कर्म-योग का सन्देश!

December 1946

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(श्री 108 स्वामी श्री शिवानन्द जी सरस्वती)

आत्म भाव के साथ किसी पारमार्थिक संस्था की ओर से मानव-समाज की निस्वार्थ सेवा, भूखों को अन्न दान करने, निर्धनों को वस्त्रदान देकर, रोगियों की परिचर्या में रत रह कर, अछूतों को सान्त्वना देकर, गिरे हुओं को उठाकर सीने से लगाते हुए जरूरत मांदों की जरूरतों को दूर कर के तथा अज्ञानियों तथा अशिक्षितों को ज्ञान की शिक्षा देकर बिना अपनी इन सेवाओं के बदला चाहे जो मनुष्य वास्तव में दूसरों की यथार्थ सेवा करते हैं, वे प्रभु के प्यारे हैं। तुम यह समझ कर सेवा करो कि भगवान के आदेशानुसार सेवा कर रहे हो, निमित्त मात्र बन कर कारीगर के औजार मात्र की भाँति सेवा कार्य करो। सेवा करने से तुम्हारा मन पवित्र होगा, और तुम्हें उच्चतम सत्य की प्राप्ति होगी।

हे मानव! तुम भगवान को कहाँ ढूँढ़ते हो? उपरोक्त सेवित रूप को ही भगवान के रूप समझो, इन्हीं में भगवान का आभास मानो। यदि तुम सब की सेवा नारायण-भाव से करोगे तो तुम्हारी यह सेवा भगवत्सेवा ही समझी जायगी। मानव सेवा ही यथार्थ भगवत्सेवा है। मनुष्य-सेवा ही भगवत्पूजा और इष्ट सिद्धि का साधन है। जब तुम इन निरीह जन-साधारण की सेवा प्रेम से नहीं कर सकते तो संसार में तुम्हें कही भी भगवत्प्राप्ति नहीं हो सकती।

वह पुरुष जो दुनिया की सेवा करता है, वास्तव में वह अपनी सेवा करता है। वह व्यक्ति जो औरों की सहायता करता है, वस्तुतः अपनी सहायता करता है। इसलिए जब तुम दूसरों की सेवा करो, उस समय सदैव यह विचार रक्खो कि भगवान ने तुम्हें आत्मोन्नति का स्वर्ण-अवसर प्रदान किया है। सेवा द्वारा ही तुम अपने दोषों का मार्जन कर सकते हो। अपने को नम्र, मृदुभाषी और सहनशील बनाते हुए उन्नति कर सकते हो अतएव उस मानव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करो जिसने अपनी सेवा करने का अवसर तुम्हें दिया है।

जो भगवान की सेवा करते हैं वे सभी व्यक्ति समान हैं-बराबर हैं। यदि तुम भगवान के सच्चे भक्त बन आध्यात्मिकता प्राप्त करना चाहते हो, तो ऊँच-नीच का भाव त्याग दो। समस्त भेद-भावों को समूल भस्म कर दो और भगवान को सब में देखो। विशुद्ध-प्रेम, क्षमा, सम-दृष्टि, सहनशीलता, नम्रता, मधुरता अपने को सबसे छोटा समझने के भावों की वृद्धि करो। सबसे मिलों। सब में एकत्व स्थापित करो और इस प्रकार अपना मानव जीवन सार्थक करो।

