नहीं मिल सकता। न इसे दूसरे को दिया जा सकता है। इन्हें गूढ़ चिंतन द्वारा भी नहीं प्राप्त किया जा सकता। ये तो भली प्रकार का जीवन व्यतीत करते रहने से स्वयं आते हैं। हमारा जीवन धीमी गति से उन गुणों को प्रकट कर रहा है। जो आत्मा में विद्यमान है। जब हमारा शरीर आवश्यकताओं और फरमाइशों को बंद कर दे और शाँत होकर सद्ज्ञान ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हो जाय तो वह उच्चतम दैवी नियमों के द्वारा परिचालित होने के लिए तैयार हो जाता है। इन दैवी विभूतियों से परिचालित होकर उसे वास्तविक आनन्द और शाँति मिलती है। दैवी सन्देश को ग्रहण करने के लिए प्रकृति के आँगन में शाँत बैठना और अन्तरात्मा के अनुसार जीवन पथ निर्धारित करना मूल चीज है। तब बाहर से मन के अंदर ज्ञान का पूर्ण प्रकाश होता है।

जीवन का दसवाँ स्वरूप -

आत्म-संयम मानव जीवन का मूल होना चाहिए। वह सरल आत्मसंयम नहीं जिसके कारण मनुष्य संसार से विरक्त होकर दूर चला जाता है, प्रत्युत्तर सदैव सचेत, दृढ़, पुरुषोचित, आत्म-संयम जो जीवन में रहता है, संसार की शक्ति को जानता है, और मानव जीवन की कमजोरियों को समझता है। उत्तम जीवन का निर्देशन समझदारी से होता है और उच्च आदर्शों पर मजबूती से दृढ़ रहता है। आनन्द और इच्छा मात्र से वे आदर्श नहीं झुकते। वे सामाजिक प्रतिष्ठा के भूखे नहीं होते, अंतिम पूर्ण सफलता में भी उनका पूर्ण विश्वास नहीं होता, अधिक लाभ की आकाँक्षा नहीं की जा सकती। सावधानी से चलने पर मनुष्य व्यक्तित्व पर अंकुश रख सकता है, कार्यों पर नियंत्रण कायम रख सकता है और स्वतंत्र अस्तित्व स्थिर रख सकता है। यही जीवन का मर्म है। यद्यपि इस मार्ग पर चलने से मनुष्य नष्ट हो जाता है, तथापि इस में उसका पुरुषोचित गौरव रह सकता है।

जीवन का ग्यारहवाँ स्वरूप-

चिंतन प्रधान जीवन उत्तम जीवन है। बाह्य सामाजिक जीवन मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है। यह अत्यंत विस्तृत है, नीरस और स्वार्थमय है। आन्तरिक जीवन की महानता ही जीवन को जीने योग्य बनाती है। आदर्शों का आन्तरिक जीवन, कोमल भावनाओं, भावी उन्नति के सुखद स्वप्न, आत्म जिज्ञासा की तृप्ति-मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति है। आन्तरिक व्यक्तित्व के विकास द्वारा ही मनुष्य मानवी विभूतियों से परिपूर्ण होता है। आन्तरिक गंभीर चिंतन प्रधान जीवन से ही मनुष्य को स्थायी आनन्द की उपलब्धि होती है।

जीवन का बारहवाँ स्वरूप -

शरीर की शक्ति का अधिकतम उपयोग जीवन का पुरस्कार है। हाथों को कुछ ऐसी चीज की आवश्यकता है जिसका वे कुछ निर्माण कर सकें। लकड़ी और ईंट मकान के लिए, काटने के लिए फसल, साँचे में ढालने के लिए मिट्टी, करने के लिए कुछ काम। उसके पट्ठे और माँसपेशियाँ, विभिन्न अवयव कुछ न कुछ करने के लिए आतुर रहते हैं। जीवन का उत्साह मार्ग की अड़चनों को विजय करने में, विजयी जीवन व्यतीत करने में राज्य करने में है। क्रियात्मक, स्फूर्तिदायक, चलने फिरने से युक्त जीवन, जो जल की भाँति सदैव चलता-फिरता हिलता डुलता रहे, अग्रगामी, सचेष्ट हो वही वास्तविक जीवन का स्वरूप है।

जीवन का तेरहवाँ स्वरूप -

हमें अपने आपको दूसरे के द्वारा काम में लाये जाने देना चाहिए। दूसरा व्यक्ति अपने विकास में हमें काम में ले और हम चुपचाप बिना किसी दिखावे के उनकी सहायता करते रहें, उन्हें बढ़ावा देकर उन्नत होने में सहायक हों, जिससे वे वह कार्य पूर्ण कर सकें, जिसके लिए उनका निर्माण हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश विद्यमान है और उन पर विश्वास किया जा सकता है। हमें विनम्र, निरन्तर उद्योगशील, सत्यनिष्ठ होना चाहिए। जो प्रेम करे, उसके प्रति कृतज्ञ, जो सहायता चाहे, उसके लिए सहायक सिद्ध होना चाहिए किन्तु किसी प्रकार की माँग पेश करना अनुचित है। जनता के समीप आइए, प्रकृति के समीप आइये और क्योंकि आप समीप हैं, आप प्रत्येक भाँति सुरक्षित भी हैं। एक ऐसा गंभीर, शाँत, विशाल पात्र बनिये जिसके द्वारा सबकी इच्छा तृप्ति होती रहे।


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