मनुष्यत्व का विश्लेषण

August 1949

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(श्री सुरेशप्रसाद शर्मा)

मनुष्य के कार्य उसकी इच्छाओं और प्रवृत्तियों से संचालित और शासित होते हैं। इस दृष्टि से हम मनुष्य के कार्य को तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। पहली श्रेणी में उसके वे कार्य आते हैं जो उसकी बाह्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही किये जाते हैं। मनुष्य प्राकृतिक आवश्यकताओं के वशीभूत होकर कार्य करता है। इच्छा और कार्य के बीच समय की कोई दूरी नहीं रह जाती। इस अवस्था में मानसिक उत्तेजना की ही प्रधानता रहती है। बुद्धि जगत से कोई संबंध नहीं रहता। मनुष्य को इसका भान नहीं रहता कि उसके कार्य किस रूप में हो रहे हैं।

दूसरे दर्जे में मनुष्य के वे कार्य आते हैं जो उसके बाह्य और आन्तरिक दोनों इच्छाओं की तृप्ति के लिए किए जाते हैं, साथ ही साथ इच्छाओं और कार्यों के बीच समय की कुछ दूरी रख कर ऐसी अवस्था में मानसिक उत्तेजना और विचार दोनों समान रूप से कार्य करते हैं। इन दोनों में कभी-कभी एक तरह का द्वन्द्व भी नजर आता है। मनुष्य इस अवस्था में प्राकृतिक आवश्यकताओं पर कुछ अधिकार सा जमाया हुआ मालूम होता है। इस श्रेणी के कार्यों पर मनुष्य के ‘शक्ति’ और ‘निर्णय’ का बहुत बड़ा हाथ रहता है। इन दो शब्दों को समझ लेने से इस श्रेणी के कार्यों को समझने में आसानी होगी। किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए मनुष्य के हृदय में एक इच्छा उत्पन्न होती है किन्तु इच्छा के साथ ही साथ एक प्रश्न उसके मन में उठता है-इसको पाने की शक्ति मुझमें है या नहीं? इस प्रश्न को हल करने के बाद वह ‘निर्णय’ करता है कि आगे बढ़ें या नहीं। इसी ‘निर्णय’ के बल पर उसके कार्य संचालित होते हैं।

तीसरे विभाग में मनुष्य के वे कार्य आते हैं जो उसकी वासनाओं और इच्छाओं के पूर्ति के लिए नहीं बल्कि उसके सिद्धाँत के पूर्ति के लिए किए जाते हैं। इस अवस्था में मनुष्य अपनी इच्छाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लिए रहता है। उसकी इच्छाएं उसके सिद्धाँत की बागडोर के अंदर ही रहती हैं बहकने नहीं पातीं। उत्तेजना का इस अवस्था में लोप हो जाता है, विचार और सिद्धान्त का ही कार्यों के ऊपर प्रभुत्व रहता है। इन दोनों में भी सिद्धाँत की ही प्रधानता रहती है। सत्यवादी पुरुष को यह सोचने विचारने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि वह सत्य बोले या नहीं। एक अहिंसक जीव मारने की कल्पना नहीं कर सकता, सोचने, विचारने और निर्णय करने की उसे क्या जरूरत?

मनुष्यत्व की पहचान उसके कार्य से ही की जा सकती है। कार्यों का विश्लेषण हमने ऊपर कर लिया है। अब तदनुसार हम मनुष्यत्व का विश्लेषण कर सकते हैं। पहली श्रेणी के कार्य वाले मनुष्य में हम पशुत्व का ही अधिक अंश पाते हैं। एक पशु भी अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है और इसी श्रेणी के मनुष्य भी। विचार कर कार्य करने की क्षमता उसमें भी बहुत कम रहती है और इसमें भी शायद सृष्टि की आदिम अवस्था में मनुष्य की यही अवस्था रही होगी।

दूसरे दर्जे के कार्य वाले मनुष्य को हम देखते हैं कि पशु जगत से मानव जगत की ओर बढ़ आया है। कह सकते हैं कि पशुत्व और मनुष्यत्व के बीच की यही अवस्था है। मनुष्य कभी उत्तेजित होकर पशु तुल्य कार्य कर डालता है, कभी शाँत विचार के बाद मानवोचित कार्य। मानव समाज के इतिहास की मध्यकालीन यही अवस्था होगी। हो सकता है आज हम इसी अवस्था से होकर गुजर रहे हों।

तीसरे कार्य विभाग वाला मनुष्य एक पूर्ण मनुष्य है। मनुष्यत्व की सबसे ऊँची सीढ़ी पर उसी का स्थान है। अपनी इच्छाओं को अपने हाथ में रखकर, सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक की अनुभूतियों की आधार पर विश्व कल्याणकारी सिद्धाँत बनाकर उसी पर ही तो चलना मनुष्यत्व का लक्षण है।


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