कर्म योग का अभ्यास साधक के मन को आत्म-ज्ञान प्राप्ति के योग्य बनाता है। इससे वह वेदान्त सीखने को अविकारी बन सकता है। अज्ञानी-पुरुष बिना कर्म योग की प्रारम्भिक शिक्षा और अभ्यास के एकदम ज्ञान-योग के अभ्यास पर कूद पड़ते हैं। इसी से वे यथार्थ सत्य की प्राप्ति में प्रायः असफल रहते हैं। इससे प्रतीत होता कि अभी उनके मस्तिष्क में विकार और अशुद्धियाँ मौजूद हैं। उनका मन अच्छी और बुरी चाहनाओं से भरा है। वे केवल ब्रह्म की चर्चा मात्र करते हैं वे अक्सर व्यर्थ के वाद-विवाद, वार्ता और निरर्थक-कथनोपकथन में पड़ जाते हैं। जो निरे शुष्क, कभी न समाप्त होने वाले और निष्फल हैं। उनका दार्शनिक-ज्ञान उनके ओठों तक ही सीमित है। दूसरे शब्दों में यदि उनका वाक्-वेदान्ती कह दिया जाय, तो कोई अत्योक्ति न होगी। जिसकी जरूरत है, वह है क्रियात्मक वेदान्त, जो आत्मभाव से और निस्वार्थ रूप से मानव समाज तथा देश की किसी न किसी रूप में सेवा की जाय। स्थायी और अस्थायी का अन्तर सीखो। उस परमात्मा को समस्त जीवों में, सभी पदार्थों में देखो। नाम और रूप की परवाह मत करो। वे तो अनेक हैं, उसके समझने में न फंसो। ऐसा करो कि कहीं भी केवल एक ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो शारीरिक मानसिक, आध्यात्मिक आदि तुम्हारे पास है उसमें भाग लो। इस प्रकार सबमें भगवत् भाव ही समझ कर सब की सेवा करो।

ऐसा अनुभव करो जब तुम दूसरों की सेवा करते हो, तो तुम अपनी ही आत्मा की सेवा कर रहे हो। अपने ही समान अपने पड़ौसियों को प्रेम करो। सभी भेद-भावनाओं को दूर हटा दो। ऐसे विचार जो मानव को मानव से पृथक समझें, उन को चित्त में आने से सावधानी पूर्वक रोको। सब से मिलों, सबको गले लगाओ। उस परब्रह्म को निराकार एवं निर्विकार और स्त्री पुरुष में समानत्व स्थिति समझ कर अपने मन से भेद-भाव दूर कर दो। जब तुम कर्म करो तब मन को ब्रह्म में लीन कर दो। यही क्रियात्मक वेदान्त है। यही समस्त उपनिषदों का सार तथा सन्त-महात्माओं के उपदेशों का गूढ़ तत्व है। यही आन्तरिक-आत्मा का जीवन-ध्येय है। अपने दैनिक जीवन में इन बातों का खूब अभ्यास करो। तब तुम निश्चय ही एक सफल योगी और जीवन्मुक्त बन सकोगे।

देना सीखो। दान में अपार प्रसन्नता होती है। इसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं, भगवत् इच्छा पर अपने को उत्सर्ग करना सीखो। आत्म शरण गति में अपार प्रसन्नता होती है। बहुत ही कम इसे जानते हैं। पहचानना सीखो। असत्य और सत्य के भेद को समझो। बहुत कम लोग इस अन्तर को जानने की चेष्टा करते हैं।

ऐसे लोग जो पीड़ितों के प्रति सच्ची हमदर्दी रखते हों जो उनके दुःख का अनुभव करते हों बहुत कम पाये जाते हैं। दुनिया ऐसे लोगों से भरी है, जो मौखिक सहानुभूति और दिखावटी हमदर्दी रखते हैं। निश्चित और वास्तविक हमदर्दी वाले तुरन्त ही पीड़ितों को सहानुभूति प्रकट कर उनकी सहायता में क्रियात्मक रूप से जुट पड़ते हैं। उन का दिल बड़ा ही मुलायम होता है। पीड़ितों के कष्ट को वे सहन नहीं कर पाते। यदि किसी निरीह जन को वास्तविक क्लेश में वे देखते हैं, तो देखते ही उनका दिल पिघल जाता है। जो दिखावटी सहानुभूति वाले होते हैं, वे एक सच्चे पीड़ित को देखने पर कम द्रवीभूत होते हैं और अपने पास कुछ खर्च करने या देने में तरह-तरह के बहाने बनाते हुए हिचकते हैं। ऐसे लोग कंजूस होते हैं। मौखिक हमदर्दी वाले फिर भी इन कंजूसों और संग दिल वालों से बेहतर हैं, कारण कि वे सुधारे जा सकते हैं। मौखिक सहानुभूति कभी असली हमदर्दी में भी चेष्टा करके बदली जा सकती है। अधिक अभ्यास और पीड़ितों को अधिक देख रेख से उनके मन पर असर हो सकता है।

