केवल मंगल के लिए ही बोलिये।

December 1946

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(श्रीलावेल फि ल्मोर)

जो भोजन हम मुँह के भीतर ले जाते हैं, वही हमारा सत्वाँश (शरीर का हिस्सा) बनता है। थाली में बचा रह जाने वाला अन्न हमारा सत्वाँश नहीं बनता। यही दशा शब्दों की भी है। जिनको हम अपने मुख में स्थान देते हैं, वे हमारे सत्वाँश बन जाते हैं और जिनको हम नहीं दुहराते, वे सत्वाँश नहीं बनते।

किसी की निन्दा करने के लिए हमें अपशब्दों को मुँह में स्थान देना ही पड़ेगा और ऐसा करने पर वे हमारे सत्वाँश बन जायेंगे। हम बहुधा यह सोचते हैं कि अपराधियों की उचित आलोचना करके हम न्याय का समर्थन करते हैं, पर वास्तव में घृणा और लज्जा के शब्दों को जिह्वा पर लाकर हम उन्हें अपने मन में स्थान देते हैं और फिर उनके द्वारा हमारे सुख और शान्ति पर आघात होता है। ऐसे शब्द हमारे ध्यान को उन रचनात्मक विधियों से दूर हटा देते हैं, जिनके प्रयोग से अपराध करने वालों का सुधार सम्भव होता। हमें यह याद रखना चाहिए कि हम जिन अपशब्दों का उच्चारण करते हैं वे हमारे ही मुखों में रह जाते हैं, अपराधी का उनसे जरा भी सुधार नहीं होता।

ऐसे अवसर भी आ सकते हैं, जब हमको पाप के विरोध में आवाज उठानी ही चाहिये, पर साधारणतया ऐसा करना विषाक्त शब्दों को अपने मुखों में ले जाकर अपनी ही हानि करना है। दोष का परिहार इससे कुछ होता नहीं। निषिद्ध वाक्यों के विक्षुब्ध सागर में अपनी शब्दावली की धारा प्रवाहित करके हम संसार की अशान्ति को और भी बड़ा देते हैं। जनता की कुभावनाओं के शिकार किसी भी पुरुष के छिद्रान्वेषण, दोषारोपण और कोसने में सहयोग देकर न हम अपना ही भला करते हैं और न संसार की ही अवस्था का सुधार करते हैं। उलटे विषमय शब्दों की भारी खुराक पेट में भरकर हम अपने को विषमता के गहरे सागर में डुबो देते हैं।

विषमालोचना और अनुदार उद्गारों की बोतल खोल देने के बाद आकाश में अँधेरा छाया हुआ दीखने लगता है और थोड़ी देर के लिए जीवन का सात्विक आनन्द विषाद के बादलों से ढ़क जाता है। मूर्खता के शब्दों का उच्चारण करके हम अपने आपको बेच देते हैं और बदले में संसार की हालत बहुत बुरी है और भगवान हम लोगों को भूल-से गये है ऐसे अशुद्विचारों को हृदय में जगह देते हैं और जिन पर दोषारोपण करते हैं, उनका हमारे द्वारा कोई नैतिक सुधार भी नहीं होता।

हमारी वह इच्छा होनी चाहिये कि हम भूल करने वालों को उनकी कठिनाइयों से उबारें, परन्तु उन पर निषिद्ध वाक्यों का खौलता कढ़ाहा उलट कर हम ऐसा नहीं कर सकते। उनको पद्दलित करने के बजाय हमें उनको उठाने की कला सीखनी चाहिये।

प्रत्येक बाह्य परिस्थिति का जन्म पहले मन में होता है। बाह्य जगत से यदि बुराई को हम सदा के लिये उखाड़ फेंकना चाहते हैं तो हमें इसके लिये पहले मन में ही बुराई की जड़ को खोद डालना चाहिए। कठोर शब्दों और आघातों से न तो वैमनस्य मिटाता है और न राक्षसों में देवत्व की संस्थापना होती है। उत्तमता की ओर बढ़ने वाले प्रत्येक पग की छाप पहले हृदय और मन पर पड़नी चाहिये। आलोचनापूर्ण अथवा चोट पहुँचाने वाले शब्दों की अपेक्षा मधुर शब्द हृदय पर बाधक प्रकाश डालते हैं। बाह्य जगत की अव्यवस्था की जड़ मानस में रहती है अतः पहले मानस क्षेत्र में समता स्थापित होनी चाहिये, इसलिये विरोध भरे और कड़ुवे शब्दों से विषमता का कभी नाश हो ही नहीं सकता।