अपने काम में सदैव लगे रहो। पूरे मन, मस्तिष्क और आत्मा से कर्म करो। फल की कभी परवाह न करो। सफलता या असफलता का कभी विचार मत करो। भूत (बीते हुए) का ध्यान न करो। पूर्ण-विश्वास रक्खो और आशावादी बन कर कर्म में रत रहो। आत्म निर्भरता का अभ्यास करो। सदैव प्रसन्न चित्त रहो। सधा हुआ मन रक्खो। कर्म, केवल कर्म, करने के ध्येय से ही करो। हिम्मत और जवाँमर्दी रक्खो। तुम हर काम में निश्चय ही सफल होंगे। यही सफलता का मूल सिद्धान्त है।

प्रेम का दीपक अपने हृदय में जलाओ। सभी को प्रेम करो। अपने प्रेम का पात्र जीवमात्र को समझो। विश्व-प्रेम का पाठ पढ़ो। समस्त मानव समाज को अपने हृदय में स्थान दो। सबको छाती से लगाओ। सबसे सच्चा प्रेम, आन्तरिक प्यार करो। याद रक्खो प्रेम ही वह देवी-औषधि है, जो तुरन्त ही असर करती है। हर काम में विशुद्ध प्रेम प्रकट करो। मक्कारी, लोभ, लालच, स्वार्थ, धूर्तता आदि को त्याग दो, दूर कर दो। ध्यान रक्खो कि केवल लगातार मेहरबानी के कामों का अभ्यास करो, घृणा, क्रोध, द्वेष आदि दुर्गुण भी बराबर प्रेम-पूर्वक सेवा-कार्यों में लगे रहने से छूट जाते हैं। जब तुम दूसरों पर मेहरबानी के काम करोगे, तो तुम अपने में अधिक बल, ज्यादा-खुशी तथा बेहद संतोष पाओगे, तुम्हें सभी प्यार करने लगेंगे। तुम सबके दिलों में बैठ जाओगे सबके प्यारे बन जाओगे। दवा के कार्य नम्र-सेवा भाव और पीड़ितों की सहायता-सहानुभूति से तुम्हारा दिल शुद्ध, कोमल, दयावान, मधुर, नम्र बन जायगा, जिससे तुम दैवी-ज्योति पाकर सफल साधक बन सकेंगे। तुम्हारा मन भगवान के चरण कमल में लीन होगा और तुम्हारा जीवन धन्य हो जायगा।

सब के साथ प्रेम का बर्ताव करो। समानता का व्यवहार करो। सभी को हृदय से चाहते हुए गले लगाओ। सब की सेवा करो तथा सब से प्यार करो। समस्त मानव समाज के दिलों में अपनी प्रेमपूर्ण अनवरत सेवा द्वारा जगह प्राप्त करो निस्वार्थ सेवा ही उन्नति का एकमात्र साधन है। इसे अपने जीवन का ध्येय समझो। इसी से तुम भगवत् गीता कर सकते हो। इसी से तुम्हारा जीवन आदर्श बन सकता है। यह कर्म योग की साधना है और सच्चे कर्म-योग का यही एक मात्र अपना सन्देश है।

भगवान तुम में सेवा करने की शक्ति, देश प्रेम करने का दिल दे और सच्ची हमदर्दी प्रकट करने का साधन प्रदान करें, जिससे तुम कर्म-योगी बन कर अपना और समस्त मानस समाज का कल्याण कर सको।


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