यह याद रखना चाहिये कि मुँह में लाये हुए उत्तम शब्द जीवन में सुख और समृद्धि लाते हैं एवं हिंसात्मक और अप्रिय शब्दों से अव्यवस्था उत्पन्न होती है। क्रोधाकुल शब्दों से हमारी पाचन-क्रिया में बाधा पड़ती है तथा शरीर के अन्य व्यापारों में भी उथल-पुथल मच जाती है। वातावरणों की वर्षा करके अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के बदले हम उल्टे अपनी अधिक हानि ही करते हैं।

आज के संसार को जितनी उत्तम उत्साहवर्द्धक शब्दों की आवश्यकता है, उतनी और किसी वस्तु की नहीं। इन सत् शब्दों को उच्चारण कौन करेगा? आप-हमसे बढ़कर अच्छा कोई नहीं कर सकता। प्रेम, सद्भावना, क्षमा इत्यादि से पूर्ण उत्तम शब्दों का प्रयोग करके विश्व में शान्ति स्थापित करने और मनुष्यों में सद्भावना की वृद्धि करने में अपना हाथ बँटाने का आज अद्भुत सुअवसर प्राप्त है। विश्व में शान्ति और प्राणियों में सद्भावना स्थापित करने के लिये भगवान की दिव्य प्रार्थनाओं में सहयोग देना चाहिये न कि किसी को कष्ट पहुँचा कर संसार की अशान्ति को और बढ़ाना।

आज ऐसे नर-नारियों की आवश्यकता है, जिनको भगवान की कृपालुता पर इतना विश्वास हो कि वे शान्त रहकर जीवों को मुक्त करने की भगवान की क्रिया को देख-समझ सकें और फिर लोगों के सामने उसकी घोषणा करें। जो लोग ऐसा करेंगे, वे लोग बिना इसका पुरस्कार पाये नहीं रहेंगे, क्योंकि आशीर्वाद प्रदान करके वे स्वयं आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। मनुष्य केवल भौतिक आहार पर ही निर्भर नहीं रह सकता। सत्यरूप में जीवित रहने के लिये उसे उन शब्दों को भी अपने भीतर ले जाना होगा, जो स्वयं भगवान के मुखारविन्द से निकलते हैं।

भौतिक जीवन की पाषाणमयी कठोरताओं पर हम अपना जीवन निर्भर करने की चेष्टा कर रहे हैं पर पाप की आलोचना करने वाले शब्दों में कोई पोषणतत्व नहीं हैं। ऐसे आहार पर निर्भर रहकर हमारी आत्मा भूखों मर जायेगी। हमको सच्ची पुष्टि पहुँचाने वाला आहार तो ईश्वर की कल्याणमयी वाणी से प्राप्त होता है, जो सत्य और धर्म से ओत-प्रोत है। ईश्वर की सृष्टि में सब अच्छे हैं और जब हम उसकी कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करते हैं तभी जीवन की वास्तविक खुराक ग्रहण करते हैं और जब असली खुराक हमें मिल सकती है तो फिर पत्थरों (कठोरताओं) पर क्यों निर्भर रहें।

पत्थरों को खाकर कोई बढ़ नहीं सकता, फल-फूल नहीं सकता। इसी तरह कठोर शब्दों में कोई बढ़ नहीं सकता, फल-फूल नहीं सकता। ईश्वर का प्रेम, जीवन और उनकी वास्तविकता ही जीवन की असली खुराक है, भगवान की मंगलमयी वाणी सुनिये और उससे शक्ति एवं जीवन प्राप्त कीजिये। केवल उनके मंगलमय शब्दों को ही अपने मुख में धारण कीजिये। अपनी बातचीत में केवल उन्हीं शब्दों का प्रयोग कीजिये, जिनमें आत्मा के निर्माणपरक तत्व भरे हैं। अपनी वाणी को ऐसी मंगल-संस्थापना हो और जगत में उसी का प्रसार हो।

अतः आपको जब कुछ बोलना हो तो केवल मंगल के लिए ही बोलिये।

-कल्याण


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